कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया

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Dr. R.K. Singh

आज विविध भारती पर एक पुराना गाना आ रहा था जिसके बोल कुछ इस प्रकार थे:
“कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया…..” इससे लेखक को यानि मुझे वह ऐतिहासिक घटना याद आ रही है जब सन् 1982 में राजश्री वाले सूरज बड़जात्या के कहने पर गुंजा को लेकर चन्दन जौनपुर के केराकत गाँव से ‘नदिया के पार’ अपने गाँव जा रहा था। तब गुंजा ने पूछा था कि “कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया”।

मुझे आज तक समझ नहीं आया कि गुंजा के बार-बार पूछने पर भी चन्दन ने दिशा क्यूँ नहीं बताई? यहाँ तक कि अंत में निराश होकर गुंजा ने यह भी कहा कि “कितनी दूर अभी कितनी दूर है, ऐ चंदन तोरा गाँव हो”, मगर चन्दन बाबू ने आज तक कोई जवाब क्यूँ नहीं दिया यह समझ से परे है? अब इसका जवाब आदरणीय रविन्द्र जैन साब ही दे सकते हैं!
फिलहाल ‘बटोहिया’ की बात करें तो यूपी में हर हाईवे पर बटोही रेस्त्रां बाट जोहते मिल जाएँगे। अब कोई-कोई तो वास्तव में दिन भर बाट ही जोहते रह जाते हैं।

अब ये ‘रेस्त्रां’ शब्द भी गज़ब है लिखो रेस्टोरेंट और पढ़ो रेस्त्रां। हम हिंदी वालों को तो इतना पता है कि जो लिखो सो बोलो और जो बोलो वही लिख मारो। कौनौ लाग-लपेट नहीं। और यह फ्रेंच तो अपने आधे शब्दों को मूक कर देती है। लंबे-लंबे शब्द और आधे को पढ़ना ही नहीं। बेचारे दिशा विहिन सोचते होंगे कि, जब हमें पढ़ना ही नहीं तो हमें यहाँ बैठाया क्यूँ? अब ‘फ्रेंच’ यानी फ्रांसीसियों को दुनिया के कुछ सबसे अंधविश्वासी लोगों के रूप में जाना जाता है। अंधविश्वास फ्रांसीसी संस्कृति में निहित हैं, दिशा तो छोडिये वे तो लेफ्ट, राइट, ऊपर, नीचे को लेकर भी दिशा भ्रमित रहते हैं। फ्रांसीसी मानते हैं कि शैतान आपके बाएं कंधे पर रहता है, इसलिए उस दिशा में नमक फेंकने से आपके आस-पास की कोई भी बुरी ऊर्जा दूर हो जाएगी। भूल कर भी अगर कभी किसी फ्रांसीसी को उलटी रोटी दे दी तो समझ लीजिये संबंधों का कबाड़ा हो गया। यह तो एक फ्रांसीसी के लिए बहुत बड़े दुर्भाग्य का सूचक माना जाता है।

दुनिया का सबसे पुराना परफ्यूम भी फ्रांस में ही बनता है। और वह 1889 से अब तक लगातार बनता आ रहा है उस ब्रांड का नाम ‘जिकी’ है। और यह काफी पहले ही उजागर हो चुका है कि इसको बनाने के लिए भारतीय चन्दन का ही प्रयोग होता है।
और एक ये चन्दन है कि आज चालीस साल बाद भी गुंजा को ये नहीं बता पा रहा है कि “कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया…।”

डॉ आर के सिंह, वन्य जीव विशेषज्ञ, स्तम्भकार एवं कवि