उम्र की व्यवस्था बनी व्यवस्थाओं की उम्र

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1880
Dr. Kamal Musaddi

हजारों वर्षों से चली आ रही एक कहावत कि औलाद बुढ़ापे का सहारा होती है। जब समाजशास्त्रियों ने परिवार को परिभाषित किया तो यही कहा “परिवार वो संस्था है जहां बच्चों का जन्म परवरिश का दायित्व और बुजुर्गों की देख रेख होती है”।मगर इस बदलते आधुनिक परिवेश में इस कहावत के ,परिभाषा के अर्थ ही बदल गए हैं।

आज पैतृक व्यवसाय अथवा काश्तकारी से जुड़े लोगों को छोड़ दो तो अधिकांशतः परिवारों के बच्चे नौकरी पेशा हैं।अगर नौकरी पेशा बहू है तो वो किसी की बेटी भी तो है।अब समस्या तब आती है जब आप अपनी नौकरी पेशा बेटी का विवाह कर देते है या फिर नौकरी पेशा बहू लाते है और  उनके प्रसूतिकाल अथवा अन्य शारीरिक परेशानियों के समय बच्चे छुट्टी लेकर आ नही सकते ।अगर समस्या आपकी बेटी के घर है तो बजी आपको उसे सहयोग करना पड़ेगा और बहू की है तो बेटे से रिश्ते बनाये रखने को उसे सहयोग करना होगा।सहयोग भी क्या आर्थिक रूप से संपन्न बच्चों को भी अपने परिवार  वृद्धि के समय अनुभवी हाथों की देखरेख और विश्वसनीय संबंध माँ और पिता के अतिरिक्त न कोई दे सकता है और वो विस्वास करते है।

अपवाद स्वरूप तो कुछ भी हो सकता है।मेरे अपने आस – पास के संसार में,मैं देखती हूँ अपनी जमीं-जमाई गृहस्थी को छोड़कर बच्चों के पीछे भागते माता पिता को।

मेरे परिचय के दायरे में ही मैं ऐसे  दर्जनों माता -पिता को जानती हूँ, जिन्होंने सिर्फ पासपोर्ट -वीजा इसलिए ले रखे हैं कि उन्हें बहू अथवा बेटी की डिलीवरी के समय विदेश जाना है अथवा देश  के किसी अन्य दूर -दराज के शहर में बच्चों के साथ जा कर रहना है।संतान के मोह में दौड़ भाग करते ये ,उम्र के तीसरे पड़ाव पर खड़े  ये माता पिता  यद्यपि कहते कुछ नही मगर घुटनों पर दबाव डालकर उठते -बैठते ,हाँफती साँसों से दौड़ भाग करते ,बच्चों की पसंद की वस्तुएं जुटाते ,बच्चों के गूगल ज्ञान का सामना करते ,बार -बार महीनों बंद पड़ी अपने घर की साफ-सफाई करते ,नौकरों को बिना काम की पगार देते और एक अजीब से थकान भरे सुख को जीते देखती हूँ तो लगता है कि बदलते समय ने परिवार और संतान दोनों की परिभाषा बदल दी है।

ये कहावत भी बेमानी लगती है ,कि बच्चे बुढ़ापे का सहारा होता है।आज सर्वे बताते है कि महानगरों या विदेशों  में नौकरी वाले युवक युवतियाँ अव्वल तो विवाह से कतराने लगे हैं और विवाह कर लेते हैं तो संतानोत्पत्ति से डरते है और अगर सामाजिक दबाव अथवा भावनात्मक कमजोरी के कारण संतान पैदा भी करते हैं तो एक बच्चे  के बाद बुजुर्गों वसे मोर्चा लेने को तैयार हो जाते हैं और साफ शब्दों में पूछते  हैं ” पालेगा कौन?”।

सच तो ये है कि आधुनिक सुख सुविधाओं ने जिंदगी की व्यवस्थाओं का अर्थ ही बदल दिया है।पहले लोग बुढ़ापे की व्यवस्था में जीवन बिता देते थे,अब बुढापा जिंदगी की शुरुवात करने वाले बच्चों की व्यवस्था में लग गया है।इसे ही कहते हैं”हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िंदगी”।

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