हमारे चारों ओर नेपाल से लेकर तिब्बत तक फैला महान हिमालय दृष्टिगोचर हो रहा था। पास के अन्य शिखरों ल्होत्से, नुप्तसे और मकालू को देखने के लिये अब नीचे देखना पड़ रहा था। पृथ्वी की यह महान पर्वतश्रेणी फैले हुए आकाश के नीचे छोटे छोटे उभार जैसी प्रतीत हो रही थी। यह वह दृश्य था जैसा मैंने न कभी देखा था और न कभी देखूंगा- “असाधारण, आश्चर्य जनक, भयावह”। ‘मैन ऑफ एवरेस्ट- द ऑटोबायोग्राफी ऑफ तेनज़िंग’ में लिखे यह शब्द एक पल को पाठकों को एवरेस्ट के उसी शिखर पर खड़ा कर देते हैं जहां कभी महान पर्वतारोही व शेर्पा तेनज़िंग के कदम पड़े थे। यह प्रसिद्ध वर्णन तब तक सम्भव नहीं था जब तक तेनज़िंग स्वयम एवरेस्ट तक न पहुंचे होते।
प्रकृति चित्रण पत्रकारिता की वह विधा है जो पाठकों को प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य का न केवल बोध कराती है अपितु पाठक को शब्दों के माध्यम से समस्त घटनाक्रम का एक चरित्र बना देती है। पाठक को एहसास होता है कि वह स्वयं वहां पहुंच गया है। इस सम्बन्ध में सन उन्नीस सौ चौरासी का एक दिलचस्प संदर्भ स्मरण हो आया। मैं पिताजी के साथ ट्रेन, पांड्यन एक्सप्रेस, से एक छोटे से स्टेशन कोडाई रोड पर उतरा। तब वह तत्कालीन मद्रास से मदुरै की छोटी रेलवे लाइन का एक छोटा सा रेलवे स्टेशन था, जहां अक्सर दक्षिण भारत के प्रसिद्ध पर्वतीय स्थल कोडाइकनाल जाने वाले सैलानियों का तांता लगा रहता था। फिलहाल हमारी बस जैसे ही पलनी पर्वतों की सर्पिलाकार सड़कों पर आगे बढ़ने लगी तो मुझे ऐसा एहसास हुआ कि जैसे ये ऊंचे-ऊंचे साईप्रस, एकेसिया के दरख़्त और नीली-नीली पर्वतमाला कुछ जानी पहचानी सी हैं। रास्ते में पर्वत को चीरता हुआ सिल्वर कास्केड झरने का पानी और उससे उठती धुंध को देख कर तो ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे में कई बार यहां आ चुका हूँ। धुंध के आगोश में सिमटी कोडाई लेक और पक्षियों का कलरव मन को बरबस किसी पुरानी स्मृति की ओर खींच रहा था। मैं चाह के भी यह नहीं समझ सका कि यह सब इतना पहचाना क्यों लग रहा है, आखिर इससे पहले तो मैं कभी यहां आया ही नहीं। इसका उत्तर मुझे इस घटना के लगभग ग्यारह वर्ष बाद एक पुरानी सन्दूक के अंदर रखे पत्रों में उस समय मिला जब हम नए घर में सामान शिफ्ट कर रहे थे। यह पत्र पिताजी द्वारा हमें कोडाइकनाल से लिखे गए थे। उनके प्रत्येक पत्र में गणित के सवाल, विज्ञान के प्रयोग या फिर अंग्रेजी व्याकरण के टेंस के विवरण के साथ पलनी हिल्स या प्रकृति का वर्णन अवश्य होता था। यह वर्णन इतनी खूबसूरती से शब्दों में पिरोया होता था कि पढ़ने वाले को एहसास होता था कि वह स्वयं प्रकृति की इन सुंदर घाटियों में विचरण कर रहा है। एक पत्र में वर्णन कुछ इस प्रकार था “हमारी बस अब गगन चूमते पलनी पर्वतों की खूबसूरत घाटियों और विशाल दरख्तों के बीच से दूर तक दृष्टिगोचर होती सर्पिलाकार सड़क पर मद्धिम गति से दक्षिण भारत के मनमोहक हिल स्टेशन कोडाइकनाल की ओर बढ़ रही है। बस की खिड़की से आता शीतल पवन का मद्धिम सा झौंका चित्त को एक अद्भुत शांति प्रदान कर रहा है”।
समस्त फोटो क्रेडिट: क्षितिज सिंगरौर
घुमक्कड़ी के शौकीन तमाम लेखकों ने प्रकृति की असीम सुंदरता को अपने शब्दों में पिरोया है। परन्तु प्रकृति का यह सजीव चित्रण बंद कमरे में सम्भव नहीं है। घुमक्कड़ी के शौकीन दुनिया के हर कोने में मिल जाएंगे परन्तु यायावरी को शब्दों में वयक्त करने की कला विरले ही लेखकों में मिलती है। हिंदुस्तान टाइम्स के एक जाने माने जर्नलिस्ट बताते हैं कि “किसी भी विषय पर लेखन के लिए पहली आवश्यकता विषय का ज्ञान होना है। किसी भी फीचर को लिखने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना आवश्यक है कि आप क्या लिखना चाहते हैं। प्रकृति के अतिरिक्त कोई भी अन्य फीचर कुछ पुस्तकों एवम समाचार पत्रों में छपे लेखों को पढ़कर लिखा जा सकता है। लेकिन प्रकृति लेखन में प्राकृतिक रंग आप तभी भर सकते हैं जब तक आप स्वयम प्रकृति के मध्य न हों। एक अच्छे प्राकृतिक फीचर के लिए कुछ लेखकों को कई-कई दिन एक ही स्थान पर बिताने पड़े हैं”।
आधुनिक विशेषकर ऑनलाइन साहित्य में प्रकृति लेखन के साथ एक या अधिक प्राकृतिक फ़ोटो को स्थान दिया जाना चलन में है। ऐसे में यह आवश्यक है कि जो भी छायांकन किया जाए वह समकालीन होने के साथ शब्दों के विन्यास के अनुरूप हो। मात्र एक समरूप फ़ोटो लेखक के शब्दों को और अधिक महत्वपूर्ण बनाने की क्षमता रखती है। उदाहरण स्वरूप मैं स्वयम विषय से हटकर एक छोटी सी कविता ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ के साथ छपे एक श्वेत श्याम छाया चित्र का उल्लेख करना चाहूंगा। सचमुच लेखक ने गुजरती रेल गाड़ियों के बीच एक जगह स्थिर प्लेटफॉर्म की स्थिति का सजीव चित्रण करने के लिए जिस प्रकार एक श्वेत श्याम फ़ोटो का सहारा लिया वह एक छोटी सी कविता को जीवंत करते हुए एक क्षण को पाठक को भी रेलवे प्लेटफॉर्म पर पहुंच देता है। मेरे एक मित्र जो कि पेशे से वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी के शौकीन हैं, एक बार एक गोह की मुंह से निकलती जिह्वा का फोटो लेने के लिए कीचड़ में दो घण्टे से अधिक कैमरा लेकर लेटे रहे। और जो दृश्य उन्होंने उस दिन कैमरे में कैद किया। वह अपने आप में एक मिसाल है। प्रकृति लेखन हो या छायांकन अपने आप में तब तक सम्भव नहीं है जब तक आपमें संयम के साथ थोड़ी प्रकृति के प्रति आवारगी न हो। अन्यथा सज संवर के घर से निकलने के बाद कीचड़ में लेट कर एक गोह की जिह्वा की फ़ोटो खींचना आवारगी नहीं तो क्या है।
एक बार एक समारोह में एक जाने माने नेचर फोटोग्राफी के शौकीन महोदय से मैंने पूछा “आपके फ़ोटो इतने अलग क्यों होते हैं, क्या आप कोई विशेष तकनीक या कैमरे का प्रयोग करते हैं”। मेरी कल्पना के विरुद्ध जब उन्होंने एक साधारण सा कैमरा मेरे सामने रख दिया तो मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा कि इस कैमरे से यह तस्वीरें तो सम्भव नहीं हैं। उत्तर में वे मुस्कुरा उठे, “तस्वीर कैमरा नहीं खींचता, आपका फ़ोटो खींची जाने वाली वस्तु के प्रति दृष्टिकोण फ़ोटो खींचता है, वरना कैमरे का बटन तो हर कोई दबा सकता है”। वे बताते हैं कि वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी में आवश्यक है कि आप जंगल के राजा की फ़ोटो खींच रहे हैं तो इस प्रकार खींचें कि वह जंगल के राजा सा रोबदार दिखे। इसके साथ ही आवश्यक है कि शेर के साथ जंगल का बैकग्राउंड अथवा फोरग्राउंड यदि नहीं है तो आपकी एक शानदार फ़ोटो को कोई भी देखने वाला नहीं मिलेगा। गैर पेशेवर फोटोग्राफी के शौकीनों के लिए उनका नजरिया बिल्कुल अलग था, उनके शब्दों में, “यदि आप कम समय में अपनी फोटोग्राफी के माध्यम से पहचान बनाना चाहते हैं तो किसी भी वन्यजीव के किसी एक अंग विशेष पर ध्यान केंद्रित करें, जैसे केवल आंख, पूंछ के छोर के बाल, फूलते पिचकते नथुने, खुला मुंह या फिर नर हिरन के सींगों का पैटर्न। लेकिन यह सब आपके संयम की परीक्षा लिए बिना सम्भव नहीं होगा। उदाहरणस्वरूप यदि आप नैनीताल की फ़ोटो बस स्टैंड अथवा नैना पीक, जिसे चाइना पीक या चिन्ना पीक भी कहते हैं, से लेते हैं तो हजारों फ़ोटो मिल जाएंगी और शायद ही कोई उनपर नज़र डाले। वहीं यदि आप ठंडी सड़क की ऊपर की पहाड़ियों से नैनीताल की खूबसूरती पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं तो कुछ नयापन का एहसास अवश्य होगा”।
भारतीय वन सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी, जो कि पक्षियों की फोटोग्राफी में महारत रखते हैं, बताते हैं कि, “पक्षियों की फ़ोटो तो सभी खींचते हैं लेकिन पक्षियों के कुछ क्रिया-कलाप करते हुए फ़ोटो खींचना आपकी फ़ोटो को अलग पहचान देता है। निःसंदेह एक अच्छा व महंगा कैमरा फ़ोटो की बारीकियां पकड़ रखने की क्षमता रखता है। परंतु एक साधारण कैमरे से भी विभिन्न कोणों से अच्छे फोटोग्राफ लिए जा सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि किसी भी प्रकृतिक फोटोग्राफी के पहले उसकी विभिन्न उपलब्ध फ़ोटो का बारीकी से अध्ययन कर लिया जाए। और यह सुनिश्चित कर लें कि किन बारीकियों या कोणों से फ़ोटो उपलब्ध नहीं हैं”। आकर्षक प्राकृतिक फोटोग्राफी के लिए उनका मन्तव्य है कि “प्रथम तो इसमें फोटोग्राफी का कोण व समय का ध्यान रखना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। और दूसरा संयम, यदि आप में संयम नहीं है तो प्रकृति छायांकन छोड़ आपको पेशेवर फोटोग्राफी प्रारम्भ कर देनी चाहिए”।
मेरे कई लेखक मित्र बताते हैं कि वे प्रकृति पर तब तक नहीं लिख पाते जब तक वे स्वयं प्रकृति के बीच न हों। मेरे एक बार माउंट आबू प्रवास के दौरान हमारे होटल में ही रुके एक दक्षिण भारत के लेखक महोदय से मुलाकात हुई। वे सात दिन से वहां थे लेकिन वे इन सात दिनों में केवल होटल के सामने नक्की झील के किनारे एक शांत जगह पर ही प्रतिदिन बैठते थे और अपना उपन्यास, जो एक दक्षिण भारतीय मध्यम वर्गीय लड़के व माउंट आबू की उसकी प्रेयसी की प्रेम कथा पर आधारित था, ही लिखने में व्यस्त रहते थे। उनका कहना था कि इसके पहले वे पांच दिन तंजावुर भी रुके थे क्योंकि कथा का नायक का पारिवारिक परिवेश इसी शहर के आस-पास का था। हांलांकि वह उपन्यास मैं नहीं पढ़ सका लेकिन निःसंदेह उनका जज्बा स्वागत योग्य था।
जर्मनी की प्रसिद्ध मैगज़ीन के लिए लिखने वाले यायावरी के शौकीन एक लेखक एक बार मुझसे मिलने कानपुर आये। वे सुदूर जर्मनी से गंगा पर लिखने के लिए लगभग एक माह के प्रवास पर भारत आये थे। उन्होंने गंगा के सम्बंध में घूम-घूम कर वह छोटी-छोटी परन्तु रोचक जानकारियां एकत्र कर ली थीं जो जल्दी आम भारतीय को भी ज्ञात नहीं होतीं। उनका कहना था कि मैं चाहता तो यह सब जर्मनी में बैठ कर भी लिख सकता था। लेकिन मेरा उद्देश्य था कि यूरोप के लोग मेरे शब्दों के माध्यम से गंगा की महानता को महसूस करते हुए स्वयम को इस पवित्र पावनी गंगा में स्नान करता पाएं। वे कहां तक सफल हुए यह तो मैं नहीं जानता पर यह अवश्य है कि प्रकृति लेखन व पत्रकारिता एक जगह बैठ कर प्रभावी रूप से सम्भव नहीं है। यदि आपके शब्दों के माध्यम से पाठक अपने आप को उस स्थान पर महसूस करे तो प्रकृति चित्रण पूर्ण माना जा सकता है। मनोरम दृश्यों के रेखांकन की कोई सीमा नहीं हो सकती क्योंकि प्रकृति को जितना अधिक शब्दगत किया जाए उतना अधिक प्रकृति जीवंत हो उठती है।
प्रकृति लेखन की विधा असीमित है। लेखक शब्दों के माध्यम से पाठक को प्रकृति में होने का ही नहीं, प्रकृति के संगीत, पक्षियों के कलरव और सिंह की दहाड़ तक का सजीव अनुभव कराने का सामर्थ्य रखते हैं। शब्दों का ऐसा तिलिस्म बुना जा सकता है कि पाठक चाह कर भी उस इंद्रजाल से बाहर न आ सके। इसकी एक बानगी ऑनलाइन “वीक्सपोस्ट.कॉम” में दो वर्ष पूर्व प्रकाशित एक यात्रा संस्मरण में देखने को मिलती है “एक तरफ फैला हुआ विशाल नीला समंदर और दूसरी तरफ दूर-दूर तक फैली हुई वृक्ष की कतारें तथा मिट्टी से बाहर निकलती हुई मैन्ग्रोव वृक्षों की छोटी-छोटी हवाई जड़ें। जंगल को चीरते हुए अंदर तक बहती समंदर की लहरें औऱ लहरों से जूझते केंकड़े व कलरव करते हुए पक्षियों का हुजूम बरबस एक अद्भुत रोमांच पैदा कर रहा था”। शब्दों का क्षितिज प्रकृति की भांति असीम है। प्रकृति चित्रण के साथ ही साथ यदि नेचर म्यूजिक यानी प्रकृति संगीत यथा पक्षियों का कलरव, कोयल की कूक या पपीहे की पीहू पीहू का वर्णन न हो तो प्रकृति लेखन अपूर्ण ही रह जाता है।
उत्तर भारत के प्रसिद्ध कानपुर प्राणी उद्यान के प्रवेश द्वार पर एक विशाल बोर्ड दर्शकों का स्वागत कुछ ऐसे शब्दों से करता है कि दर्शक का चित्त वहीं से प्राणी उद्यान को देखने के लिए व्याकुल हो उठे। “प्राणी उद्यान का यह परिसर आपका स्वागत करता है। यह प्रकृति की अलौकिक शांति की अनुभूति देता है। यह वन्यजीवों के भूत, वर्तमान व भविष्य की जीवंत प्रस्तुति है। जो अपने आप में मनमोहक व आश्चर्यजनक है। आइए वन्यजीवों के इस अद्भुत संसार की यात्रा प्रारंभ करें”। निःसन्देह इस सन्देश को पढ़ते ही दर्शकों का मन व दृष्टिकोण प्राणिउद्यान के प्रति एक धनात्मक ऊर्जा से भर उठता है। प्रकृति लेखन पाठकों में उत्सुकता पैदा करने के साथ ग़ज़ब की आकर्षक शैली की भी मांग करता है।
हिंदी की प्रसिद्ध कहानी ‘नीम का पेड़’ में कहानी की नायिका का पूरा जीवन एक नीम के पेड़ के इर्द-गिर्द इतनी खूबसूरती से बुना गया है कि कहीं-कहीं लगता है कि पाठक स्वयम कहानी का पात्र होकर उस पेड़ की छांव में पहुंच गया है। प्रकृति चित्रण में प्रकृति के रंगों और परिवेश का सजीव विवरण ही पाठकों की आंखों में एक कल्पना की उड़ान भर देता है। आखिर उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की लोकप्रिय कहानी ‘पूस की रात’ का नायक हल्कू पूस की उस रात में अपने साथ पाठकों को भी ठंड से यूं ही नहीं कंपा देता है। ‘रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरू किया। हल्कू उठ बैठा और दोनोँ घुटनों को छाती से मिलाकर, सिर को उसमें छिपा लिया। फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, कि रक्त जम गया है, धमनियों में रक्त की जगह हिम बह रहा है’। यह तो प्रेमचंद की लेखनी का जादू ही है जो आपको जेठ की दोपहर में पूस की रात का अहसास करा देता है।
प्राकृतिक फीचर लेखक के जज्बे की परीक्षा भी लेता है। आपको अत्यंत दुर्गम स्थल की बारीकियों को जानने के लिए ऐसे स्थानों पर जाना होता है जहां अन्य लेखक या पाठक न पहुंचे हों, यह कार्य जोखिम भरा भी हो सकता है। क्योंकि किसी भी नई जगह जैसे कि किसी घाटी या पहाड़ी के मार्ग व टोपोग्राफी का लेखक को ज्ञान नहीं होता। अतः आवश्यक है कि किसी जानकार स्थानीय व्यक्ति को साथ रख कर ही उक्त स्थान की बारिकियों व अनछुए पहलुओं का अध्ययन किया जाए। किसी भी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए यह भी आवश्यक होता है कि प्रतिबंधित स्थलों के सम्बंध में पूर्व में ही सम्बंधित विभाग से अनुमति ले ली जाए।
प्रकृति के सम्बंध में यह निर्विवाद सत्य है कि प्रकृति को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता परन्तु शब्दों में पिरोया अवश्य जा सकता है। प्रकृति लेखन जितना विवरणात्मक हो उतना ही अधिक रोमांचक व सजीव हो उठता है। इसके अतिरिक्त लेखन की शैली पाठकों को अपने शब्दों के जादू में बांधने वाली होना अनिवार्य है।
विशाल देवदार के दरख्तों से होकर मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करती पवन, जंगल की पगडंडियों पर बिखरे पेड़ों के सूखे पत्ते, पंख फड़फड़ाते परिंदों के कलरव, दूर तक दृष्टिगोचर होते हिमालय पर्वत और इन सबके के बीच लेखक के द्वारा लिखा गया यह प्रकृति का प्रस्तुतिकरण कोई परिकथा या किसी चित्रकार की कल्पना नहीं बल्कि प्रकृति की जीवंत प्रस्तुति करने का एक प्रयास है। फिलहाल इस ढलती शाम, दूर क्षितिज पर डूबते सूरज, अपने नीड़ को लौटते परिंदों के कलरव और मंद-मंद बहती कार्तिक माह की शीतल पवन के बीच अपना यह लेख सम्मानित पाठकों को समर्पित करते हुए इस प्रकृति लेखन में मैं कहाँ तक सफल हुआ इसका निर्णय मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ।
-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ एवम साहित्यकार