जिन्दगी से दो बात बचपन और चन्दा मामा

0
1167
DR. KAMAL MUSADDI

मैं ढूंढती हूं खुद को
चकरघिन्नी वाले झूले की नाचती कुर्सियों पर
हरे गुलाबी लाल बैगनी गेंद सेव और दिल के
आकार के गुब्बारे बेचने वाले के इर्द-गिर्द
ढूंढती हू खुदको मुंह मे सिगरेट दबाये भालू
स्प्रिंग पर हा ना मे झूलती गर्दन वाले बुड्ढा बुढिया
मिट्टी के बर्तन कागज की तलवार गदा और
झाड़ू की सींक से बनाये गये धनुष को निहारती मेले
की भीड़ मे

मै ढूंढती हूँ खुद को भालू बन्दर वाले मदारी
के पीछे भागते घर से कयी कयी दूर की गली में
दीन दुनिया से बेखबर मां की मार से लापरवाह
किसी नागिन सी सम्मोहित सपेरे की मौहर और ढपली
की ताल का पीछा करती बच्चों की भीड़ में
क्यो की बडे बडे माल शोरूम सिनेमा हाल का
अंधेरा उजाला

बढा देते है मेरी बेचैनियां
ये सच है कि सैकड़ों चैनलों का शोर
और टकटकी लगा लेने के बावजूद
बेजान और स्थिर होती सोच मे गुम
मै कभी नही पा सकूगी खुद को
पर मुझे विश्वास है एक न एक दिन
ढूढ लूगी खुद को
खोया पाया की गणित से विमुख हो कर
जीवन के उस पार।

चन्दा मामा

जब मै छोटी थी
मां अक्सर सुनाती थी गीत
लड्डू मोतीचूर के
चंदा मामा दूर के
थोड़ा बड़ी हुई
सोच के पैरों पर खडी हुयी
तब भी मां यह गीत गुनगुनाती थी
चांद को मेरा मामा बताती थी
मै सोचती थी
दूर है चांद तो कैसे मामा
मामा है तो फिर उसके लिये मै क्यूँ अनामा
कुछ और बड़ी हुई
यानि की उम्र की गली में खड़ी हुई
तो भी मां को यही गीत गाते सुना
मां ने इसी गीत को गाते गाते मेरे लिये स्वेटर बुना
थोड़ा और बडी हुयी
दुनिया की आर्ट गैलरी में आकर खड़ी हुई
तब पता चला कि यह चांद ही
दिन भर खटती रहने वाली
खुद को मशीन कहने वाली
मां को दुलराता है
अपनी किरणों की हथेलियों से
थपकी देकर सुलाता है
अगली सुबह के लिये ऊर्जा लुटाता है
चांद का मां की थकानो पर
संवेदना भरा पहरा है
इसी लिये मां का चांद से
रिश्ता गहरा है।

और सूरज
उसके आते ही
इसकी उसकी मांगो की एफ डी से धनी
मां हो जाती है फिरकनी
शाम होने तक जोडती रहती है
थकान और पसीने की कमाई
उसे इंतजार रहता है कि
कब आएगा उसका चांद भाई
थोड़ा और बड़ी हुई

रिश्तो के आडिटोरियम में आकर खडी हुयी
तो आज मैं भी यही गीत गुनगुनाती हूँ
चांद को बच्चों को मामा बताती हूँ
फर्क इतना है कि महानगर के कांक्रीट के जंगल में
चांद मुश्किल से नजर आता है
फिर भी चांद रिश्ता निभाता है
चांद में अक्सर मेरी माँ की तस्वीर दिखती है
मेरी कलम फिर फिर यही कविता लिखती है
कि लड्डू मोतीचूर के
चन्दा मामा दूर के ।