बूढ़ा बचपन
ये मातृत्व में वात्सल्य का प्रकरण माँ और बच्चे के क्रमिक विकास व्यवहारिक मृदुलता और प्रकृति के अनुकूल है,किंतु उम्र से पहले बड़े से हो गए बच्चे की जीवन गति असंतुलित हो जाती है। प्रकृति भी चाहती है कि देह और मन का तारतम्य जुड़ा रहे ,लेकिन आधुनिक समाज न जाने क्यों इस तारतम्य को तोड़ने में लगा है।
आज छोटे से छोटे बच्चों को घर हो या विद्यालय सभी जगह इतनी तीव्रता से बड़ा करने के प्रयास चल रहे है की बचपन जैसे बड़ों के सपनो में खो गया है। बड़ी – बड़ी बातें , बड़े – बड़े जटिल काम करवा कर लोग उनकी प्रशंशा ही नहीं करते बल्कि स्वाभाविक रूप से बढ़ाने वाले बच्चों में हीनता भी भर देते हैं।कुछ बच्चे विशेष उपलब्धि पाकर, विशेष सहयोग पाकर जल्दी बड़े हो जाते है। तो कुछ न पाने के दर्द में बड़प्पन और गंभीरता तनाव और कुंठा ओढ़ लेते हैं। और ऐसे वातावरण में बच्चों की किलकारी सहज हँसी और सामान्य चपलता जिसे हम बचपना कहते हैं खोता जा रहा है। निदा फाजली का एक शेर मेरे दिल के बहुत करीब है।
“पीठ पर बोझ पा गए बच्चे, पालने में बूढ़ा गए बच्चे”
इसलिए हम सब का यह कर्तव्य बन जाता है कि बचपन को बूढ़ा होने से बचाएं। हो सकता है कि ये बूढ़ा बचपन हमारी कई जिम्मेदारियों को अपने कंधों पर ढोने लायक बन जाये ।मगर सृष्टि और सृजन की सुंदरता नष्ट होती चली जायेगी। और फिर जिन बच्चों में हम साक्षात ईस्वर की स्वरूप की मान्यता को मानते थे।वह ईस्वर हमसे दूर होता चला जायेगा। इसलिए बचानी है हमें किलकारियां ,चपलता चंचलता ,किल्लोर और मासूमियत । तभी हम जी पाएंगे एक सामान्य जिंदगी।