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बिजली का बिल

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Mohini Tiwari
बिजली विभाग ने की हड़बड़ी
बिलों में आई महा गड़बड़ी
नेता जी के घर लग गया मेला
ताल ठोककर बोला बेवकूफ चेला
सुनो भाइयों, नेता जी हमारे बड़े काबिल
वही चुकाएंगे सबके बिल !

चार सौ चालीस वोल्ट का लगा झटका
नेता ने चेले को उठाकर पटका
बोले, उपाय तेरा तुझ पर अपनाऊँगा
टाँगकर तुझे खंबे में, बिल चुकाऊँगा।

चेले को बाइज्जत टाँगा गया
मरने पर मुआ़वजा माँगा गया
मुआ़वजे में मिला भरपूर पैसा
नेता ने खेला खेल ऐसा
बिल के सहारे भर ली झोली
जनता देश की बेबस औ’ भोली….।

  • मोहिनी तिवारी

IIT Kanpur developed “Mobile Masterjee”

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Varma Sir ji
Imagineering Laboratory at the Indian Institute of Technology Kanpur has developed a classroom-to-home teaching setup (CHTS). It has been named as “Mobile Masterjee”.

The CHTS or the Mobile Masterjee can record the lectures and the instructions given by the teachers using their available smartphones.

‘Mobile Masterjee’, can capture the videos in horizontal (table) and vertical (blackboard) positions.

The team engineered the product consisted of Prof. Janakarajan Ramkumar, Dr Amandeep Singh, Anil Jha, Virendra Singh, and  NOTEJitendra Sharma.

The product is lightweight and compact and has adjustments to fit sheets and book on it for delivering instructions to the kids. A set graduated scales align the sheet at the desired angle, followed by the rotational quick adjustment of the mobile holder.

In a matter of seconds, the gadget can hold, position, and focus the whole recording setup, in the comfortable home environment. The “Mobile Masterjee” connects the teachers to their pupils to make them elated when they listen to the vibrant voices,

lectures, anecdotes and smiles.

Since the COVID-19 has brought the education system, particularly the classroom teaching to a standstill. The students in rural India are hit maximum by this. Mobile Masterjee would be a boon for rural students.

ऑनलाइन स्टडी

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Mohini Tiwari
मोबाइल स्क्रीन ने ब्लैकबोर्ड से की ठिठोली
इतराती अदाओ संग बड़े ताव से बोली
अरे बुद्धू! तुम्हारा गुजर गया दौर
अब सब देख रहे मेरी ओर
तुम स्कूलों में पड़े धूल फाँक रहे हो
व्यर्थ ही खुद को मुझसे आँक रहे हो
पहले मैं हंसती-हंसाती थी
अब बच्चों को ज्ञान बाँट रही हूँ
बाँध लो अपना बोरिया-बिस्तर
मैं तुम्हारी जड़े काट रही हूँ ।

ब्लैकबोर्ड ने हाथ जोड़कर किया नमस्ते
बोला, बड़े खूब है तुम्हारे रस्ते
तुमने तो ज्ञान विज्ञान की पलद दी परिभाषाएँ
चारदीवारी में कैद दिमागों को दे रही हो दिशाएँ
तुम क्या जानो खेल-कूद,बच्चों की हमजोली
तुमने कहाँ देखी स्कूलों की होली?
तुम न सिखा पाओगी भावनाओं का योग
सीमित है तुम्हारे सारे प्रयोग
जो तुम होती सर्वथा अनुकूल
कभी न खुलते कोई स्कूल
यदि तुम ही रही शिक्षा का आधार
हो जाएगा देश का बँटाधार…।

  • मोहिनी तिवारी

हिम्मत से बसाया सपनों का अनोखा गाँव

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Mohini Tiwari
किस्सा महाराष्ट्र के लातूर जिले का है। प्रबुद्ध पत्रकार रवि बापटले ने अपने हौसलों से एक अनूठा गाँव बसाया जो आज समाज के लिए एक मिसाल बन चुका है। उन्होंने इस गाँव को नाम दिया- ‘एचआईवी यानी हैप्पी इंडियन विलेज।’ जितना दिलचस्प इस गाँव का नाम है उतनी ही दिलचस्प कहानी है इसके बसने की।

वर्ष 2007 में रवि की मुलाकात एक एचआईवी पॉजिटिव लड़के से हुई। गाँव वालों ने उसका बहिष्कार कर दिया था। वह दर-दर भटकने को मजबूर हो गया। एचआईवी पीड़ितों के प्रति समाज का यह क्रूर रवैया देखकर रवि का मन अशांत हो उठा। समाज द्वारा तिरस्कृत रोगियों को एक बेहतर जीवन देने के लिए रवि ने एक अलग गाँव बसाने का संकल्प किया। उन्होंने हासेगाँव स्थित अपनी जमीन बेचकर सेवालय आश्रम खोला तथा उस बच्चे को वहाँ ठहराया। धीरे-धीरे यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। आस-पास के गाँवों के एचआईवी पॉजिटिव वहाँ आकर रुकने लगे। रवि ने उन सबकी देख-रेख का पूरा जिम्मा उठाया। इसप्रकार एचआईवी पीड़ितों के लिए एक अलग गाँव बस गया।

किंतु उनका यह सफर इतना आसान न था। गाँव वालों ने कई बार विरोध किया पर रवि ने हार नहीं मानी। उन्होंने सबको समझाया कि ‘एचआईवी कोई संक्रमित बीमारी नहीं है। यह छुआछूत से नहीं फैलती। एचआईवी से जूझ रहे लोगों को भी हम सब की तरह सामान्य जीवन जीने का अधिकार है। रोगी को अकेला तो नहीं छोड़ सकते।’ धीरे-धीरे यह बात लोगों को समझ आने लगी। उनकी कोशिश रंग लाई। वर्तमान में रवि के बसाए गाँव में 78 लोग रह रहे हैं। रवि उनके खाने-पीने व पढ़ने-लिखने का पूरा प्रबंध स्वयं करते हैं। 18 वर्ष से अधिक उम्र के वयस्कों को व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। गाँव में चारों ओर खुशनुमा माहौल है। बच्चे स्कूल जाते हैं। बड़े अपने प्रशिक्षण में व्यस्त रहते हैं। नियमित चेकअप के लिए डॉक्टर्स आते हैं। शाम को थियेटर चलता है। खास बात यह है कि रवि इन सब कामों के लिए कोई सरकारी अनुदान नहीं लेते।

एचआईवी गाँव के बाशिंदे किसी भी क्षेत्र में सामान्य जनों से कमतर नहीं हैं। यहां के बच्चे कहते हैं कि ‘आप तो कभी-कभी पॉजिटिव होते होंगे। हमारी तो पूरी जिंदगी ही पॉजिटिव है क्योंकि हम एचआईवी पॉजिटिव हैं।’ उनका जज्बा और जिजीविषा काबिल-ए-तारीफ है। रवि का मानना है कि उनके गाँव में पिछले 11 वर्षों से एक भी एचआईवी पॉजिटिव बच्चे की मौत नहीं हुई।वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ उनके जैसी संस्थाओं की कोई आवश्यकता न हो। सभी बिना किसी भेदभाव के एकसाथ रहे। रवि की पहल ने यह सिद्ध कर दिया कि ‘अगर हौसले बुलंद है तो आसमाँ में भी छेद किया जा सकता है।’

Lockdown: Bane for Humans, boon for Nature

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Maryam Nazar
Forty days long Lockdown announced in the country on March 25 to combat deadly Covid-19 virus, left remarkable impact on the environment. The skies in some of the most polluted cities of the country turned an azure blue and the air unusually fresh. Waterways choked by industrial pollution like river Ganga started flowing unimpeded and are witnessing more marine life. Wild animals also got unprecedented freedom to move into the cities.

The lockdown in fact rejuvenated our environment. It appeared that everything around us ushering a beautiful spring. The Covid-19 led lockdown has also shown us as to how mother earth can bounce back to life if humans allow for it.

The lockdown, during which trains, planes, automobiles and factories came to a grinding halt, improved the Air Quality Index (AQI) to satisfactory level in nearly ninety percent of 103 cities monitored by the Central Pollution Control Board (CPCB) according to its report and data available on the website of the CPCB.

The most astonishing thing happened that Himalayan Range was visible from a distance for the first time in years just due to clean environment.

Neeraj Ladia an astronomer and the head of Space India, an institute for astronomy and space sciences education and tourism revealed to media that “Air and Light pollution are both down and that’s allowed me to spot constellation and planets more easily.”

Clean air and blue skies made the birds happy. They were seen flying high in their flocks and moving   on their own accord.  Many of the unforeseen bugs, bees and other insects were noticed during the lockdown period by the insect spotters like one Rohan Keshwar.

Thousands of lesser Flamingos likely from Gujrat, coloured the Talwa Wetlands near NRI complex in Navi Mumbai were also spotted, the media reported.

Similarly, the wild animals in groups seen strolling over the empty city roads. Media reported that in Odisha and Chandigarh wild animals like Leopards Bears, elephants came out of their natural habitat to have a look of the closed cities. They moved fearlessly without harming anyone but people afraid of them contacted the Forest Officers for nabbing them.

The lockdown period proved a gala time for the wild animals even in Uttar Pradesh also. While the humans were confined inside their houses the wild animals made the streets as their playing fields.

The data of UP112 State Police Integrated Emergency Response Centre  as many as 800 calls related to information about wild animals entering into the residential localities or wild animals lying injured alongside roads and farms were received during the lockdown period.

According to a spokesman of UP-112 KS Singh the centre received calls about tiger, leopards, elephant, deer, Swamp Deer, Jackal, wild boar, Python, snakes, peacocks and blue bulls entering into the human habitats.

The media reported that many cities had unexpected guests on the streets. A Nilgiri was spotted in Sector-18 in NOIDA. It was leisurely walking on the roads.

A Malabar Civet a critically endangered species was found walking on the streets in Kozhikoda in Kerala.

Thus the impacts of the lockdown clearly show the signs of Nature scoring Victory over the man made chaotic environmental conditions.

मेरी कहानी – मेरी ज़बानी – पार्ट 2

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Pankaj Vajpayee
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के संपादक डॉ. एम.फ़ीरोज़ खान व विकास प्रकाशन कानपुर के संयुक्त तत्त्वावधान में थर्ड जेंडर व्याख्यानमाला के अंतर्गत’सात दिवसी वेबिनार आयोजित की गयी।वेबिनार में अनेक थर्ड जेण्डर ने भाग लिया व अपनी आप बीती व्यक्त की ।

इसी शृंखला में आज अजमेर ,राजस्थान से रुद्रांशी भट्टाचार्य पाठकों और शोधार्थियों से रूबरू हुईं। रुद्रांशी ने इस कार्यक्रम में अपने जीवनानुभवों को विस्तार और बेबाक़ी से बताया । वह बार-बार समाज के दोमुँहेपन पर चोट करती रहीं साथ ही जीवन जीने का और पूरे सम्मान के साथ जीने का अधिकार सभी को है , पुरज़ोर तरीक़े से रखा ।

बच्चों को यह नहीं पता होता कि कौन क्या है इसलिए पहली दूसरी कक्षा तक कुछ भी असहज नहीं लगा मगर तीसरी चौथी कक्षा तक आते-आते वे बच्चे ही मुझे चिढ़ाने लगे थे। यहाँ समाज की समझ दाखिल हो जाती है जो कि शरीर को स्त्री या पुरुष के रूप में देखने की आकांक्षी रहती है । बचपन के इसी मोड़ पर मेरे साथ लैंगिक उत्पीड़न की घटना घटी। इस समाज में न तो बच्चे सुरक्षित हैं,न ही स्त्री और न ही थर्ड जेण्डर। यह समाज उन्हें मीठा, छक्का, हिजड़ा जाने क्या-क्या कहकर उनका उपहास उड़ाता है और यही कारण है कि परिवार पर भी एक सामाजिक दबाव बन जाता है जिससे वे ऐसे बच्चों को त्याग देते हैं ।

वर्तमान समाज में संविधान की मान्य अवधारणाओं को देखें तो हम पाते हैं कि शिक्षा और ससम्मान जीने का अधिकार सभी को प्राप्त है फिर आख़िर क्यों यह वर्ग इससे वंचित क्यों है ।दस्तावेजों में मेरा नाम रुद्रांश सिंह राठौड़ है । मैं चाहती हुँ की मेरा नाम और मेरी देह दोनों ही परिवर्तित हो जाएं , परन्तु सर्जरी के लिए और इन प्रयासों के लिए अभी मुझे एक लम्बी लड़ाई लड़नी है । मैं एम ए अंग्रेज़ी साहित्य से पढ़ाई कर रही हूँ और एक प्रोफेसर बनना चाहती हूँ । अपनी लेखनी से उन आँसुओं को भी आवाज़ देती रहती हूँ जिन्हें मैं बचपन से अकेले बहाती आई हूँ ।

समाज के किसी का नाम तय करने का कोई हक़ नहीं है और यदि वे यह कहते हैं कि हिजड़ा वर्ग मनमानी हरकतें करता है , भौंडे प्रदर्शन करता है तो उसका ज़िम्मेदार भी यह समाज ही है । समाज को ज़्यादा कुछ नहीं करना है बस अपनी मानसिकता बदलनी है पर अफ़सोस कि सदियों से वह यह नहीं कर पाया है । मैं, मानोबी बंदोपाध्याय, लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी जी जैसे प्रेरक व्यक्तित्वों को अपना आदर्श मानती हूँ साथ ही हर तरह जूझकर प्रोफेसर बनने का ख़्वाब रखती हूँ। मैं समर्थ बनना चाहती हूँ ताकि इस वर्ग की बेहतरी के लिए प्रयास कर सके ।।

प्रस्तुति – पंकज बाजपेई

हौसले बेहिसाब : वो देख रहे हैं ख्वाब

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Mohini Tiwari
‘जिंदगी कब किस मोड़ पर अपना रुख बदल ले’ कोई नहीं कह सकता। चण्डीगढ़ निवासी हरमन सिद्धू , एक सभ्य-समृद्ध परिवार का होनहार बेटा, 23 की उम्र में उत्साह और उमंग से सराबोर, भविष्य की कल्पनाओं में डूबा, जीवन पथ पर कुछ कर गुजरने को आतुर था। किंतु 24 अक्टूबर 1996 की वह दर्दनाक घटना, जिसने ह्रदय को झकझोर कर रख दिया तथा जीवन की दिशा ही पलट गई।

हरमन अपने दोस्तों के साथ हिमाचल से चंडीगढ़ आ रहे थे। अचानक हाईवे किनारे कार का संतुलन बिगड़ने से कार खाई में जा गिरी। किसीतरह हरमन की जान तो बच गई, पर रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट लगने के कारण शरीर का निचला हिस्सा बेजान हो गया। 25 वर्ष की किशोरावस्था में उनकी जिंदगी व्हीलचेयर के पहियों से बंधकर रह गई। मन निराशा से भर उठा।भविष्य के सारे स्वपन चकनाचूर हो गए। किंतु अस्पताल के अनुभवों ने उन्हें अभिभूत कर दिया। अन्य मरीजों का हाल जानकर उन्हें एहसास हुआ की वे अकेले नहीं हैं यह कष्ट झेलने वाले, हजारों जिंदगियाँ सड़क हादसों का शिकार हो चुकी हैं। क्या इन हादसों को रोका नहीं जा सकता? यह विचार जीवन का ‘टर्निंग पॉइंट’ बन गया।

अस्पताल से छुट्टी मिलते ही हरमन ने ‘अराइव सेफ'(सुरक्षित पहुँचे) नामक संस्था का गठन किया। जिसका उद्देश्य जनसाधारण को यातायात के नियमों से अवगत कराना तथा बदहाल ट्रैफिक व्यवस्था में व्याप्त खामियों को उजागर कर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सुरक्षा के प्रति जागरूक करना था। इसके साथ ही, हरमन ने हाईवे किनारे शराब की बिक्री को बंद कराने की मांग करते हुए जनहित याचिका दायर की। ड्रिंक एंड ड्राइव के विरोध में उन्होंने कई प्रदर्शन और आंदोलन किए। 23 वर्षों के इस कठिन संघर्ष में हरमन को कई बार धमकियाँ और लालच दिए गए, पर उनके कदम पीछे नहीं हटे। हरमन ने अपनी जान की परवाह किए बिना सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई।लंबे अंतराल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी हाईवेज पर खुले शराब के ठेकों को बंद करने का आदेश पारित किया।अंततः निर्णय उनके पक्ष में रहा। अपने दोनों पैर गंवा चुके हरमन आज समाज के लिए मसीहा बनकर सड़क सुरक्षा के प्रति जागरूकता अभियान चला रहे हैं।

  • मोहिनी तिवारी

मेरी कहानी – मेरी ज़बानी

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Pankaj Vajpayee
वाङ्गमय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका के संपादक डॉ. एम.फ़ीरोज़ खान व विकास प्रकाशन कानपुर के संयुक्त तत्त्वावधान में थर्ड जेंडर व्याख्यानमाला के अंतर्गत’सात दिवसी वेबिनार आयोजित की गयी। वेबिनार में अनेक थर्ड जेण्डर ने भाग लिया व अपनी आप बीती व्यक्त की । इसी कड़ी में प्रस्तुत है ट्रांसजेंडर सिमरन सिंह की कहानी उन्ही की ज़बानी।

अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित करने वाली ट्रांसजेंडर सिमरन सिंह ने जन्मदिन 6 जून 2020 के दिन अपने व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयों को वेबिनार द्वारा रूबरू कराया. किन्नरों के विषय में समाज में जो भ्रांतियां हैं उसकी सच्चाई क्या है इसका खुलासा किया ।
मृत्यु के उपरांत किन्नर शरीर को चप्पलों से मारना अथवा अंतिम विधी के लिए ले जाते समय खड़े रख कर ले जाना ऐसा कुछ भी समाज में नहीं होता है. यहां तक की मृत्यु के पश्चात किन्नर की अंतिम इच्छा को ध्यान में रखते हुए क्रिया कर्म किया जाता है. मिर्च मसाला लगाकर स्वार्थी लोग अपनी बातें पुस्तकों की लोकप्रियता अथवा समाचार बच्चों की शोभा बढ़ाने के लिए गलत भ्रांतियां फैला देते हैं .लेखक को सोच समझकर लेखन करना चाहिए क्योंकि लेखन स्थाई हो जाता है ।

लेखन के लिए हमारा ताली बजाना अथवा ताली पीटना आवश्यक नहीं है । आपकी बातों में वजन होना चाहिए. जिसे समाज सुन सके .आपने किन्नरों की दुर्दशा के लिए उस परिवार को जिम्मेदार बताया जिस परिवार में किन्नर बच्चे का जन्म होता है । सर्वप्रथम वह मां जो अपने बच्चे को अपने गर्भ में पालती है , वही मां अपने किन्नर बच्चे से अपनी पहचान को छुपाना चाहती है , जिस तरह से एक सामान्य बच्चे को विरासत में मां पिता की संपत्ति घर, नाम मिलता है किन्नरों को यह उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए । इस तरह का माहौल समाज ने बना दिया है । इसके बाद भी लोग उम्मीद करते हैं कि हम समाज के साथ अच्छा व्यवहार करें ।

मेरे माता-पिता ने मुझे घर से निकाल बाहर कर दिया । तीन बार आत्महत्या करने का प्रयास किया । परिवार के नजदीकी लोगों के द्वारा यौन शोषण की प्रताड़ना को सहा । किसी ने मेरे पक्ष में आवाज नहीं उठाई । दूर से देखने वालों ने सिर्फ बेचारा कहा , अपनाया नहीं । जब क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो समाज हमसे सभ्यता की उम्मीद रखता है । किन्नरों की दुआ का मतलब पैसे देकर दुआ खरीद लेना नहीं होता । आप उनसे सही रिश्ते बनाए । हम दया का पात्र नहीं बनना चाहती और नहीं किन्नर सहानुभूति से जीना चाहते हैं । उनके साथ गलत व्यवहार ना हो और उन्हें बदनाम नहीं किया जाए । हम सामाजिक चुनौतियों का सामना करते हुए सक्षम बनना चाहते हैं । किंतु सर्वप्रथम समाज को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा । हर ट्रांसजेंडर का दैहिक शोषण अपने आप में शर्मनाक बात है. उनके जीवन की पीड़ा को और अधिक गहरा करने वाला कृत्य समाज उनके साथ करता है . उसके पश्चात उम्मीद रखी जाती है इस कृत्य को वह बयान न करें और चुपचाप सहते रहे ।

मैं समाज के साथ चलने वाली सिमरन डेरे में नहीं रहती, अकेले रहती हूँ । किंतु अपने एकाकी जीवन को समाज के साथ जोड़कर सामाजिक कार्यों के प्रति समर्पित हूँ । मैंने वैश्विक संकट के समय एनजीओ के माध्यम से अनाज वितरण का कार्य किया । लेकिन मैं दुखी तब हो जाती हु जब lockdown के समय घर के लोगों ने भी , खैरियत जानने की कोशिश तक नहीं की । समाज के समक्ष नहीं किंतु फोन पर बात करने से क्या घर की मर्यादा कम हो जाती है । परिवार के लोग समाज के डर से हमारा बहिष्कार करते हैं । हमारा ही परिवार जब हमें अलग मान चुका है तो समाज हमें कैसे नजदीक लाएगा । पैसों की जरूरत पड़ने पर पैसा लेने में हमारे परिवार के लोग नहीं कतराते ।

ट्रांसजेंडर को दोहरी जिंदगी जीने के लिए मजबूर ना करें । परिवार के लोग जबरन उनकी शादी तो करवा देते हैं किंतु ऐसे व्यवहार से कई किन्नरों की जिंदगी और अधिक मुश्किलों से घिर जाती है । जो समाज स्वयं बदलने की स्थिति में नहीं है वह दूसरों में बदलाव कैसे लाएगा । बदलाव के क्रम में सबसे पहले व्यक्तिवादी मनोवृत्ति बाधक है अतः परिस्थितियों से भागो नहीं जागो और बदलो । मैं साहित्यकारों लेखकों और पत्रकारों से अपील करती हुँ कि सहानुभूति के साथ किताबों में हमें नहीं उकेरा जाए .लोकप्रियता के लिए किन्नरों का इस्तेमाल न हो. वे अपने किन्नर जीवन से पूर्ण रूप से संतुष्ट हैं।
आशा करती हूँ कि लेखकों व सामाजिक संस्थाओं के सामूहिक प्रयासों से किन्नरों की स्थिति समाज के सम्मुख स्पष्ट हो सकेगी।

  • प्रस्तुति – पंकज बाजपेई

‘Pepe’ robot will teach hand-washing skills to students

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As the corona (Covid-19) virus fear mounts across the world, a robot called Pepe will encourage schoolchildren to wash hands. The robot will make kids adopt better practices by talking about hygiene and sanitation.

Delhi Sikh Gurudwara Management Committee (DSGMC) has procured these robots and they will be placed in 19 DSGMC-run institutions across the national capital.

“Pepe robots would’ve been installed in schools but due to government orders, the schools have been shut. As soon as we get directives from the government to open the schools, we will install the robots quickly,” said Manjinder Sirsa, President DSGMC.

The robot is developed by researchers from Amrita Vishwa Vidyapeetham University in collaboration with the University of Glasgow in Scotland. Each robot will cost around 7500 rupees (100$) and it will be mounted on a wall near hand-washing station in schools.

Pepe will interact with children as they pass by the washbasins and will encourage them to adopt proper hand-washing practices.

According to UNICEF, a review of several studies shows that hand washing in institutions such as primary schools and daycare centers reduce the incidence of diarrhea by an average of 30 per cent. It also suggests that hand washing can be a critical measure in controlling pandemic outbreaks of respiratory infections.

Washing hands more than 10 times a day can cut the spread of the respiratory virus by 55 per cent.

The DSGMC is also planning to launch a mobile app that will monitor the success of this initiative. The app will be used by teachers who will upload photos and videos of children adopting healthy practices on the campus. This will help committee members to monitor the activities and see the progress.

“As corona virus spreads, all health advisories mention that hands should be clean all the time. Our purpose behind installing Pepe is to promote hand washing and better hygiene practices among children,” said Sirsa.

“Pepe robots will help in promoting cleanliness among students and will prevent them from corona virus and other hand-derived infections,” he concluded.

  • Raza Naqvi

लेपर्ड रेस्क्यू: वह खौफनाक मंज़र

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कई दिनों से खौफ का पर्याय बने तेंदुए को पकड़वाने की सूचना प्राप्त होते ही हमारी टीम अविलम्ब रवाना हुई। बार-बार आ रहे फोन स्थिति की आकस्मिकता स्वयं बयां कर रहे थे। वैसे कोई भी तेंदुआ या बाघ खौफ़ का सौदागर बनाया जाता है, वे स्वयं कभी नहीं बनते। अधिकांशतः किसी कारणवश उत्पन्न कुछ विषम परिस्थितियां वन्य जीवों को मानव बस्ती का रुख़ करने को मजबूर कर देती हैं। यूँ तो मेरे द्वारा पूर्व में विभिन्न प्रकार के वन्य-जीव रेस्क्यू किये गये थे। परन्तु न जाने क्यूं इस बार ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह रेस्क्यू आपरेशन कुछ ना कुछ अलग है।
सम्पूर्ण यात्रा के दौरान मैं और हमारी टीम के अनुभवी सदस्य उक्त तेंदुए की समाचार चैनलों में प्रसारित विडियो-रिकार्डिंग का बारीकी से अध्ययन करते रहे। परन्तु अधिक रात होने से रेस्क्यू आपरेशन सम्भव नहीं था। अतः रात्रि में टीम को रास्ते में ही एक होटल में रूकवा दिया गया। रात में ही तेंदुए के छिपने के बताये स्थान के विवरण व वीडियो आदि के अनुसार हम तीनों लोग आगे की रूपरेखा बनाने लगे। तभी रात्रि में फोन पर मेरी जीवन संगिनी ने विशेष रूप से अपना ध्यान रखने की सलाह दी। पूर्व में किये गये सभी रेस्क्यू आपरेशन में आवास से रवाना होने के समय उनके द्वारा ‘‘बेस्ट विशेज” अवश्य दी जाती रही हैं। लेकिन इस बार फोन पर पुनः “अपना ख्याल रखना” बोलना अपने आप में कुछ न कुछ भविष्य में घटने वाली घटना का संकेत दे गया था। परन्तु साथ में शुभकामनाएं मनोबल व आत्मविश्वास को बढ़ा रही थीं।
प्रातः गंतव्य पहुंच कर हमें अविलम्ब शहर के एक पुराने वेयर हाउस ले जाया गया। तेंदुए के छिपने के स्थान को पूरी तरह से कई जालों की मदद से कवर कर दिया गया था। परन्तु यह स्थान बहुत लम्बा बरामदा था, जिसमें कई कमरे थे तथा इनमें से अधिकांश के दरवाजे बंद थे। पूरा बरामदा पुराने मेज, कुर्सी, कूलर, लोहे, फ्रीज व ड्रम आदि का डम्प-यार्ड था। इतने कबाड़ में तेंदुए जैसे बड़े विडालवंशी को भी खोजना सम्भव नहीं हो पा रहा था। बार-बार के प्रयासों, पटाखों की आवाज करने आदि से भी उसे ढूंढ़ पाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में एक मात्र उपाय उस वेयर हाउस में अन्दर घुसना था। जिसके लिए एक ट्री गार्ड को उखाड़ कर विशेष रूप से पूर्णतः मोटी जाली से एक कवचनुमा खोल बनाया गया। इस खोल को पहन कर मेरे एक सहयोगी ने खतरा मोल लेते हुए वेयर हाउस में प्रवेश किया। लेकिन फिर भी तेंदुए का नामोनिशान न मिला। एक बार को तो सभी को लगा कि तेंदुआ कहीं न कहीं से भाग गया है।
इस बीच टीम के अन्य सदस्य द्वारा साहस का परिचय देते हुए एक लोहे की रॉड के माध्यम से सामानों को खींच-खींच कर हटाया जाने लगा और तभी एक भयानक गर्जना ने सभी को जड़वत कर दिया। हमारा ‘‘आपरेशन लेपर्ड’’ प्रारम्भ हो गया था। अदम्य साहस का परिचय देने वाले सहयोगी को अविलम्ब बरामदे से बाहर निकाल कर ट्रांक्विलाईजेशन का कार्य प्रारम्भ किया गया।
परन्तु तेंदुआ बार-बार अपनी लोकेशन बदलने लगा तथा एक बार पुनः ओझल हो गया। ऐसे में तेंदुए को देखने हेतु जमीन पर लेट कर टार्च व सर्च लाइट की रोशनी डाली गई व काफी मशक्क़त के बाद एक कुर्सी के पीछे तेंदुए के मात्र एक रोज़ेट (तेंदुए की खाल पर बने काले धब्बे) की झलक मिली। इतने अधिक कबाड़ के पीछे तेंदुए के एक रोज़ेट पर निशाना लगाना मुश्किल हो रहा था। क्योंकि हमें तेंदुए के शरीर का एक छोटा सा भाग ही दिख रहा था। अतः हेलमेट पहन कर (यदि किसी कारणवश तेंदुआ वार करता है तो उससे सिर बचाने के लिए) व जमीन पर लेट कर मेरे द्वारा पहली डार्ट (ट्रांक्विलिज़ेशन की दवा भरा विशेष इंजेक्शन) फायर की गई जो एकदम सटीक निशाने पर लगी। लेकिन उपस्थित कुछ अति उत्साही व्यक्तियों द्वारा दिखाए गए उत्साह के कारण तेंदुआ लगातार कबाड़ में ही इधर-उधर भागता रहा। जिस कारण दवा का असर कम हुआ और एक बार फिर तेंदुआ नजरों से ओझल हो गया।
कुछ समय पश्चात वह एक ड्रम के पीछे छुपा दिखा और एक बार फिर मेरे द्वारा उसे ट्रांक्विलाईज करने हेतु प्रयास किया गया। लेकिन तेंदुआ इस प्रकार छिपा था कि उसका फिर केवल रोज़ेट दिख रहा था। मुझे निशाना लेने हेतु जाल के काफी नजदीक जाना पड़ा। लेकिन वहाँ हो रही अफरा-तफरी में अचानक ही तेंदुआ निकलकर मुझ पर झपट पड़ा। हालांकि उसने मेरे पेट व सीने पर वार कर मेरे कपड़े भी फाड़ दिये। लेकिन दाहिने हाथ में गन होने के कारण मेरे द्वारा अपने को बचाने हेतु उसे बांये हाथ से धक्का दिया गया। इसी दौरान उसके पंजों के वार से मेरा बांया हाथ गम्भीर रूप से घायल हो गया। खून की फूटती धार से सभी लोग सकते में आ गये। एक उपस्थित प्रत्यक्षदर्शी ने रूमाल बांधकर बहते खून को रोकने का प्रयास किया।
इस बीच तेंदुआ पुनः छुप गया। एक बार दुबारा मेरे द्वारा उसे ट्रांक्विलाईज करने हेतु निशाना लिया गया, जो कि सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य पर लगा। दूसरे डार्ट के कुछ देर पश्चात तेंदुआ बेहोश हो गया। उसे सुरक्षित पिंजरे में स्थानांतरित करने पर मैंने देखा कि उसके पांव घायल हैं। और उसके कई नाखून किसी कारण से कटे हुए हैं व रक्तस्राव हो रहा है, जिस कारण शिकार करने में असमर्थ होने से उसने आसान शिकार की तलाश में शहर का रुख़ कर लिया होगा। उसे अब उपचार हेतु प्राणी उद्यान लाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था।
आज भी हवा में उछलते कबाड़ के बीच से झपटते तेंदुए को याद कर सिहरन दौड़ जाती है। तेंदुए के वार से मेरे कपड़े फट जाने के बावजूद भी मेरे सीने में मात्र हल्की सी खरोंच भर आ पाना आश्चर्य जनक था। मैं आज भी नहीं समझ पा रहा कि वह कौन सी अदृश्य शक्ति थी, जिसने उस दिन इतने के बाद भी मुझे गम्भीर रूप से घायल होने से बचा लिया। मेरे हाथ में आठ टांके लगे थे। लेकिन इसमें तेंदुए का कोई दोष नहीं था। कहीं न कहीं इंसानी हरकतों से ही वन्य जीवों को अपना घर छोड़ना पड़ रहा है।
आज उस घटना के वर्षों बाद भी बांये हाथ पर उस दिन बना वह लम्बा सा घाव का निशान मुझे विकास की इस दौड़ में वन्यजीवों के उजड़ते आशियाने की भी याद दिलाता है। वह विकास जिसने उन्हें अपने ही घर से बेदखल कर दिया है। क्या अपने स्वार्थ के लिए इन निर्दोष बेज़ुबानों के घर को उजाड़कर ऊंची अट्टालिकाएं और उद्योग धंधे खड़े कर देना ही विकास है?
फिलहाल, एक खौफनाक लेकिन यादगार, शानदार व ज़िन्दगी भर न भूलने वाला अनुभव अपनी यादों में लेकर हम अपने एक और नए साथी के साथ वापस लौट रहे थे।
-डॉ आर के सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ

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