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एक अंधा तेंदुआ शावक

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डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्य जीव विशेषज्ञ, साहित्यकार एवम कवि

माँ मुझे बचा लो, मां तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, तुम कहाँ हो मां, मुझे कुछ भी दिखाई क्यों नहीं पड़ रहा, मेरे छोटे भाई-बहन की आवाज़ क्यों नहीं आ रही, मुझे ये लोग मार डालेंगे मां।“ शायद यही शब्द निकलते नन्हे शेरू के मुख से, यदि उस बेज़ुबान तेंदुए शावक के पास बोलने की क्षमता होती। ठीक पांच वर्ष पहले मई 2019 में जब एक छोटे से लगभग पांच से छः माह के तेंदुए शावक को पिंजरे से निकाला जा रहा था तो जैसे उसे कुछ सूझ ही नहीं रह था। एक पिंजरे से दूसरे पिंजरे में जाते समय वह पिंजरे की सलाखों से टकरा रहा था। उसकी गर्दन झुकी हुई थी और उसका सिर लगातार हिल रहा था। उसकी आंखों के सामने हाथ हिलाने पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। जी हाँ, आपका सोचना सही है। निर्दोष शावक अंधा हो चुका था, उसे खतरनाक स्तर तक अंदरूनी चोटें आई थीं। यहां तक कि उसके सिर की गतिविधियां तक उसके स्वयं के नियंत्रण में नहीं थीं। वह दर्द से कराह रहा था। उस दिन मैंने देखा कि किस प्रकार बेरहम इंसानों ने एक निर्दोष की इतनी बुरी हालत कर दी है । सचमुच उसकी आँखों में रोशनी नहीं आँसू थे।

किसी तरह मासूम शावक को पिंजरे में रखकर अस्पताल लाया गया। उसकी तेजी से चल रही सांसे और बढ़ी हुई धड़कनें इशारा कर रही थीं कि वह किस कदर डरा हुआ है। पिंजरे के अंदर उसे इलाज़ के लिए कसना (मांसाहारी वन्यजीवों को उपचार हेतु स्क़वीज़र पिंजरे में कस दिए जाने से वह हिल नहीं पाता व आसानी से उपचार किया जा सकता है) सम्भव नहीं था क्योंकि अंदरूनी चोटों से वह भयानक पीढ़ा महसूस कर रहा था। शावक इतना छोटा भी नहीं था कि उसे पिंजरे से बाहर निकाल कर इलाज़ किया जा सके।

शावक का दर्द बढ़ता जा रहा था। मैं जानता था यदि उसे उपचार न मिला तो भयंकर पीढ़ा उसकी जान ले लेगी। तभी हमें लगा कि शावक आँखों की रोशनी तो खो ही चुका है। ऐसे में यदि उसके पिछले पैरों को पकड़ के तुरंत तेजी से इंजेक्शन लगा दिये जाएं तो उसके आत्म रक्षक वार से बचा जा सकता है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि इस उम्र के तेंदुए शावक के नाखून व दांत काफी विकसित हो चुके होते हैं और उनके एक वार से खून की धारा बह सकती है। मैंने अविलम्ब सावधानी से उसके पिछले पांव को खींच कर दर्दनिवारक दवा उसकी मांसपेशियों में पहुंचा दी।

शावक को सम्भवतः लाठी डंडे से पीटा गया था। ऐसे में आवश्यक था कि शावक को एकांत में रखकर मनुष्य की आवाज़ से दूर रखा जाए जिससे कि उसके अंदर से मनुष्य के प्रति नफरत व डर दोनों कम हों। शावक को पिंजरे में एकांत में रखकर एक पर्दे से ढक दिया गया। उसके डिहाइड्रेशन का स्तर काफी अधिक हो चुका था। वह कुछ भी खा-पी सकने में असमर्थ था। किसी तरह मैंने व अन्य चिकित्सकों ने उसकी पूंछ से उसे एक बोतल डेक्सट्रोज चढ़ाया।

अगले दिन भी शावक निढाल पड़ा था। शावक ने खाना तो दूर, पानी भी नहीं पिया। तमाम प्रयासों के बावजूद शावक की हालत बिगड़ने लगी। उसके सिर का हिलना और बढ़ गया। वह बार-बार गिर पड़ रहा था। यदि उसने मुंह से खाना नहीं खाया तो मुश्किलें और बढ़ सकती थीं। ऐसे में जब-जब शावक मुंह खोलता तो एक सीरिंज में चिकेन का शोरबा भरकर उसके मुंह में पिचकारी के रूप में पहुंचाया जाने लगा। यह कार्य अत्यंत थकाने वाला था। लेकिन शावक की हालत देखकर हम सब पुनः-पुनः प्रयास करते रहे। कभी-कभी मुझे स्वयं लगा कि यह सब मेहनत व्यर्थ होने वाली है। लेकिन मासूम शावक की बेजान आंखें जैसे कुछ कह रही होती थीं। कई दिनों तक यही सिलसिला बदस्तूर चलता रहा। इससे इतना ज़रूर हुआ कि शावक की हालत स्थिर होने लगी।

लेकिन सिर्फ दवाओं व शोरबे के सहारे किसी मरीज को लम्बे समय तक ज़िंदा रख पाना सम्भव नहीं था। हमें कुछ न कुछ करना था कि वह मांस के टुकड़े खाये। परन्तु शावक के मुंह खोलते ही उसके मुंह में मांस के टुकड़े फेंकने पर भी वह उसके मुंह से गिर जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वह खाना तो चाहता है परंतु उसका अपने मुंह की मांसपेशियों पर नियंत्रण न होने से टुकड़े खुद-ब-खुद गिर पड़ते हैं। तय हुआ कि इससे भी छोटे मांस के टुकड़ों को उसके अंधेपन का फायदा उठा कर पास से मुंह में इस प्रकार फेंका जाए कि वह उसके गले तक सीधा पहुंचे। यह कार्य जोखिम भरा था क्योंकि शावक इतना छोटा भी नहीं था कि उसके दांतों से चोट न पहुंचे। कई प्रयासों के बाद कुछ टुकड़े उसके गले तक पहुंचे व उन्हें वह निगलने भी लगा। अब उसे सीरिंज से पानी व शोरबा पिलाना और जब वह मुंह खोले तो गले तक किसी तरह मांस के टुकड़े फेंक कर पहुंचाना, प्रतिदिन का कार्य हो गया।

शावक अब समझने लगा था कि यह सब उसे बचाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। अब वह स्वयं हम सबकी आवाज़ से मुंह खोलने का प्रयास करने लगा था। परन्तु अकसर उसके मुंह से मांस के टुकड़े गिर पड़ते थे। जिन्हें वह अंधा शावक जब ढूंढने का प्रयास करता था, तो सबकी आंखें नम हो जाती थीं। इसलिए यह प्रक्रिया दिन में कई घण्टे करनी पड़ती थी। उसके इस नाज़ुक हालत में भी रोग से लड़ने के जज़्बे को देखते हुए सब उसे शेरू बुलाने लगे। कुछ ही दिनों में वह अपने नाम पर प्रतिक्रिया भी देने लगा। एक दिन अनजाने में मेरा हाथ उसके मुंह के पास रह गया तो वह उसे चाटने लगा। यही प्रक्रिया उसने अपने कीपर के साथ की और उससे पिंजरे के बाहर पंजे निकाल कर घावों पर अब मरहम भी लगवाने लगा था।

शेरू ठीक तो हो रहा था। लेकिन एक अंधा तेंदुआ पूरा जीवन कैसे जिएगा यह यक्ष प्रश्न मुझे बार-बार परेशानी में डाल देता था। उसकी आँखों में तमाम दवाइयों को डालने से भी कोई खास फर्क नज़र नहीं आ रहा था। हाँ, इतना अवश्य था कि वह आवाज़ की दिशा में देखने का प्रयास करता था। अंधेरे में टार्च की रोशनी की ओर वह आंखें घुमाने लगा था। तभी मेरे एक विचार आया कि शावक की आँखों की ज्योति जाने का कारण आंखों की नसों का क्षतिग्रस्त होना हो सकता है। केवल दवाओं से रोशनी वापस आना सम्भव न था। अतः तय हुआ कि शेरू की आंखों के सामने पिंजरे के बाहर से चुटकी बजाते हुए इधर उधर घूमा जाये। ताकि आवाज़ की दिशा में देखने के प्रयास में उसके आंखों की कसरत हो सके। यह प्रक्रिया काम करने लगी। धीरे-धीरे शेरू के आंखों की रोशनी लौटने लगी। इसका यह भी फायदा हुआ कि वह किसी तरह अपना खाना पानी भी स्वयं लेने लगा।

अब शेरू की 80 प्रतिशत से अधिक ज्योति वापस आ चुकी है। शेरू को समय ने एकदम शांत और एकांतवासी बना दिया है। सभी तेंदुओं के स्वभाव के विपरीत वह किसी को देखकर कभी भी गुर्राता नहीं। शेरू ने स्वयं को ठीक करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसने कभी हमें अनावश्यक परेशान नहीं किया। यहां तक कि वह इंजेक्शन भी बड़ी आसानी से लगवा लेता था। अब वह केवल उन्हीं लोगों के बुलाने पर आता है, जो उसके इलाज के समय उसके पास रहे। लेकिन किसी अनजान को देखते ही छिप जाना, स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है कि वह कुछ अनजान क्रूर हाथों की उन हरकतों को अभी भी भूला नहीं सका है।

आज शेरू व्यस्क हो गया है। लेकिन उसके और मेरे बीच का यह अटूट बन्धन और मेरे प्रति शेरू का स्नेह तथा उसकी आँखों में भरी कृतज्ञता को शब्दों में व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं है।
वह शेरू जिसे आज जंगल की पगडंडियों को नापना था। वह शेरू जिसे अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करना था। वह शेरू जो एक ही वार में अपने से दोगुने शिकार को धराशायी कर सकता था। वह शेरू जिसे आज उन्मुक्त विचरण करना था। वह आज उम्रभर सलाखों के पीछे किसी अन्य के दिये मांस के टुकड़ों पर निर्भर है। यह वह न्याय है जहां न चाहते हुए भी सजा बेगुनाह को मिलती है और मुलजिम आज़ाद घूमते हैं।

महाराणा प्रताप

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-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, स्तम्भकार एवम कवि

पंद्रह सौ छिहत्त्तर का वो संग्राम निराला था।
भारत माँ के सपूत को आक्रांताओं ने ललकारा था।
चेतक पर सवार था महाराणा, हाथ में उसके भाला था।
नाहर सी गर्जन थी उसकी, आंख में जैसे शोला था।१।

बरछी, भाला और कटार से वो बचपन से खेला था।
उदय और जयवंता का कीका, कुम्भलगढ़ का बड़ा दुलारा था।
पल भर में घोड़े पर चढ़कर, ओझल हो जाना उसको आता था।
गऊ-माता के लिए प्रताप, सिंह से भी लड़ जाता था।२।

सैंतीस सेर का केसरिया बाना, उसपर बड़ा सुहाता था।
चमक उठती थी बिजली, जब वो चेतक संग दौड़ लगाता था।
बिछती थीं लाशें रण में, जब वो तलवार चलाता था।
भाले से सौ गज दूर, गज को भी वो मार गिराता था।३।

दस-दस पर, वो अकेला ही भारी पड़ जाता था।
बत्तीस वर्ष की आयु में, वो महाराणा कहलाया था।
मैं मेवाड़ नहीं दूंगा, ये आक्रांताओं को धमकाया था।
जंगल-जंगल भटका था वो, पर न शीश झुकाया था।४।

जय-भवानी का नारा, रण में उसने लगाया था।
भीलों की सेना लेकर, उसने आक्रांताओं को खूब छकाया था।
लगा कर चेतक की एड़, वो हाथी पर चढ़ आया था।
भय से मानसिंह ने उसदिन, खुदको हौदे में छुपाया था।५।

घायल प्रताप को लहूलुहान चेतक ने पार लगाया था।
अपने प्राण देकर भी, चेतक ने प्रताप को सम्मान दिलाया था।
हल्दीघाटी में उस दिन, प्रताप ने आक्रांताओं को पाठ पढ़ाया था।
फिर कभी मेवाड़ पर, आक्रांताओं ने रौब नहीं दिखलाया था।६।

छापामार युद्ध कर प्रताप ने, कई किलों को अधीन बनाया था।
राजपुताना को गौरव, महाराणा ने फिर से दिलवाया था।
हल्दीघाटी का युद्ध, अब भी हमको याद दिलाता है।
मातृभूमि के लिए कैसे रण में, रक्त बहाया जाता है।७।

अमर हो गया प्रताप, खाकर सौगन्ध राजपूताने की।
दे गया सन्देश हमें वो, मातृभूमि के लिए मर जाने की।
भारत-भूमि के उस लाल को, आज हम शीश नवाते हैं।
रखेंगे अखण्ड भारत को, ये सौगन्ध हम खाते हैं।८।

-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, स्तम्भकार एवम कवि

कॉलेज लाइफ के वो यादगार दिन

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डॉ राकेश कुमार सिंह,वन्यजीव विशेषज्ञ
“नाइंटी” (नब्बे डिग्री झुककर नमस्कार करना) हॉस्टल में पहला कदम रखते ही एक कड़कती आवाज़ ने मेरा स्वागत किया। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता कई शानदार उपमाओं से मुझे नवाज़ दिया गया। मुझे समझ ही नहीं आया, या पंतनगर की भाषा में कहें तो “मैं कंफ्यूजिया गया” कि ऐसे खूबसूरत शब्दों से किसे और क्यूँ बुलाया जा रहा है। तभी पीछे से आवाज़ आई “….. तुझे ही बुला रहे हैं”। ऐसा अनुभव तो ज़िन्दगी में कभी हुआ ही नहीं था। मैंने पूछा “भाई साब क्या बात है क्यूँ……दे रहे हो”। बस इसके बाद तो मेरे ऊपर उपमाओं की बौछार होने लगी। “…. सीनियर हैं तेरे, सर नमस्कार बोल”। अजीब बात थी ऐसा पहली बार देखा कि कोई अजनबी खुद को नमस्ते करवा रहा था वो भी जबर्दस्ती। तभी मुझे समझ आ गया कि यह सब वही है जिसका सामना कॉलेज में नया दाखिला लेने पर हर विद्यार्थी को करना पड़ता है और जिसके बारे में अब तक फिल्मों मे देखा या अख़बारों मे ही पढ़ा था। अब मेरे होश फाख्ता होने लगे। मरता क्या ना करता पूछ बैठा “सर ‘नाइंटी’ क्या होता है”।

मुझे आज भी गर्व होता है कि सबसे कड़क सीनियर ने तुरंत मुझे ही “नाइंटी” मार के दिखाई। यह देख कर मुझे हंसी आना स्वाभाविक था। और वही हुआ जो पन्तनगर की भाषा में मुस्की मारने यानी दबी हंसी पर होता है। अब तो मुस्कुराने पर ही एक नई कविता रटाई जाने लगी। कितने सुंदर शब्द थे, “मुस्की मारी……”। फिलहाल बड़ी मुश्किल से पीछा छूटा।
हॉस्टल की रियर विङ्ग मे पहुँचते ही नई उपमाओं ने एक बार फिर मेरे कर्ण को भेदा। अब एक नये प्रकार के अभिवादन “एट्टी” (जमीन पर लेटकर दंडवत प्रणाम) हेतु शब्द बाणों ने स्वागत किया। क्या-क्या एक ही दिन में सिखाया जा रहा था। जो भी सीनियर मिलता वही तरह-तरह का ज्ञान, उपमाएं, कवितायें, गाने सिखाये जा रहा था।

अब तक यह समझ आ गया था कि अगले एक या दो माह थर्ड बटन (सिर झुकाकर कमीज की तीसरी बटन देखते हुए) ही चलना है। सामने से भले ही हॉस्टल का कुकुर भी आ जाए बस “नाइंटी” मारो आगे बढ़ो और कुछ बोलो नहीं क्योंकि सीनियर लोग बता ही चुके थे कि “पंतनगर वह बस्ती है…..”। एक चीज बहुत मजेदार नोट करी थी कि उस दौरान कैफे वाले भी मजे लेने के लिए अक्सर हॉस्टल की गैलरी में घूमा करते थे और जाने अनजाने हम लोग उन्हें भी “नाइंटी” मार दिया करते थे। ये हाल केवल नए घोड़ों (वेटरनरी कॉलेज) का ही नहीं था, हथौड़ों (टेक्नोलॉजी कॉलेज), मछलियों (फिशरीज कॉलेज) और नए खुरपों (एग्रीकल्चर कॉलेज) को भी यही सब सुंदर आनंद दायक ज्ञान दिया जा रहा था। यहां तक कि पंतनगर का पिन कोड “263145”, जिसमें एक से लेकर छः तक के सभी नंबर थे, रटाए जा रहे थे।
जो भी हो उन शुरूआती दिनों का मज़ा ही अलग था। धीरे-धीरे यह सब सामान्य व आनंद दायक लगने लगा। हाँ, “एट्टी” मारने पर कपड़े गंदा हो जाना स्वाभाविक था तो सीनियर पांच रुपए कपड़े धुलवाने का ज़रूर देते थे। फिर तो जितने सीनियर दिखे भले ही वो “नाइंटी” कि अपेक्षा करें हम “एट्टी” से अभिवादन करते थे। जिससे शाम तक 50 से 60 रूपये आसानी से इकट्ठे हो जाते थे।


उस दिन वर्ष 2018 में 23 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद जब एक बार पुनः वाइल्ड लाइफ पर एक गेस्ट लेक्चर देने हेतु मुझे मेरे अल्मा मेटर बुलाया गया तो मैं तुरंत सहर्ष तैयार हो गया था। और पंत नगर स्टेशन पर उतरते ही यादों की खूबसूरत दुनिया में खो गया। लगा कि अभी हॉस्टल पहुंच कर कॉलेज क्लास जाना है। पहले पंतनगर छोटी लाइन का छोटा सा लेकिन बहुत आकर्षक व प्रकृति से भरपूर स्टेशन हुआ करता था। जिसे देखकर मुझे मालगुडी डेज के मालगुडी स्टेशन की कल्पना होती थी। लेकिन अब यह एक बड़ी लाइन का बड़ा स्टेशन हो चुका है और इसके दोनों तरफ घनी बस्ती बस गई हैं। नगला की कई दुकानें अभी भी वैसी ही थीं। उस दौरान अधिकतर छात्र छात्राएं आगरा फोर्ट एक्सप्रेस या नैनीताल एक्सप्रेस, जिसे ‘एनटी’ नाम से जाना जाता था, से ही आते-जाते थे। हल्दी स्टेशन 1995 में शुरू हुआ था।

मैंने पहले ही मुझे स्टेशन से लेने के लिए कोई भी गाड़ी न भेजने का अनुरोध कर दिया था। पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए मैंने एक रिक्शा किया और उस रिक्शे से धीरे-धीरे अंदर जाने लगा। कुछ मीठी यादें, कुछ सुनहरे पल और वो पुराने दोस्त अचानक मस्तिष्क पटल पर उभर आए जब मैंने अपने अल्मा मेटर के उस विशाल परिसर में प्रवेश किया। मेरे अंदर कदम रखते ही फिशरीज कॉलेज के सामने लेटर बॉक्स अभी भी उसी जगह खड़ा था मानो पुरानी यादें लिए हुए मेरा इंतजार कर रहा हो। इन सड़कों पर दोस्तों के साथ बिताए पलों की कीमत सही मायने में उस दिन महसूस हुई थी। मीनाक्षी भवन के सामने खेतों को देखकर याद आया कि फर्स्ट ईयर में फौडर प्रोडक्शन के लिए हम लोगों ने स्वयं यहां बरसीम की खेती की थी। पंतनगर की हरियाली अभी भी उसी तरह हमारी यादों को संजोए खड़ी थी। रिक्शा वाला रिक्शे को सीधे लाइब्रेरी की तरफ ले जाने लगा तो मैंने उसे कब्रिस्तान तरफ वाले रास्ते से आगे बढ़ने के लिए कहा। क्योंकि जब हम लोग घर से लौटते थे तो अक्सर इसी रास्ते से रिक्शा जाया करता था। इस कब्रिस्तान पर भी रात के सन्नाटे में कई बार कोल्ड ड्रिंक्स की शर्त लगने पर हम लोग आए थे।

उस दिन हवा के सुहावने झोंके के साथ मैं पंत नगर में बिताए यादगार पलों में इतना खो गया था कि पता ही नहीं चला कि कब पैदल गेस्ट हाउस पहुंच गया। इससे पहले मैंने छोटी मार्केट के पास रिक्शे वाले से कहा था कि “मैं यहां से पैदल चलकर गेस्ट हाउस जाना चाहता हूं क्योंकि मैं आज अपने कॉलेज लाइफ के उन सुनहरे पलों को पूरी तरह से जीना चाहता हूं जो किसकी भी जिंदगी के सबसे खूबसूरत पल होते हैं”। इतने वर्ष बीतने के बाद भी ऐसा लग रहा है जैसे कल ही की तो बात थी।

छोटी मार्केट के आगे पहुंचने पर लाल रंग के वह हॉस्टल अभी भी जैसे हमारी यादों को समेटे हमारा इंतजार कर रहे थे। पर कुछ छात्रावासों का रंग बदल भी दिया गया था। मन कर रहा था कि सिर्फ मैं ही नहीं, उस समय के सारे छात्र छात्राएं जो इस यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे, एक बार सब आ जाएं। और एक दिन कम से कम वैसा ही जी लें, जो हमने नब्बे के दशक के पूर्वार्ध में जिया था।


बात 1990 की है जब मेरा सलेक्शन पंतनगर वेटेरिनरी कॉलेज में हुआ था। पर पंतनगर में उस समय चल रही साइने डाई (अनिश्चित कालीन बंद) के कारण हमारी क्लासेज 4 फरवरी 1991 से ही प्रारम्भ हो सकीं। सेशन लेट शुरू होने से सेशन को बहुत ही अधिक कंडेंस यानी मात्र तीन माह का कर दिया गया था। सुबह 9 बजे से शाम 5.30 तक पशु चिकित्सा विज्ञान महाविद्यालय में ही गुजरने लगा। शुरुआत में शाम को नेहरू भवन भूत बंगला लगने लगता था क्योंकि सभी नए विद्यार्थी सीनियर्स द्वारा जबर्दस्ती बांटे जा रहे तथाकथित प्रेम भरे ज्ञान से बचने के लिए लाइब्रेरी, गेस्ट हाउस, नगला या CRC (crop research centre) या LRC (livestock research centre) की शरण ले लेते थे।

इंटरनेशनल गेस्ट हाउस में शाम को छिपकर बैठने पर यदि कोई सीनियर दिख गया तो नजरें झुका कर अखबार पढ़ना या फिर नजरें चुराकर टॉयलेट में चले जाना एक नियमित प्रक्रिया सी बनती जा रही थी। और हां वहां मैंने नोट किया कि वहां मैं अकेला ही ऐसा नहीं था। वहां पर बहुत सारे चेहरे प्रतिदिन दिखाई पड़ने लगे मैं समझ गया कि यह सब भी मेरे जैसे ही भाई बंधु हैं।

रात को खाने के समय ही कुछ नवागन्तुक छात्र हॉस्टल की कैफेटेरिया में प्रकट होते थे। वो भी सभी की कोशिश रहती थी कि किसी तरह 9:30 बजे के बाद पहुंचा जाए जब कैफेटेरिया बंद होने का समय होता है, और चुपचाप खाना खाकर अपने कमरे में भागा जाए। आलम यह था कि अगर दरवाजे पर हवा का झोंका भी आ जाए तो बस ऐसा लगता था कि अब पूरी रात थर्ड बटन कटने वाली है। सेकंड ईयर के छात्र फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे और “क्लीन शेव बैच” के नए छात्र ग्राउंड फ्लोर पर। ऐसे में सीढी से किसीके भी उतरने की पद चाप दिल में सिहरन पैदा कर देती थी। लगता था कि अब कोई न कोई आकर ज्ञान बांटेगा। कभी-कभी तो पूरी रात ट्रेन का ड्राइवर बनकर हरिद्वार से देहरादून के बीच ट्रेन चलानी पड़ती थी। पूरी रात हररईवाला भररईवाला डोईवाला रायपुर होते हुए देहरादून तक ट्रेन चलाओ। और एक दिन तो पूरा बैच ही बिना रेलवे लाईन के पोल्ट्री फार्म की मुर्गियों के बीच ट्रेन चला रहा था। ये बात अलग है कि आज तक मुझे रेलवे टाइम टेबल में “नगला एक्सप्रेस” कहीं नहीं मिली ना ही इंडियन रेलवे ने उस ट्रेन को कभी चलाया है। लेकिन वह ट्रेन चली बहुत तेज थी।

हॉस्टल की नई जिंदगी कुछ गुदगुदाती, कुछ मुस्कुराती और सीनियरों से छुपती छुपाती आगे बढ़ रही थी। हां, वहीं जाकर पता चला कि “एडी, सीडी” भी कुछ होता है। इसी दौरान कुछ सीनियर्स मुझे सुभाष भवन (एग्रीकल्चर कॉलेज का हॉस्टल) ले गए और वहां जबरदस्त तथाकथित प्रेम भरा इंट्रोडक्शन लिया गया। अब नए छात्र सोच रहे होंगे कि सुभाष भवन तो गर्ल्स हॉस्टल है, तो मुझे वहां कौन पकड़ ले गया। उस समय केवल सरोजिनी और कस्तूरबा भवन ही गर्ल्स हॉस्टल होते थे तथा गांधी भवन और सुभाष भवन में BSc Ag के ब्वॉयज छात्र रहते थे।

गांधी हॉल ऑडिटोरियम में फ्रेशर फंक्शन में गूंजता विश्व विद्यालय गान “जय हो नव युग निधि की जय हो….” आज भी पूरी तरह कंठस्थ है। हां, फ्रेशर फंक्शन के बाद से वह गेस्ट हाउस में जाना और रात को सीनियर से बचने की कोशिश करना सब बंद हो गया। मगर ऐसा लगने लगा कि उसका भी एक अलग ही मजा था। नए तरीके के विषय, लैब और एक से एक विद्वान प्रोफेसर, इन सबमें जिंदगी घुलने मिलने सी लगी थी। एक चीज तो है यूनिवर्सिटी के अधिकतर शिक्षक गजब की नॉलेज रखते थे और छात्रों को सीखाने में जी तोड़ मेहनत करते थे। पहली क्लास बायोकेमिस्ट्री की थी। जिसकी याद आज भी मन को उन खूबसूरत दिनों में खींच ले जाती है। एक और मजेदार बात थी पंतनगर में एग्जाम तो कभी हुआ ही नहीं “आवरली” (एक घंटे के एग्जाम को पंतनगर में hourly कहते थे) ही हुईं। फर्स्ट सेमेस्टर में सभी छात्र लाइब्रेरी से पुस्तकें लेने की जल्दीबाजी में लग गए। लेकिन फाइनल एग्जाम तक समझ आ गया कि बस नोट्स ही पर्याप्त हैं। एक विषय में तो मात्र डेढ़ पेज के लिखे हुए को पढ़कर आवर्ली देना नया अनुभव था।

कुछ नए छात्रों में जबरदस्त होम सिकनेस थी। और कुछ तो ऐसे घुटे हुए थे कि ऐसा लग रहा था जैसे कि हॉस्टल में आकर ज्यादा स्वतंत्र और ज्यादा आबाद हो गए हैं। उस साल होली 1 मार्च को थी और 26 फरवरी को ही ज्यादातर छात्र अपने घरों को रवाना हो रहे थे। हां, उस दिन हॉस्टल में एक गाना बहुत बज रहा था, जो आज भी मेरे कानों में घूमता रहता है, “रंग लेके दीवाने आ गए…..होली के बहाने या गए….”। और उस पर नाचते झूमते हॉस्टल की पहली होली सबने खेली थी। हॉस्टल से पहली बार घर जाना सभी के लिए एक न भूलने वाला अनुभव होता है। लेकिन हमारे बैच में एक महान आत्मा थी जो त्यौहारों पर भी अकेले ही हॉस्टल में रहना पसंद करता था। एक बार तो उसके कमरे की हम सबने ज़बरदस्ती सफाई करवाई तो पूरे तख्त के नीचे कई किलो मूंगफली के छिलके फेंके हुए थे। एक बात थी, वह गजब की मेमोरी रखता था और अपने कमरे में हाथ पर बोर्नविटा रखकर चाटता था। मगर था बड़ा नेकदिल और सहज स्वभाव वाला।


हालांकि यूनिवर्सिटी के गांधी हॉल में हर शनिवार और रविवार को छात्रों द्वारा चयनित फिल्में दिखाई जाती थीं। लेकिन कभी कभी ट्रेन से WT हल्द्वानी या बरेली जाकर फिल्म देखना आज भी बेहद यादगार लगता है। हॉस्टल में उस समय बजने वाले गाने आज भी मुझे तुरंत कॉलेज की यादों में पहुंचा देते हैं।

मेरा रूममेट रूद्रपुर का था इसलिए शनिवार दोपहर से सोमवार सुबह तक व छुट्टी के दिन अकेले ही कमरे में काटना मुझे अखरता था। मैने यह बात कभी उससे नहीं कही। लेकिन शायद इसे पढ़ने के बाद वह मुझे जरूर फोन कर जबरदस्त दोस्ताना भाषा का प्रयोग करने वाला है, यह मैं जानता हूं। उसके साथ एक छत के नीचे काटे पांच साल अविस्मरणीय थे। आज भी जब मिलते हैं तो लगता है कि कल ही की तो बात है। वह एक शानदार गायक था और मुकेश साब के गाने हुबहू गाता था। रात को सोने से पहले अक्सर मैं उससे “दिल ने फिर याद किया बर्क़ सी लहराई है, फिर कोई चोट मुहब्बत की उभर आई है..” सुनता था।

हमारे बैच में सरकारी कोटे से कुछ उम्रदराज एलडीए (लाइवस्टोक डेवलपमेंट असिस्टेंट) भी पढ़ने आए थे। उसमें से एक तो लगभग रिटायरमेंट के करीब थे वह बहुत मेहनत करते थे। हां, यह जरूर अच्छी बात है कि हमारे साथ के पांचों जो एलडीए थे, उन्होंने बहुत अच्छे अंको से समय पर डिग्री पूरी कर ली।

लेकिन जिंदगी कभी कभी कुछ ऐसे समाचार सुनाती है जो आदमी को अंदर से हिला भी देते हैं और भविष्य के लिए मजबूत भी कर देते हैं। ऐसी घटना हमारे पहले सेमेस्टर के बीच में हुई जब मेरे एक सहपाठी, जिससे मेरी अच्छी मित्रता भी हो गई थी, की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। पंतनगर में हॉस्टल लाइफ के कुछ महीनों के अंदर ही इस समाचार ने पूरे बैच को स्तब्ध कर दिया।

कभी-कभी कुछ छात्र अपने भविष्य को भी किसी के प्रति एक तरफा लगाव के कारण दांव पर लगा देते हैं। ऐसा ही हमारे एक सहपाठी ने भी किया। जब उसके मार्क्स कम आने लगे और उसकी “ए-पी” (academic probation) लग गई तो हमारे बैच के लगभग सभी छात्रों ने उसे समझाया। लेकिन वह इस कदर परेशान और डिप्रेशन में जा चुका था कि वह उस एक तरफा प्रेम से उबर नहीं सका। और फाइनल एग्जाम के बाद उसके मार्क्स इतने कम हो गए कि उसको यूनिवर्सिटी छोड़नी पड़ी।

मेरे रूम के ठीक बगल में रहने वाला एक अन्य छात्र बहुत ही मेहनती था और टेबल टेनिस का जबरदस्त प्लेयर भी था। उसकी कोई बुरी आदत भी नहीं थी। वह मेहनत भी बहुत करता था लेकिन किसी कारणवश उसके मार्क्स कम आ रहे थे। जिन्हें उसने कवर भी करने की कोशिश करी। और जब फर्स्ट ईयर के फाइनल एग्जाम के अंतिम सब्जेक्ट के ग्रेड की लिस्ट लगी तो उसमें उसकी डी ग्रेड देखकर वहां खड़े सभी छात्रों को बहुत दुख हुआ। क्योंकि यूनिवर्सिटी में बने रहने के लिए उसे इस विषय में कम से कम बी ग्रेड लाने की जरूरत थी। हम जब कॉलेज से हॉस्टल लौट रहे था तभी रास्ते में वह मुझे मिला। हालांकि मैंने उससे नजरें चुराने की कोशिश करी लेकिन वह मुझसे पूछ बैठा कि “मेरी ग्रेड देखी क्या”? लेकिन मैंने कहा “नहीं मैं देख नहीं पाया तुम्हारी ग्रेड” और वह आगे बढ़ गया। मैं जानता था कि मैं उसे नहीं बता सकता था कि मेरे दोस्त अब इस कैंपस में तुम्हारा समय पूरा हो गया है।

मैं निराश होकर हॉस्टल की छत से उस रास्ते की तरफ देख रहा था जहां से वह कॉलेज से वापस लौटने वाला था। दूर से उसके बोझिल कदम बता रहे थे कि वह टूट चुका है। सचमुच उसने बहुत मेहनत करी थी और हम सबको उम्मीद थी कि वह ड्रॉप नहीं होगा। वह धीरे-धीरे हॉस्टल आया और किसी से कुछ नहीं बोला और ना ही हम सब की हिम्मत पड़ी की उसको कुछ बोलें। यह तय हुआ था कि कुछ देर बाद उसके रूम पर जाएंगे और उसको समझाएंगे। और हम सभी शाम को उसके रूम पर जब गए, तो वह अपना सारा सामान लेकर चुपचाप बहती हवा सा हॉस्टल छोड़कर जा चुका था। हमें बड़ा कष्ट हुआ कि हम उसी समय उससे क्यों नहीं मिले। यह आज भी मुझे बहुत कचोटता है। हालांकि तीन वर्ष पूर्व किसी प्रकार उसका फोन नंबर मिलने के बाद मैंने उससे बात करी तो मालूम हुआ कि वह हल्द्वानी में एक सफल और अच्छी जिंदगी जी रहा है।

थर्ड ईयर में हम पंत भवन हॉस्टल शिफ्ट हो गए। लेकिन इसी दौरान हमारे एक और साथी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। हम सब उसे हॉस्टल में “लालू” बुलाते थे और वह इस नाम को बहुत एंजॉय करता था, बड़ा जिंदादिल हंसमुख था वो। सचमुच लालू तुम्हारा वह हंसता चेहरा आज भी बहुत याद आता है। सबको रूला दिया था तुमने।

अब जब पंतनगर के हॉस्टल में विद्यार्थी रह रहे हों तो अध्यापकों का तो निक नेम रख ही दिया जाता था। लेकिन आपस में भी स्टूडेंट्स के बड़े मजेदार निक नेम होते थे। लालू का उल्लेख तो ऊपर किया जा चुका है। लेकिन हमारे हॉस्टल में बैल, सनम, चाउ-माऊ, आरसी, क्रेजी, बुड्ढा, मूडी, सैंडी, आरपी, डीके, पीके, टायसन, छमिया, यंग लेडी, फैनी और यहां तक कि कट्टा तक रहते थे। कुछ तो परमानेंट “सी-पी” (conduct probation) पर रहते थे। इन “सी-पी” वाले महानुभावों के कारण कभी-कभी कुछ सीधे-साधे छात्रों और “एसकेजे” लोगों की भी “डी सी” हो जाया करती थी।
यह पंतनगर की “एसकेजे” ब्रीड भी विचित्र होती थी, बस अपने में मस्त। बड़ा मजेदार ग्रुप होता है इनका। लेकिन अच्छी बात थी कि इन्हें “एडी सीडी” से कोई मतलब नहीं होता था। बस सजना-संवरना और “ढाई नंबर” (g…. Hostel)का चक्कर मारना। हां, इनमें से एकाध कभी कभार मौका लगने पर सूट्टा भी मार लेते थे।

एक हमारे सीनियर थे बड़े ही शानदार गायक, एंकर और अलमस्त जिंदगी जीने वाले। पर उनकी खासियत यह थी कि वह शायद ही पूरी डिग्री के दौरान कभी अपने रूम पर रहे हों। वह अपने सुपर सीनियर्स के रुम में ही पड़े रहते थे। और इनसे बिलकुल अलग एक सज्जन तो ऐसे भी थे अगर आप उनके कमरे में पहुंच गए तो ज़बरदस्ती दुःख भरी गजलें ही सुनाया करते थे।


पंतनगर में शाम को मार्केट जाने का बहुत क्रेज रहता था। भले ही कोई काम हो या ना हो लेकिन शाम को “मार्केटोलॉजी” जरूर करनी है। बड़ी मार्केट शाम को यूनिवर्सिटी के छात्रों से भर उठती थी। कोई दुकान पर जूस पी रहा होता था तो कोई रसगुल्ले खा रहा होता था। कहीं चाय की दुकान पर कुल्हड़ लिए छात्र छात्राएं तो कहीं कोल्ड ड्रिंक्स पीते नौजवान। मगर एक दुकान ऐसी थी जहां आर्चिस कार्ड्स खरीदने की होड़ सी लगी रहती थी। उस दुकान की इन कार्ड्स से गजब की कमाई होती थी। अब छात्र इन कार्ड्स का क्या करते थे यह बताने की जरूरत नहीं है। एक बार इसी बड़े मार्केट में मेरे एक मिर्जापुर के मित्र ने रसगुल्ले खाने की शर्त लगा ली और मैं भी जोश में सभी से अधिक रसगुल्ले खा गया।
तब मोबाइल फोन होते नहीं थे। और सब छात्रों के घरों में फोन भी नहीं होते थे तो वह किसी ना किसी के माध्यम से फोन करके अपना समाचार घर पहुंचाते थे। और एकमात्र पीसीओ पर शाम को फोन करने वालों की अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। वह चिट्ठियों का दौर था। चिट्ठी लिखना और चिट्ठी का इंतजार करना बहुत ही सुखद लगता था। विशेषकर दोपहर में खाना खाने के लिए जब छात्र हॉस्टल लौटते थे तो रूम का दरवाजा खोलते ही देखते थे कि दरवाजे के नीचे से कोई चिट्ठी तो नहीं आई है। और यदि कोई चिट्ठी आई होती थी उसको बार-बार पढ़ना दिल में रोमांच पैदा करता था। मैंने देखा इन तेईस वर्षों बाद भी पंतनगर पोस्ट ऑफिस का वो लोहे का पोस्ट बॉक्स आज भी वहीं खड़ा है। मैं लगातार उसको निहारता रहा कि यह पोस्ट बॉक्स हमारे परिवारों से उन पांच वर्षों में लगातार संवाद कायम रखने का जरिया बना रहा।
पंतनगर में एक कहावत है कि जब वहां से एक छात्र हॉस्टल में रहने के बाद डिग्री लेकर निकलता है तो वह एक ट्रक आलू खा चुका होता है। हालांकि है यह एक अतिशयोक्ति है लेकिन इसमें वास्तविकता भी है। पंतनगर में सुबह की शुरुआत आलू के पराठे से होती थी। उस स्वादिष्ट कुरकुरे आलू के पराठे पर लगा हुआ बटर और उसकी प्यारी सी महक की यादें आज भी मुंह में पानी भर देती है। बुधवार को कैफिटेरिया में स्पेशल सब्जी और अंडा खाने वालों के लिए अंडा करी और मीट के कहने ही क्या थे। और संडे का मजा तो फ्रूट क्रीम में था। एग्जाम के दिनों में रात 12:00 बजे चाय का इंतजाम बहुत ही कम होस्टलों में देखने को मिलता है। एक और मजेदार बात ये थी कि कैफेटेरिया में बैठे हुए संचालक से बचाकर एक भी अतिरिक्त रोटी खाना संभव नहीं था। कितना भी आप कोशिश कर लीजिए अगर आप उनके सामने थाली नहीं ले गए, तो भी वह दूर से ही देखकर पहचान जाते थे इसकी थाली में कितनी रोटी और कौन कौन सी सब्जी और अचार हैं। गजब का हिसाब रखने की कला थी उनमें। हॉस्टल में सिर्फ दूध की चाय जिसे सब “टिल्क” बोलते थे, बड़ी ही प्रसिद्ध थी। अगर बात करें रोडसाइड ईटेबल्स की, तो चाकू अंकल की कॉफी और चाय लाजवाब होती थी। इंजीनियरिंग के अधिकतर छात्र छोटी मार्केट में देखे जाते थे। और वहां भी आंटी जी की दुकान का खाना और पराठा लाजवाब होता था।

पंतनगर का किसान मेला कहने को तो किसान मेला होता था लेकिन छात्र मेला ज्यादा दिखाई पड़ता था। किसानों से ज्यादा छात्र वहां पर दिखाई देते थे। हालांकि छात्र बहुत मेहनत भी करते थे किसान मेले में। लेकिन साल में लगने वाले दो किसान मेलों का सभी को बड़ा इंतजार रहता था। और उन तीन दिनों में सब छात्र सुबह से लेकर शाम तक किसान मेले में ही दिखाई पड़ते थे। कभी-कभी क्लास बंक करके इधर-उधर घूमना या घर चले जाना भी एक गुदगुदाने वाला अनुभव था। अक्सर किसी आने वाले त्यौहार की छुट्टियों से दो दिन पहले ही डिसाइड हो जाता था कि अब कोई भी क्लास नहीं जाएगा। जिससे कि अटेंडेंस शार्ट ना हो और इस कार्य में सभी छात्र गजब की एकता दिखाते थे। यहां तक कि डे-स्कॉलर भी साथ देने में पीछे हटते नहीं थे। कुछ छात्र यूनिवर्सिटी की छोटी छोटी पुलिया पर बैठकर गप्पबाजी करते थे। पंतनगर की भाषा में इसे “पुलियोलॉजी” कहा जाता था। जिससे परेशान होकर प्रशासन ने सारी पुलिया तिरछी करवा दी थीं जिससे कि छात्र उस पर ना बैठ सके।

गांधी हॉल/ऑडिटोरियम की पहली मंजिल पर स्थित डीआर रेस्टोरेंट में जाकर कॉफी पीना, और वह भी क्लास बंक करके, बड़ा ही आनंद देता था। लेकिन एक दिन तो तब गजब ही हो गया जब हम लोग वहां बैठे कॉफी पी रहे थे। और जिन प्रोफेसर साहब की हम क्लास बंक करके आए थे, क्लास लेने के बाद वह भी वहीं पहुंच गए। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस समय हमारी क्या स्थिति हुई होगी।

कुछ टेक्नोलॉजी और एग्रीकल्चर के भी छात्र थे जो अपना हॉस्टल छोड़कर अक्सर हमारे हॉस्टल में रुका करते थे और उनमें से एक तो गजब का वेटनरी साइंस का प्रेमी था। और वह रात को भी अक्सर हमारे हॉस्टल में रुक जाया करता था। और उसको स्यूडो वेटेरिनरीयन भी कहा जाता था। यदि रात को वार्डन हॉस्टल चेक करने आते थे तो उसे कई बार बाथरूम में या तखत के नीचे भी छुपाना पड़ा था। इसका उल्टा भी था मैं भी अक्सर पटेल भवन या विश्वेश्वरय्या भवन में रुक जाता था। ऐसी ही खट्टी मीठी यादों के साथ एक अलमस्त सी जिंदगी आगे बढ़ रही थी।
आइए पंतनगर की खूबसूरत लाइब्रेरी का रुख करते हैं। सचमुच लाइब्रेरी की बिल्डिंग अपने आप में वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। इतनी शानदार और इतनी सुंदर और इतनी बड़ी लाइब्रेरी मैंने पहले कहीं किसी भी विश्वविद्यालय में नहीं देखी थी। यह पंतनगर के छात्र के लिए गौरव का विषय थी। जहां पर हर प्रकार की पुस्तकें जर्नल्स और न्यूज़पेपर एक जगह पर मिल जाते थे। वहीं पर मैने भी लाइब्रेरी का कैटलॉग देखना सीखा। लेकिन कुछ छात्र वहां पढ़ने कम और वहां के ठंडे वातावरण में बैठने के लिए ज्यादा जाते थे। स्वभाविक है छात्र जीवन इन्हीं खट्टे मीठे अनुभव का एक शानदार मिश्रण होता है जो आगे चलकर आपके व्यक्तित्व को निखारता है। और पंतनगर के छात्र होने के कारण यह निखार होना तो स्वाभाविक ही है।

चलिए, एक बार फिर हॉस्टल कि उन्हीं सड़कों पर चलते हैं। अर्धचंद्राकार सड़क के किनारे लगभग एक जैसे लाल रंग के बने हुए हॉस्टल बहुत ही खूबसूरती से एक ज्योमैट्रिकल विन्यास के बनाए गए थे। ज्यादातर अगल-बगल के हॉस्टल एक दूसरे की मिरर इमेज हुआ करते थे। प्रत्येक हॉस्टल से उस हॉस्टल में रहने वाले छात्रों के महाविद्यालय की दूरी बराबर होती थी। और हर महाविद्यालय से सेंट्रल लाइब्रेरी एवं विश्वविद्यालय के ऑफिस, बैंक, कुलपति कार्यालय एवं ऑडिटोरियम की दूरी भी बराबर थी। हॉस्टल्स की अर्धचंद्राकार सड़क के अंदर वाली अर्धचंद्राकार सड़क पर महाविद्यालय थे एवं सबसे बीच में विश्वविद्यालय का प्रशासनिक भवन एवं लाइब्रेरी स्थित थे।

पंतनगर विश्वविद्यालय 1960 में प्रारंभ हुआ था एवं इसका निर्माण इलिनॉइस यूनिवर्सिटी यूएसए के सहयोग से किया गया था। चारों तरफ फैली हरियाली और बहुत ही खूबसूरती से बनाई गई सड़कें, उनका वृक्षारोपण और बिल्डिंग अपने आप में स्थापत्य कला का एक अनूठा उदाहरण है। इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों के टैगोर भवन, पटेल भवन, सिल्वर जुबिली और विश्वेश्वरय्या भवन के आसपास बड़ा ही मनोरम प्राकृतिक दृश्य दिखता था। बीटेक के छात्रों की संख्या अधिक होने से उनके हॉस्टल भी अधिक थे। बीटेक का एक जूनियर था। वह खेल कूद का बड़ा शौकीन था, मैं अक्सर उसके रूम पर या वह मेरे रूम पर आता था। बड़ा खुश मिजाज और हाज़िर ज़वाब था वो। और मुझे लगता था कि उसकी मंजिल कहीं और है। और सही में बीटेक के बाद ही वह आईपीएस हो गया। कुछ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ में उससे मुलाकात हुई। बहुत गर्मजोशी से मिला वह।


पंतनगर की इन्हीं सड़कों, भवनों, हॉस्टलों और “ट” कॉलोनी और “झ” कॉलोनी की गलियों में जिंदगी के कब पांच साल निकल गए पता ही नही चला। अब सभी छात्र अपने भविष्य के बारे में चिंतित थे। कोई जॉब करना चाहता था। कोई प्राइवेट क्लिनिक खोलने का इच्छुक था और कोई पोस्ट ग्रेजुएशन करने की तैयारी कर रहा था। अगर देखा जाए तो मैं कुछ भी सोच समझ सकने की स्थिति में नहीं था। बस ऐसा लगता था कि अब हॉस्टल की यह दीवारें, यह आम के पेड़ और इंटरनेशनल गेस्ट हाउस के पास खड़ा विशाल पीपल का दरख़्त यानी “मोक्ष स्थल”, जिसके नीचे अकसर मैं अपने दो सीनियर्स के साथ जाकर बैठ जाया करता था, अब छूट जाएगा। और इनकी यादों के सहारे आगे बढ़ना पड़ेगा क्योंकि कॉलेज लाइफ के ये पल अब कभी नहीं लौटने वाले थे। पूरे हॉस्टल में एक गम भरा सा माहौल देखने को मिलता था। सभी छात्र एक दूसरे का घर का पता नोट करने लगे थे। क्योंकि तब फोन होते नहीं थे और चिट्ठियों से ही बातें हुआ करती थीं।
“राकेश यह पल हमें बहुत याद आएंगे” मेरे मित्र ने हॉस्टल की पुलिया पर अपना हाथ मेरे कंधे पर रखते हुए धीमे से कहा। मेरे सामने पंतनगर में बिताये खूबसूरत पल किताब के पन्नों की तरह पलटने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे कल ही की तो बात थी जब आगरा फोर्ट एक्सप्रेस से सुबह-सुबह उतरकर रिक्शा करके सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने एडमिशन फीस जमा करने लाइन में खड़े थे। और देखते-देखते पांच साल पंख लगा कर निकल गए।

मैं बोझिल मन से अंतिम बार चाकू अंकल की दुकान की तरफ बढ़ गया। लेकिन वहां भी तीन चार छात्रों का ग्रुप बैठा हुआ यही बात कर रहा था कि आज रात के बाद ना जाने कब मुलाकात होगी। मेरा मन बहुत उदास था फिर भी मैंने चाकू अंकल की कॉफी अंतिम बार धीरे-धीरे सिप करी। लेकिन जैसे चाकू अंकल की दुकान पर हंसी ठिठोली होती थी उस रात वह सब कुछ नहीं था। छात्र वहां बैठे पुरानी यादों को ताजा करते हुए भारी मन से एक दूसरे से विदा ले रहे थे। रात के अंधेरे में मैं अपने कॉलेज को निहारने के लिए उस तरफ बढ़ा। मुझे याद है वह चांदनी रात थी और जितना खूबसूरत हमारा महाविद्यालय उस दिन लग रहा था उतना कभी नहीं लगा था। कितनी यादें जुड़ी थी इस महाविद्यालय से जिसने हमें इस मुकाम पर पहुंचाया। मगर अब वह छूटने वाला था। उसमें अब कभी क्लास नहीं करनी थी। मन कर रहा था कि क्या कल एक और क्लास नहीं हो सकती? लेकिन वक्त नहीं रुकता….।

मैं अपने अन्य साथियों से मिलने के लिए वापस हॉस्टल आया और अपने मित्र के रुम में गया वह अपना बेडिंग बांध रहा था। मुझे देखते ही उसकी आंख भर आई, वह बोला “यार अच्छा नहीं लग रहा है”। लेकिन हम एक दूसरे को बस दिलासा ही दे सकते थे। हमारे हॉस्टल से कुछ छात्र जा चुके थे। कुछ निकलने की तैयारी में थे। और कल तक लगभग सभी अपने अपने गंतव्य की तरफ निकल जाने वाले थे। हॉस्टल की विंग में लगातार होने वाला छात्रों का शोर अब एक भयानक खामोशी में बदल चुका था। कुछ कमरों की लाइट ऑफ थी और दरवाजे खुले हुए थे, जो यह बता रहे थे कि इन कमरो के छात्र अपने हॉस्टल लाइफ को पूरा करके अपने गंतव्य की तरफ बढ़ चुके हैं।

चांदनी की परछाई में मुझे दो-तीन साए छत पर घूमते हुए दिखे। मैं भी उत्सुकता वश हॉस्टल की छत पर चला गया वहां पर तीन छात्र एक दूजे के कंधे पर हाथ रखकर घूम अवश्य रहे थे। लेकिन आपस में कोई बात नहीं कर रहे थे। एक छात्र दूर खड़ा हॉस्टल के पीछे स्थित महाविद्यालय को निहार रहा था। दूर सड़कों पर जलते हुए लैंप पोस्ट के चारों ओर अंतहीन चक्कर लगाते कीड़े मकोड़े और आकाश को छूते हुए विशाल दरख़्त चांदनी रात में बड़े ही खूबसूरत लग रहे थे। लेकिन अब इस हरियाली और शांत वातावरण से दूर जिंदगी की दौड़, आपाधापी, द्वंद और महानगरों के कोलाहल में शामिल होने के लिए हमें जाना ही था। हम सभी बिना बोले सामान पैक करने अपने-अपने रूम में वापस आ गये। हम कुछ-कुछ देर पर हॉस्टल के बाहर अपने मित्रों को छोड़ने आ रहे थे।

और फिर वह समय भी आ गया जब हॉस्टल में बचे हुए थोड़े से हमारे बैचमेट्स मुझे रिक्शे तक छोड़ने आए। हमने एक-दूसरे को शुभकामनाएं दी। और मैं भारी मन से रिक्शे पर बैठ गया हम लोग दूर तक एक दूसरे को हाथ हिला कर विदा कर रहे थे….। मेरा रिक्शा कब्रिस्तान के रास्ते से मंद-मंद चलती हवा के बीच धीरे-धीरे बाहर की तरफ बढ़ रहा था। रिक्शेवाले के मुंह से निकलती सिटी की धुन “रात ये बाहर की फिर कभी ना आएगी, दो-एक पल और है यह समा, सुन जा दिल की दास्तां, ये रात ये चांदनी फिर कहां……….” सचमुच माहौल को और गमगीन बना रही थी। मैंने देखा दूर क्षितिज पर फैली चांदनी थोड़ी सी धूमिल पड़ गई थी और चांद को बादलों ने अपने आगोश में ले लिया था ।

IIT Kanpur organizes “Anviksha” – A Research Scholars’ Conference

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Prof. Ipshita Chanda from EFLU (English and Foreign Language University), Hyderabad and Prof. Mini Chandran, the Head of the Department of Humanities and Social Sciences IIT Kanpur

G.P. VARMA
Kanpur, 7 February, 2024: The Department of Humanities and Social Sciences, IIT Kanpur (IITK), organised its first two-day national research scholars’ conference Anviksha. The theme for this multi-disciplinary conference was “Boundaries” and examined diverse domains associated with it, including modes of sociality, political discourse, identity formation, and literary and aesthetic production.

The conference brought together more than 500 submissions from across the country, out of which 48 abstracts were selected for the final presentation through a blind peer review process. The conference had 12 panels focussing on themes- Gender, Conflict, Digital Frontiers, Urbanisation, and Knowledge.

A keynote speaker, Prof. Janaki Abraham from the Delhi School of Economics engaging with the participants
The Department of Humanities and Social Sciences, IIT Kanpur successfully conducted its first two-day national research scholars’ conference, Anviksha

Prof. S. Ganesh, Director, IIT Kanpur, said, “The Department of Humanities and Social Sciences at IIT Kanpur has taken a significant step forward by hosting this conference to address critical cross-disciplinary frontiers that affect society as a whole. Anviksha, the department’s first national research scholars’ conference, highlights our commitment to informed and inclusive education by facilitating insightful dialogues and thoughtful conversations among emerging scholars. It has paved the way for discourses that cross ‘boundaries’ in the literal sense and can have far-reaching consequences in the humanities and social sciences.”

On the inaugural day, Prof. Mini Chandran, the Head of the Department of Humanities and Social Sciences, welcomed the participants by sharing insights into the conceptualization of the theme and expressed optimism about the conference evolving into an annual academic highlight for scholars nationwide.

Prof. Ipshita Chanda from EFLU (English and Foreign Language University), Hyderabad gave the keynote address on the need for ethically engaging plurality. She emphasised how humanities research, to be meaningful, must end in a realisation about the nature of the human through a relation of self to the world and needs to break through fixed ways of thinking about lives.

Prof. Janaki Abraham from the Delhi School of Economics, as a keynote speaker for the second day, derived from her fieldwork to question rule-based boundaries of rituals and customs, turning a sociological eye to wedding rituals. She argued that recognising the practice of rituals, which includes innovation, subversion and the invention of new traditions, could enable us to see micro–processes versus notions of static customs.

With the scale of participation and the quality of insights presented, Anviksha marked an outstanding debut for IIT Kanpur in convening a forum to showcase the best of young talent in humanities and social sciences research nationwide.

IIT Kanpur achieves major milestone with India’s First Hypervelocity Expansion Tunnel Test Facility

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G.P. VARMA
Kanpur, 05 February, 2024: The Indian Institute of Technology Kanpur (IITK) has successfully established and tested India’s first Hypervelocity Expansion Tunnel Test Facility, a major achievement that puts India amongst only a handful of countries with this advanced hypersonic testing capability. The facility, named S2, is capable of generating flight speeds between 3-10 km/s, simulating the hypersonic conditions encountered during atmospheric entry of vehicles, asteroid entry, scramjet flights, and ballistic missiles. This makes it a valuable test facility for ongoing missions of ISRO and DRDO including Gaganyaan, RLV, and hypersonic cruise missiles.

The S2, nicknamed ‘Jigarthanda’, is a 24-meter-long facility located at IIT Kanpur’s Hypersonic Experimental Aerodynamics Laboratory (HEAL) within the Department of Aerospace Engineering. The S2 was indigenously designed and developed over a period of three years with funding and support from the Aeronautical Research and Development Board (ARDB), the Department of Science and Technology (DST), and IIT Kanpur.

Commenting on this, Prof. S. Ganesh, Director, IIT Kanpur, said, “The successful establishment of S2, India’s first hypervelocity expansion tunnel test facility, marks a historic milestone for IIT Kanpur and for India’s scientific capabilities. I congratulate Prof. Sugarno and his team for their exemplary work in designing and fabricating the hypersonic research infrastructure. S2 will empower India’s space and defence organizations with domestic hypersonic testing capabilities for critical projects and missions.”

Prof. Mohammed Ibrahim Sugarno, Associate Professor, Department of Aerospace Engineering and Centre for Lasers & Photonics at IIT Kanpur said, “Building S2 has been extremely challenging, requiring in-depth knowledge of physics and precision engineering. The most crucial and challenging aspect was perfecting the ‘free piston driver’ system, which requires firing a piston at high pressure between 20-35 atmospheres down a 6.5 m. compression tube at speeds of 150-200 m/s, and bringing it to a complete stop or ‘soft landing’ at the end.”

“However, with our expertise, we were able to overcome this. Our team is proud to have designed, built, and tested this one-of-a-kind facility, cementing India’s position in the elite global hypersonic research community,” he added.

Prof. Tarun Gupta, Dean, Research and Development, IIT Kanpur, said, “S2 highlights IIT Kanpur’s research excellence, positioning the institute at the forefront of innovative research and opening doors to groundbreaking advancements in aerospace technology. I am pleased to acknowledge the crucial support received from ARDB and DST.”

Prof. G. M. Kamath, Head, Department of Aerospace Engineering, IIT Kanpur, said, “With S2, we advance our research horizons, inspiring a new generation of aerospace enthusiasts and fostering innovation and exploration in this exciting field. Being the first in India to develop such a facility enables us to set a new benchmark for hypervelocity research in India and beyond.”

S2 represents a tremendous achievement for IIT Kanpur and a major capacity boost for India’s space and defence sectors. With sophisticated hypervelocity testing capabilities now available domestically, India is better positioned to develop advanced hypersonic technologies and systems.

IIT Kanpur joint-study on Cost-Effective Alloy for Energy Storage recognized by Nature Magazine

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G.P. VARMA

Kanpur, 10 January 2024: A research paper and study on the use of a special alloy that could make it easier and affordable to convert and store energy from renewable sources by Prof. Krishanu Biswas of the Department of Materials Science and Engineering, IIT Kanpur and a team of multi-institutional researchers has been highlighted by Nature, the world’s leading multidisciplinary science journal, as one of the ‘high-impact research papers from India that are shaping science’.

Prof. Krishanu Biswas and fellow researchers from IIT Mandi, IIT Kharagpur and IISc Bangalore, conducted research on a special kind of material called a high entropy alloy (HEA), comprising a mix of five elements; Cobalt, Iron, Gallium, Nickel, and Zinc, for its use in splitting of water into oxygen and hydrogen. Water splitting is essential in many technological applications such as electrolyzer, fuel cells, and catalysis. The most important aspect of water splitting is its ability to efficiently separate water, abundantly available on the earth, into hydrogen and oxygen. Hydrogen is considered a clean substitute for fossil fuels with net-zero emissions. This research categorically demonstrates the effectiveness of this innovative alloy, surpassing the performance and durability of expensive materials such as ruthenium oxide, currently used for the same purpose. The materials of the study are made up of earth-abundant elements, making it sustainable and easy to fabricate for application. The research paper titled ‘Low-cost high entropy alloy (HEA) for high-efficiency oxygen evolution reaction (OER),’was published in the Nano Research Journal in its edition dated 2022, 15 (6) https://link.springer.com/article/10.1007/s12274-021-3802-4 .

The study has wide ramifications in green hydrogen economy in which energy-rich hydrogen is extracted from water through electrochemical water-splitting. Electrochemical water splitting is a highly promising sustainable and pollution-free approach for green hydrogen and oxygen production. The process requires two electrodes being immersed in an electrolyte solution. The chemical reactions at the electrodes driving the production of oxygen and hydrogen gas require efficient bifunctional catalyst. However, the process was not commercially viable so far, as most electrochemical systems use rare and expensive metals that restrict their use in large-scale applications. On the other hand, lower-cost systems were not being able to achieve efficient catalysis. The novel alloy catalyst designed, developed, and tested by Prof. Biswas and his collaborators can make this process easier and more affordable by using low-cost high-entropy alloy to store energy from renewable sources, allowing the use of clean energy. This could further aggravate our stride towards a cleaner environment, reducing dependence on fossil fuels and mitigating global warming.

Prof. Krishanu Biswas, Department of Materials Science and Engineering, IIT Kanpur

In addition to Prof. Krishanu Biswas, the other researchers on the team included Dr. Nirmal Kumar Katiyar from IIT Kanpur, Prof. Aditi Halder and Dr. Lalita Sharma from IIT Mandi, Prof. Chandra Sekhar Tiwary and Dr. Rakesh Das from IIT Kharagpur, Prof. Abhishek K. Singh, Dr. Arko Parui and Dr. Ritesh Kumar from Indian Institute of Science (IISc), Bangalore.

Details of the article in Nature Magazine: https://www.nature.com/articles/d41586-023-03913-7 Nature 624, S34-S36 (2023)

IIT Kanpur’s landmark research offers new hope in Cancer and Brain Disorders such as Alzheimer’s and Parkinson’s disease

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G.P. VARMA

January 5, 2024, Kanpur: The Indian Institute of Technology Kanpur (IITK) has achieved a breakthrough in biomedical research, with their study of G protein-coupled receptors (GPCRs) and chemokine receptor D6, shedding new light on the potential treatment of cancer and brain disorders such as Alzheimer’s disease, Parkinson’s disease and schizophrenia. The researchers visualized the atomic details of the receptors. The information from this major advance opens up the possibility of designing new drug-like molecules to modulate these receptors under disease conditions. This landmark work has been recognized internationally with its publication in the prestigious international journal, Science.

Prof. S Ganesh, Director, IIT Kanpur said, “The path-breaking research opens the doors to a new era in targeted medicine that can deliver solutions for cancer and neurological conditions for millions across the world. These diseases, which cause immense suffering and economic burden, could see a new era of effective treatment developed based on these findings! The success of this research project is also a testament to our successful collaboration with scientists across the world. This project saw the team from IIT Kanpur working with researchers from Japan, the Republic of Korea, Spain, and Switzerland. Hearty Congratulations to Prof. Arun Shukla and team, who have been doing outstanding research in GPCRs Biology!”

This collaborative effort, involving international researchers not only enhances the understanding of complex diseases but also cements India’s position as a leader in innovative biomedical research and highlights IIT Kanpur’s commitment to addressing some of the most pressing health challenges.

G protein-coupled receptors (GPCRs) are like tiny antennas on the surface of brain cells which help them to communicate and play a key role in many brain functions. When these receptors don’t work properly, there are issues with communication between the brain cells leading to diseases like Alzheimer’s and Parkinson’s. This leads to the symptoms and progression seen in these diseases. Similarly, the chemokine receptor D6 functions in the immune system and is involved in the response to inflammation. In cancer, the receptor can influence the tumour environment, affecting how the cancer cells grow and spread.

The findings of the new research from IIT Kanpur will help in a greater understanding of the working of these receptors and lead to the development of new therapeutic approaches and targeted treatments for conditions such as Alzheimer’s, which affects over 50 million people worldwide, and cancer, responsible for over 10 million deaths annually. The results of the research will now facilitate the development of new drug-like molecules that can be tested for their therapeutic potential in animal models.

The researchers used a high-tech method called cryogenic-electron microscopy (cryo-EM) to create detailed three-dimensional images of the receptors. This allowed them to study the 3D images of the receptors at the molecular level in great detail, helping to identify and design new drug-like molecules to correct problems with these receptors that cause disease conditions.

The research team from the Laboratory of GPCR Biology, IIT Kanpur included Prof. Arun K. Shukla, Department of Biological Sciences and Bioengineering and Principal Investigator GPCR Lab; Dr. Ramanuj Banerjee, Post-Doctoral Fellow; Dr. Manish Yadav, Post-Doctoral Fellow; Dr. Ashutosh Ranjan, Post-doctoral fellow, currently Faculty at Lucknow University; Jagannath Maharana, Ph.D. scholar now heading to the Max Planck Institute of Molecular Physiology as a post-doctoral fellow; Madhu Chaturvedi, Ph.D. scholar now heading to UCSF as a post-doctoral fellow; Parishmita Sarma, Ph.D. student; Vinay Singh, Project JRF, now headed to IMPRS on Cellular Biophysics, Frankfurt as a Ph.D. student; Sayanatan Saha, Project Research Fellow; and, Gargi Mahajan, Project Research Fellow.

The global collaboration saw researchers from across the world joining hands with IIT Kanpur to ensure the success of this research project. The research team included Fumia Sano, Wataru Shihoya and Osamu Nureki from Tokyo, Japan; Tomasz Stepniewski and Jana Selent from Barcelona, Spain; Mohamed Chami from Basel, Switzerland; and Longhan Duan and Ka Young Chung from Suwon, Republic of Korea.

The research work at IIT Kanpur was supported by the DBT/Wellcome Trust India Alliance, and Science and Engineering Research Board.

Reference: Molecular insights into atypical modes of β-arrestin interaction with seven transmembrane receptors. Maharana J, Sano F, Sarma P, Yadav M, Longhan D, Stepniewski TM, Chaturvedi M, Ranjan A, Singh V, Saha S, Mahajan G, Chami M, Shihoya W, Selent J, Chung KY, Banerjee R*, Nureki O* and Shukla AK*. Science, 2023.

About IIT Kanpur:

Indian Institute of Technology Kanpur was established in 1959 and declared to be to be an Institute of National Importance by the Government of India through an Act of Parliament. IIT Kanpur is best known for the highest standard of its education in science and engineering and seminal R&D contributions over the years. The institute has a sprawling lush green campus spread over 1055 acres with large pool of academic and research resources spanning across 19 departments, 25 centers and 3 interdisciplinary programs in engineering, science, design, humanities, and management disciplines with more than 570 full-time faculty members and approximately 9000 students.
For more information, please visit www.iitk.ac.in

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IIT Kanpur
Bhavisha Upadhyay, +91-9819872745, bhavisha.upadhyay@adfactorspr.com
Rucha Khedekar, +91-7678042697, rucha.khedekar@adfactorspr.com

अदालत में गुलदार

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Dr. Rakesh Kumar Singh
फरवरी महीने का पहला पखवाड़ा था और अभी भी धूप में गुनगुनाहट कायम थी। बस यूं कहिए कि गुलाबी जाड़ों का मौसम था। यह मौसम सभी वनस्पतियों, वन्य जीवों को लुभाता है और प्रकृति के साथ ही साथ वन्य जीव भी अपने पूरे शबाब पर होते हैं। सूरज भी धीरे-धीरे अस्त होने के करीब था। यही कोई तीन-सवा-तीन का वक्त था। तभी सोशल मीडिया में अचानक ही एक तेंदुए द्वारा कई लोगों को घायल करने के वीडियो वायरल होने लगे। और सूचना मिली कि गाजियाबाद जनपद मुख्यालय परिसर में स्थित जिला न्यायालय के परिसर में एक तेंदुआ, जिसे गुलदार भी कहते हैं, घूम रहा है। सहसा यह अविश्वसनीय सा लगा। यहां तक कि पत्रकार भी इस बात से सहमत नहीं थे कि यह सूचना सही है। भला इतनी घनी आबादी वाले शहर में और वो भी खचाखच भरी रहने वाली जिला अदालत की इमारत में तेंदुआ कैसे आ सकता था। लेकिन बार-बार घनघनाती फोन की घंटी इस खबर को पुख्ता कर रही थी।

उधर नजदीक के शहर मेरठ में एक अन्य तेंदुए ऑपरेशन में लगी स्थानीय रेस्क्यू टीम भी इस अचानक आए मेहमान की खबर से बेखबर नहीं थी। एक गुलदार कहीं से भटक कर अदालत परिसर में आ गया था। चूंकि तेंदुआ घबराया हुआ था और भयवश इधर-उधर भाग कर छुपने का स्थान तलाश रहा था और इसीलिए भागते हुए अपने पंजों से आत्मरक्षा में कई लोगों को चोट पहुंचा चुका था।

हमारी स्थानीय टीम अविलंब उस स्थान पर पहुंच चुकी थी। और रेस्क्यू ऑपरेशन के संबंध में स्टाफ को जो कुछ मिला जैसे कि पिंजड़ा, रस्सी, जाल, बांस, केरोसिन, माचिस, रद्दी कपड़े और यहां तक कि तेंदुए को दूर रखने के लिए तेज आवाज करने वाले खाली कनस्तर भी वह ले आए थे। दूसरी तरफ अनुभवी रेस्क्यू टीम अपने साथ डार्ट गन और अन्य सामान लेकर उच्चाधिकारियों के साथ मेरठ से भी चल चुकी थी। अब कुल मिलाकर स्थिति यह थी कि अदालत में कहीं गुलदार छुपा था और यदा-कदा प्रकट हो जाता था। सभी लोग तेंदुए से बचना भी चाहते थे और अदालत के इस नए फरियादी को देखना भी चाहते थे। इस कारण बड़ा ही अफरा-तफरी का माहौल था। अब सबसे बड़ी चुनौती इस विचित्र फरियादी को इतने बड़े परिसर में ढूंढना और रेस्क्यू टीम के आने तक रोकना थी।

यह एक कई मंजिला इमारत थी जिसमें बड़े-बड़े कमरे और लंबे बरामदे थे और हर बरामदों से सीढ़ियां नीचे-ऊपर जाती थीं। फिलहाल थोड़ी देर बाद ही तेंदुआ एक सीढ़ी से ग्राउंड फ्लोर की ओर भागता दिखा। और एकत्रित तमाशबीनों से डरकर संभवतः सीढ़ी के नीचे ही छुप गया। हमारी टीम ने तुरंत सीढ़ी के लोहे के चैनल गेट को बंद कर दिया। अब हमें फुर्ती से काम करते हुए ऊपर के सीढ़ी के रास्ते को बंद करना था। पर समस्या ये थी कि ऊपर ऐसा कोई गेट ही नहीं था। इसलिए इतने चौड़े रास्ते को बंद करने के लिए फटाफट वहां जाल बांधा जाने लगा। साथ ही साथ हमारी टीम ने आपस में बातें करना भी जारी रखा ताकि तेंदुआ हमारी उपस्थिति का एहसास होने से सीढ़ी के नीचे ही छुपा रहे। हमारी युक्ति काम कर गई और हम जाल बांधने में सफल रहे। पर यह एक मनोवैज्ञानिक बैरियर ही था। यदि तेंदुआ जोर लगाता तो निकलने का रास्ता बना सकता था। इसीलिए तेंदुए पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिये हमारी टीम के सदस्य मशाल और आवाज़ करने का कनस्तर आदि लेकर इस जाल के दूसरी तरफ खड़े हो गए, ताकि यदि तेंदुआ आता भी है तो वे शोर मचाकर या मशाल जलाकर उसे पुनः सीढ़ी के नीचे लोहे के गेट के पास भेज दे, और उसको निकलने नहीं दे।

यहां यह बताना आवश्यक है कि अब तक यह अनुमान ही लगाया गया था कि वह तेंदुआ सीढ़ी के नीचे छुपा है क्योंकि नीचे भागते हुए उस तेंदुए को किसी अन्य स्थान पर किसी भी व्यक्ति ने नहीं देखा था।

इसी बीच मेरठ से रेस्क्यू टीम भी वहां पहुंच चुकी थी और उन्होंने संपूर्ण हालात का जायजा लेना प्रारंभ किया। परंतु तेंदुए ने अब तक अपनी उस स्थान पर उपस्थिति का कोई प्रमाण नहीं दिया था। वहां तमाशबीनों की भी इतनी अधिक भीड़ थी कि तिल रखने की भी जगह नहीं थी। और एक अनार सौ बीमार की कहावत पूर्ण रूप से चरितार्थ हो रही थी।
तभी सीढ़ी के ठीक बगल मे सीमेंट से बने छोटे से स्थान के पीछे छुपे हुए तेंदुए की पूंछ के धब्बे दिखाई पड़ गए। बस इसके साथ ही हमारा “तेंदुआ डार्ट ऑपरेशन” शुरू हो गया था। सबसे बड़ी दिक्कत थी कि तेंदुआ ऐसी जगह छुपा हुआ था जहाँ से उसे डार्ट करना बिल्कुल नामुमकिन था। इसके अलावा वह किसी भी स्थिति में वहां से हिलने को भी तैयार नहीं था।

पूर्व के अनुभव के अनुसार हमने तेंदुए की पूंछ पर छोटा सा कंकड़ फेंका और एक भयानक दहाड़ के साथ वह विडाल वंशी हमारे सामने प्रकट हो गया। एक बात अवश्य हुई कि इस दहाड़ से तमाशबीनों में भगदड़ मच गई। लेकिन इतनी अधिक भीड़ थी कि डार्ट गन को सीधा रख कर निशाना लगाना मुश्किल हो रहा था। परीणाम स्वरूप जिस प्रकार वह गुलदार प्रकट हुआ था उसी प्रकार पलक झपकते ही फिर गायब हो गया। कुछ देर बाद अनियंत्रित भीड़ के शोर से एक बार फिर गुलदार बाहर निकला और सीढ़ियों पर होता हुआ ऊपर पहुंच गया। लेकिन वहां मौजूद मुस्तैद टीम ने शोर मचा कर उसे वहां लगे जाल से निकलने नहीं दिया और तेंदुआ फिर नीचे सीढ़ी के पीछे छुप गया। अब कुछ ऐसा करना जरूरी था कि तेंदुआ भीड़ से ना डरे और कुछ समय के लिए डार्टिंग टीम के सामने रहे ताकी उसपर डार्ट गन से लक्ष्य लेने का समय मिल सके।

शिकारी वन्य जीवों की एक प्रवृत्ति होती है कि यदि वह गुस्से में हों तो वह हर उस चीज को मुंह से पकड़ते हैं जिससे उन्हें छेड़ा जाता है। टीम का अनुमान था कि यदि ऐसी किसी वस्तु जैसे लंबी पाइप आदि से तेंदुए को यदि धीरे से छेड़ा जाए तो उस पाइप को तेंदुआ मुंह से जरूर पकड़ेगा और छोड़ेगा नहीं। और उस पाइप को यदि टीम अपनी तरफ खींचेगी तो तेंदुआ मुंह से पकड़े-पकड़े अवश्य टीम के सामने तक अपने-आप खिंचता चला आएगा। इस के लिए किसी एक ऐसी पाइप की आवश्यकता थी जो कि तेंदुए तक पहुंच सके। और इतनी मजबूत भी हो कि यदि तेंदुआ उसको मुंह से पकड़े तो वह टूटे नहीं और न ही तेंदुए को मुंह में चोट लगे।

तभी टीम की नजर पास में पड़ी एक पीवीसी की पानी की पाइप पर पड़ी जोकि पर्याप्त लंबी थी। इस पीवीसी पाइप को जब सीढ़ी के पीछे डाला गया तो वह वहां छुपे तेंदुए तक पहुंच गई। और तेंदुए ने गुस्से में उसे मुंह से पकड़ लिया और और टीम के सदस्यों ने उस पाइप को खींचना प्रारंभ कर दिया। और हमारे अनुमान के अनुरूप तेंदुआ गुस्से में पाइप को पकड़े हुए लोहे के चैनल गेट तक खिंचता चला आया। डार्टिग टीम ने उस पर डार्ट गन से बेहोशी की दवा से भरा डार्ट फायर किया। लेकिन टीम की अपेक्षा के विपरीत वह दवा से भरी हुई डार्ट तेंदुए तक नहीं पहुंच सकी। इसके लिए एक दूसरी डार्ट तैयार की गई। लेकिन अत्यधिक भीड़ होने के कारण तेंदुए पर ऐम लेना मुश्किल हो रहा था। यह बड़ी विचित्र स्थिति होती है जब एक वन्य जीव, जिसे बेहोश किया जाना है, आपके सामने हो और आप उस पर लक्ष्य न ले सकें। फिलहाल दूसरी डार्ट काम कर गई और सीधे तेंदुए के पुट्ठे में समा गई। तेंदुआ एक तेज दहाड़ के साथ पीवीसी पाइप को छोड़कर पुनः सीढ़ी के पीछे छुप गया।

अब सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि तेंदुए को किस प्रकार और कहां से देखा जाए कि उसके ऊपर बेहोशी की दवा का असर हो गया है या नहीं। क्योंकि वह अब इस प्रकार छुप गया था कि उस कोने तक हमारी पीवीसी पाइप भी नहीं पहुंच रही थी। तेंदुआ इतना अधिक स्ट्रेस में और भयभीत भी था कि वह वहां से निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। समय बीतता जा रहा था और हमारी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। क्योंकि यदि अगले 15 से 20 मिनट में तेंदुए को बाहर नहीं निकल गया तो वह दुबारा होश में आ सकता था। और इतनी जल्दी पुनः बेहोशी की दवा देना भी उचित नहीं था। यह अत्यधिक असमंजस की स्थिति थी। तभी यह निर्णय लिया गया कि चार-पांच लोग बॉडी प्रोडक्शन सूट, हेलमेट और जाल लेकर चैनल गेट खोलकर अंदर बढ़ेंगे। लेकिन जनता की सुरक्षा को देखते हुए टीम के अंदर जाने के बाद चैनल को बंद कर दिया जाएगा ताकि यदि तेंदुआ होश में हो तो बाहर ना निकल सके। हालांकि यह बहुत ही जोखिम भरा कार्य था लेकिन तेंदुए और जनता की सुरक्षा की दृष्टिगत इसके अतिरिक्त कोई भी अन्य उपाय टीम के पास नहीं था।

डार्ट टीम को यह अवश्य विश्वास था कि अब तेंदुआ उतना आक्रामक नहीं होगा, क्योंकि डार्ट तेंदुए के पुट्ठे में लगी थी इसलिए तेंदुआ दवाओं के कुछ असर के कारण उतनी फुर्ती नहीं दिखा सकेगा। इसी विश्वास के साथ हम पांच लोग जाल लेकर अंदर दाखिल हुए और हमारे अनुमान के अनुसार तेंदुआ पूरी तरह बेहोश नहीं था। वह लगभग बैठी हुई स्थिति में था, लेकिन चल पाने में असमर्थ था। वह अपने पंजे चला रहा था और धीरे-धीरे गुर्रा भी रहा था। ऐसे में उसके ऊपर अगर जाल डाला जाता तो स्ट्रेस के कारण यदि वह जाल से निकलने के लिए प्रयास करता तो लगातार प्रयास के कारण वह अपने शरीर का तापमान बढ़ा सकता था और इसके कारण उसकी मृत्यु भी हो सकती थी।

चूंकि आधे बेहोश तेंदुए को हैंडल करना और साथ-साथ डार्ट करना एक वन्य जीव विशेषज्ञ के लिए संभव नहीं था इसलिए टीम के एक अनुभवी वाइल्डलाइफ गार्ड श्री कमलेश पांडे को इस बार डार्ट गन दी गई और हम सभी टीम के सदस्य जाल लेकर तेंदुए के सामने इस प्रकार खड़े हो गए कि अगर वह डार्ट लगने के बाद थोड़ी देर के लिए यदि खड़ा भी होता है तो टीम के सदस्य अपना बचाव कर सकें और उसे वहां से उसे बाहर भी न निकलने दे।

श्री कमलेश द्वारा फायर की गई वह डार्ट एक बार फिर बेहोशी की दवा को तेंदुए के पुट्ठों में पहुंचाने में सफल रही। लेकिन वहां उपस्थित भीड़ द्वारा किए जा रहे अत्यधिक शोर के कारण बेहोशी की दवा का असर तेंदुए पर कम ही हो रहा था। फिर भी पूर्व के अनुभव के अनुसार टीम ने तीसरी बार थोड़ी सी बेहोशी की दवा फिर तेंदुए को दी। लेकिन अत्यधिक शोर के कारण आश्चर्यजनक रूप से तेंदुआ पूरी तरह से बेहोश नहीं हुआ। अब इससे अधिक दवा दिया जाना तेंदुए के लिए घातक हो सकता था। क्योंकि यह एक बहुत बड़ा परिसर था और तेंदुए को रेस्क्यू करने का मौका अब फिर नहीं मिल सकता था। इसलिए टीम के सदस्यों ने जोखिम लेते हुए तेंदुए पर जाल डाल दिया और कुछ सदस्यों ने उसे हल्के से लकड़ी के डंडों से दबा लिया एवं जाल को ही खींचना प्रारंभ कर दिया। तेंदुआ जाल से निकलने के लिए अभी भी थोड़ा प्रयास कर रहा था। पर टीम के सदस्यों ने सुरक्षित दूरी से अत्यधिक बहादुरी दिखाते हुए जाल सहित तेंदुए को पिंजरे में कैद कर दिया।

लेकिन इतनी भीड़ में तेंदुए के पिंजरे को ट्रक तक पहुंचाना एक बहुत ही मशक्कत भरा काम था। जिसके लिए टीम को बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ी। गुलदार को देखने के लिए भीड़ इस कदर अनियंत्रित हो गई थी कि टीम के सभी सदस्य तीतर बितर हो जा रहे थे। आखिरकार जब कोई रास्ता नहीं सुझाया तो स्वयं हम सभी को विभाग के कर्मचारियों के साथ भीड़ को काबू करने का कार्य करना पड़ा। और किसी तरह भीड़ से बचाते हुए तेंदुए को ट्रक तक पहुंचाया गया एवं तेंदुए को लेकर टीम तत्काल प्रभागीय निदेशक के कार्यालय में पहुंच गई। यहां भी कार्यालय परिसर का मुख्य द्वार तत्काल बंद कर तमाशबीन लोगों को रोका जा सका। जिससे कि तेंदुए को शांति मिल सके और वह कुछ देर के लिए स्थायित्व प्राप्त कर सके। लगभग आधे घंटे बाद जब तेंदुए का निरीक्षण किया गया तो वह अत्यधिक गुस्से में था और पूरी तरह होश में आ चुका था। उसके शरीर पर कुछ चोटों के निशान भी थे और उसने भीड़ में अपने-आप को स्वयं पिंजरे से टकरा-टकरा कर घायल भी कर लिया था। उसको आवश्यक उपचार दिया गया एवं उसके घावों पर मलहम लगाया गया।
कुछ ही देर में नेशनल हाईवे पर घुप्प अंधेरे को चीरती हुई हमारी जीप अदालत के उस विचित्र फरियादी को लेकर उसके नए घर शिवालिक के जंगलो की ओर बढ़ रही थी। लेकिन वह गुलदार किस फरियाद को लेकर अदालत में आया था यह प्रश्न हमारी टीम के हर सदस्य के मानो-मस्तिष्क को अब भी झकझोर रहा था।

=>Dr Rakesh Kumar Singh and Manish Singh

Ministry of Education (MoE) and SATHEE of IIT Kanpur SATHEE’s Initiative to Transform Exam Preparation in Schools

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G.P VARMA
Kanpur, November 21: The Ministry of Education and IIT Kanpur has announced the successful outreach of SATHEE (Self-Assessment Test and Help for Entrance Exams), an innovative online education platform to empower the millions of students preparing for competitive exams across the country.

The initiative marks a significant milestone in the implementation of the National Education Policy 2020 and in achieving Sustainable Development Goal 4.

Secretary, Department of Higher Education, Ministry of Education,K Sanjay Murthy in an event at Shastri Bhawan in Delhi inaugurated the program in the presence Professor S. Ganesh, Officiating Director, Indian Institute of Technology, Kanpur; Govind Jaiswal, Joint Secretary, Higher Education, Ministry of Education; Sanjay Kumar, Secretary, School Education, Ministry of Education and Professor Amey Karkare, Principal Investigator, SATHEE Project, IIT Kanpur.

SATHEE, now live, offers a comprehensive suite of resources for NEET and JEE aspirants, including video lectures from renowned faculties of IITs and IISc. The platform has commenced with its first 45-day JEE crash course, designed to provide intensive preparation and revision in a short period, ideal for students looking to consolidate their learning before exams.

The platform will also host a series of intensive, expert-designed learning modules along with novel features like an interactive chatbot. Regular doubt-clearing sessions led by students from IITs and AIIMS will enhance the learning experience and maintain a human connect with the students. The SATHEE platform is expected to receive an overwhelming response from students across the nation.

“The outreach of SATHEE marks a significant step towards enhancing accessibility to education in India. The platform opens up new avenues for students preparing for competitive exams, offering quality resources and support. Our goal is to ensure that every student, irrespective of their location or financial situation, has the opportunity to excel in their academic pursuits. SATHEE is a testament to our commitment to educational equity and excellence,” said Prof. S. Ganesh, Officiating Director, IIT Kanpur.

The platform stands out with its multilingual support, offering content in English, Hindi, and various Indian regional languages, ensuring no student is left behind due to language barriers and further encouraging students in their journey towards academic excellence.

“The outreach of SATHEE is an important step towards bridging the educational divide in India. We have created a platform that simplifies and enhances the learning process for competitive exams. Our focus is on delivering quality education in an accessible format. We believe SATHEE will be instrumental in helping students across the country to better prepare for their future, aligning with our mission of educational inclusivity and excellence,” said K Sanjay Murthy.

SATHEE is not just a learning platform; it represents a movement towards equal educational opportunities for all, challenging the monopolization of competitive exam preparation by private classes that either many cannot afford or access easily due to distance. It offers a beacon of hope to millions of students, particularly those in rural areas and financially constrained environments.

Three days South Asian Fraternity Conference concluded

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G.P. Varma
Three days conference of South Asian Fraternity (SAF)on University in Diversity concluded here on Saturday embodying an ambitious plan of service to humanity.

It was resolved that members should work hard to enhance the participation of young generation to keep the light of human values alive in times to come.

Speakers invariably stressed upon the need that each member should include at least one young member to SAF and popularise its objectives among the school children and all other educational institutions.

President of SAF Satya Paul said” SAF brings the people closer to chalk outcommon plans of development and create an atmosphere of coordination and cooperation instead of confrontation.”

Secretary general Kanpur Chapter of SAF Deepak Malviya said that the vision of SAF was to strengthen the democratic institution and human welfare plans. He urged the members to make the SAF more dynamic and effective with the inclusion of younger generation.

The secretary of lok Seva Mandal Naushad Alam Mansoori urged the people that they should develop “people to people communication system” for the betterment of the world community.”We must honour government assistance in welfare programs but abstain from being completely dependent upon the government efforts as it has to address several other programs”,he said

About thirty nine delegates across the country including Andhra Pradesh, Assam, Delhi, Gujrat, Haryana, Kerala, Odisha, Punjab, Telengana , Uttar Pradesh and neighbouring country Nepal participated at conference.

Participants including Rupashree Mohapatra,Sangita Sahu,Mamta ojha, Dr Chitta Ranjan Sahani of Odisha, Gurcharan Singh, Paramjeet Singh Mann,Jasvinder Pal Singh, Pal Singh Sandhu of Punjab, Dr K Ravi Kumar of Telengana, Dr KVbhargava of Andhra Pradesh , Elora Bora of Assam, Sumita Dutta of Haryana and Chithra Sukumara of Kerala presented dances of their respective states to spread the message of unity, harmony and brotherhood .

On the occasion a large number of people witnessed the three days thought provoking sessions and enchanting cultural programs.

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