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Dragon Fruits’ cultivation in India

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Shrajal Dixit

The dreams of the Indian farmer’s, seems to have come true in connection with the farming of “Dragon Fruit”, presently grown in the tropical region of South America and Southern Mexico.

 

Two years back some of the farmers of Gorakhpur , a district of Uttar Pradesh in India had ventured to cultivate the fruit in the district and in adjoining areas.

Encouraged by the efforts of the farmers, the UP Chief Minister Yogi Aditynath had directed the Horticulture Department, for exploring the possibilities of farming of the fruits on commercial basis for enhancing their agricultural income.

The horticultural department under an ambitious scheme Uttar Pradesh Agricultural Growth and Rural Enterprise Ecosystem Project aided by World Bank has proposed the cultivation of the fruit in ninety Village Panchayats of selected eighteen villages of the state.

About 296 farmers who owned at least one acre or more than one acre of land in the selected villages would be given training for cultivating the fruit for commercial purposes using scientific methods of farming. The selected farmers would be given the plants of Dragon fruits free of cost.

Selected districts included Gorakhpur, Prayagraj, Kaushambhi, Sant kabir Nagar, Sultanpur, Jaunpur, Pratapgarh, Bara Banki, Varanasi, Amroha, Chandauli, Saharanpur, Bareilly, Shamli, Budaun, Hardoi, Aligarh, Shahjahanhpur.

Imported Dragon fruit is sold at rupees 125 to rupees 140 per piece market. Its cultivation here would not only enhance the production of the fruit but would also reduce its price here.

Beside it has many medicinal properties like it contains significant amount of pottasium, phosphorous and all source of vitamins, particularly known for it’s rich vitamin C and antioxidant content. It minimise cardiovascular heart problem and blood pressure.

“राम और श्याम” -सासण गिर के प्रसिद्ध शेर

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Dr. Rakesh Kumar Singh
एक साथ दो दर्जन से अधिक शावकों के साथ सासण गिर के जंगलों के बड़े भूभाग के साम्राज्य में विचरण करते और एशियाई शेरों की शानदार विरासत को आगे बढ़ाते “राम और श्याम” बब्बर शेर भारत के सर्वाधिक फोटोग्राफ किए गए शेर थे। विशेषकर राम को यह निर्विवाद दर्ज़ा प्राप्त था। राम और श्याम एशियाई शेरों के औसतन तीन वर्षों के साम्राज्य के विपरीत अपनी चपलता और बौद्धिक कौशलता से सात वर्षों तक सासण गिर के बड़े भूभाग पर काबिज रहे।

राम और श्याम वर्ष 2009 से 2016 तक सासण गिर के पर्यटन क्षेत्र में एकछत्र राज्य करते रहे। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन्हें विरोधियों का सामना नहीं करना पड़ता था। लेकिन हर बार अपने नए पैंतरों और अदम्य साहस से दोनों विरोधियों को धाराशाई कर देते थे। शेरों के सामान्य स्वभाव, जिसमें नर शेर अक्सर साथ-साथ अपने साम्राज्य की पेट्रोलिंग करते हैं, के विपरीत यह दोनों भाई एक दूसरे की विपरीत दिशा में जाकर अपने साम्राज्य की पेट्रोलिंग करते थे। जिससे कभी भी इनका क्षेत्र और समूह किसी भी तरफ से विरोधियों के लिए सुभेद्य नहीं रहता था।

राम को यह नाम उसके भाई श्याम के कारण मिला था। क्योंकि श्याम के अयाल ऊपर से अधिक काले थे इसीलिए वह श्याम और दूसरा भाई राम कहलाया। राम के माथे पर एक निशान था जिससे वह आसानी से पहचाना जा सकता था।
कहते हैं समय के साथ हर शक्तिशाली साम्राज्य ढह जाता है। राम और श्याम भी बढ़ती उम्र के साथ अपने साम्राज्य को संभालते रहे लेकिन नए युवाओं के लगातार आक्रमण भी होते रहे। प्रतिद्वंद्वियों द्वारा दोनों को सत्ता से बाहर करने के कई प्रयास किए गए लेकिन ऐसे सभी प्रयास विफल रहे। लेकिन इनके शासनकाल के अंत में, दो अन्य बब्बर शेर भाई, “रविराज और कविराज”, जो किसी अन्य क्षेत्र से आए थे, ने आंशिक रूप से इनके साम्राज्य के कुछ क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। राम की नवंबर 2016 में मृत्यु के पश्चात् श्याम की भी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। राम और श्याम का लगातार सात वर्षों तक सासण गिर पर एकछत्र राज्य आज भी अटूट कीर्तिमान है। साथ ही वे दोनों अपने पीछे वो शानदार और अविस्मरणीय विरासत छोड़ गए हैं जिसे सासण गिर के इतिहास में भुला पाना आसान नहीं होगा।

डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्य जीव विशेषज्ञ

कॉलरवाली बाघिन-“समय की रेत पर पंजों के निशान

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Dr. Rakesh Kumar Singh

पेंच टाइगर रिजर्व के परिक्षेत्र कर्माझिरी की कुंभादेव बीट के कक्ष 589 के विशाल दरख्तों से घिरे खुले मैदान में आकाश चूमती लपटें साक्षी बन रहीं थीं उस इतिहास की जो भारत के किसी भी बाघ अभ्यारण्य में कभी नहीं लिखा गया था। दिनांक 16 जनवरी 2022 को कॉलरवाली बाघिन की चिता से उठते धुँए के बीच पेंच के वे सब कर्मचारी, अधिकारी व स्थानीय आदिवासी डबडबाई आंखों से बाघों की उस विरासत को सलाम कर रहे थे जिसके वह स्वयं गवाह थे। हमेशा की तरह कॉलरवाली बाघिन ने अपनी मृत्यु के एक दिन पूर्व ही उन्हें अपने अस्वस्थ होने की सूचना खुले मैदान में आकर दे दी थी। वह जब भी अस्वस्थ या घायल होती थी तो खुले मैदान में आकर पेंच के उस वेटेरिनरी स्टाफ की प्रतीक्षा में बैठ जाती थी जो हमेशा इस स्थिति में उसकी सेवा करता था। कुछ ऐसा ही उसने अपनी मृत्यु के पूर्व भी अपनी मूक भाषा में प्रदर्शित किया था।

वर्ष 2005 में ‘बड़ी माँ’ बाघिन, जो बीबीसी की प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री ‘स्पाई इन द जंगल’ का मुख्य चरित्र थी, ने चार शावकों को जन्म दिया। जिसमें से एक शावक टी-15 आगे चलकर कॉलरवाली के नाम से प्रसिद्ध हुई। उसने अपनी माँ की विरासत को आगे बढ़ाया और आश्चर्यजनक रूप से अंतिम सांसों तक रुडयार्ड किपलिंग (जिन्होंने ‘द जंगल बुक’ के प्रसिद्ध चरित्र मोगली की कल्पना इन्हीं जंगलों में की थी) के जंगल की रिकॉर्ड अविवादित सम्राज्ञी बनी रही।

कॉलरवाली ने लगभग ढाई वर्ष की उम्र में प्रथम बार शावकों को जन्म दिया। परन्तु अनुभहीनतावश वह तीनों शावकों को नहीं बचा सकी। कहते हैं नियति सब कुछ सिखा देती है। मात्र पांच महीने बाद ही उसने पुनः चार शावकों को जन्म दिया और पिछले अनुभव के विपरीत सभी शावको को भली-भांति पाला। कॉलरवाली ने अपने जीवन में आठ बार में 29 शावकों को जन्म दिया जिसमें से 25 शावक अभी भी पेंच व पन्ना में कॉलरवाली के वंश को आगे बढ़ा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार कॉलरवाली की सन्तानों के बाद की पीढ़ियों के लगभग सौ बाघ उसके जीवित रहते इन जंगलों में घूम रहे थे।
कॉलरवाली को वर्ष 2008 में प्रथम बार रेडियो कॉलर पहनाया था, तभी से वह दर्शकों और कर्मचारियों के बीच कॉलरवाली के नाम से प्रसिद्ध हुई।

कॉलरवाली का अपने शावकों के प्रति समर्पण इस कदर झलकता था कि कभी-कभी तो उसे अपने शावकों के लिए दिन में दो-दो बार तक शिकार करना पड़ता था। अन्य बाघिनों के विपरीत कॉलरवाली अपने बच्चों को शिकार का हुनर सिखाने में अधिक चपल थी। यही कारण था कि वह अन्य बाघिनों की अपेक्षा अपने शावकों को अपेक्षाकृत कम उम्र में यानी कि औसतन अट्ठारह माह की आयु में ही शिकार से भरे क्षेत्र में स्वतंत्र छोड़ देती थी। तथा शीघ्र ही प्रजनन चक्र में आकर नए शावकों को जन्म देती थी। जबकि अन्य बाघिनों में प्रायः देखा जाता है कि वे दो से ढाई वर्ष के पश्चात ही अपने शावकों को स्वतंत्र करती हैं।

कॉलरवाली इस हद तक अपने शावकों के प्रति समर्पित थी कि एक बार शावकों के डेढ़ वर्ष पूर्ण होने से पूर्व ही जब वह पुनः माँ बनी तो उसपर अतिरिक्त जिम्मेदारी आ गई। लेकिन उसने इन दो बार प्रजनन के शावकों को न केवल अलग-अलग सफलतापूर्वक पाला बल्कि नए शावकों को पुराने शावकों से भी बचाकर रखा। अर्थात वह एक बार में दो जगह अलग-अलग अपने शावकों के दो समूहों को पाल रही थी। एक बार वह वर्ष 2015 में अपने शावकों की रक्षा करने में बुरी तरह घायल भी हुई और स्वतः खुले मैदान में आकर अपने इलाज के लिए वेटनरी स्टाफ व वन्य जीव चिकित्सक का इंतज़ार भी करने लगी थी।

कॉलरवाली ने कभी भी पेंच घूमने आए सैलानियों को निराश नहीं किया, वह सैलानियों की जिप्सी के पास तक आ जाती थी। उसका आकार इतना बड़ा था कि वन्यजीव विशेषज्ञ भी प्रथम दृष्ट्या उसे एक नर बाघ समझ बैठते थे। आज यह ‘सुपर मॉम’ पेंच टाइगर रिजर्व से भले ही विदा हो चुकी है। लेकिन रुडयार्ड किपलिंग की जंगल बुक में वह एक नया अध्याय अवश्य जोड़ गयी है। कॉलरवाली ने इन जंगलों के हर कोनों को अपने पंजों से छुआ और इन जंगलों को बहुत नज़दीकी से जिया है। धीरे-धीरे भले ही मोगली के साम्राज्य से उसके पंजों के निशान क्षीण हो जाएं पर समय की रेत पर जो निशान कॉलरवाली ने छोड़े हैं वह कभी भी मिट नहीं पाएंगे।

-डॉ. आरके सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, कवि एवम स्तम्भकार
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आभार- लेखक कॉलरवाली के सम्बंध में अमूल्य जानकारी उपलब्ध कराने हेतु डॉ अखिलेश मिश्रा, वन्यजीव चिकित्साधिकारी, पेंच टाइगर रिजर्व का सहृदय आभारी है ।

IIT Kanpur transfers ‘Munh-Parikshak: A non-invasive Oral Cancer detection device.

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G.P. VARMA

Kanpur, October 2024 : To facilitate widespread adoption and commercial success, Indian Institute of Technology Kanpur (IITK) has transferred its unique technology, ‘Munh Parikshak,’a portable device for detecting oral cancer, invented by Prof. Jayant Kumar Singh and his team from the Department of Chemical Engineering, to Scangenie Scientific Pvt. Ltd.

The device uses special lights and a camera to examine the mouth, providing instant results by analysing mouth images and categorizing them as normal, pre-cancerous, or cancerous. The results are displayed on a smartphone app and stored on cloud servers for continuous updates, making it ideal for self-testing.

The technology licensing agreement was formally signed between IIT Kanpur and Scangenie Scientific Pvt. Ltd. in the presence of Prof. Tarun Gupta, Dean of R and D, IITK; Prof. Ankush Sharma, Professor-in-Charge of SIIC, IITK; Prof. Amitabha Bandyopadhyay, Head of BSBE Dept, IITK; Dr. Prerana Singh, Head of Oral Pathology at MPDC and co-inventor; Prof. Jayant Kumar Singh, ChE Dept. And Inventor, IITK; and Mr. Dhirendra Singh, Licensee and Director of Scangenie Scientific.

Munh-Parikshak is a user-friendly device having white and fluorescence light source that connects wirelessly to smartphones, tablets, iPads, et with a built-in power backup, it stores health history for tracking and provides instant oral health reports. The device offers quick and painless screening with 90% accuracy in clinical settings. It is safe, radiation-free, and does not require any additional chemicals or processes.

Prof. Manindra Agrawal, Director of IIT Kanpur, said, “IIT Kanpur is working tirelessly to drive healthcare innovation and tackle critical health issues, and I am delighted to see our innovative technology, ‘Munh Parikshak,’ being transferred to Scangenie Scientific Pvt. Ltd. I extend my heartfelt congratulations to Prof. Jayant Kumar Singh and his team for their exceptional work. Their dedication has paved the way for this collaboration, which marks a pivotal step in the early detection of oral cancer, significantly enhancing health outcomes and demonstrating the profound impact of our research on society.”

Prof. Tarun Gupta, Dean of Research and Development at IIT Kanpur, remarked, “The signing of the MoU with Scangenie Scientific Pvt. Ltd. marks a significant milestone in our mission to transition research and development into commercially viable products. The institute’s licensing rate has also seen an increase, which motivates us to further support research across various fields. This MoU aims to effectively market our invention within the healthcare sector, ultimately affordable and beneficial to everyone.”

According to market research findings, the oral cancer diagnosis market is expected to reach $2.98 billion by 2032 with a 5% CAGR, while the rapid test kit market, currently at $736 million, is growing at a 7% CAGR until 2027. Oral cancer is among the top global cancers, posing economic and clinical burdens on healthcare systems worldwide, particularly impacting India, where it constitutes up to 40% of cases. Early detection is vital to reduce morbidity and mortality, driving the need for affordable, non-invasive, user-friendly diagnostic tools for widespread screening.

Through this strategic collaboration, IIT Kanpur and Scangenie Scientific Pvt. Ltd. will advance early cancer detection technology, improving healthcare outcomes and showcasing the impact of innovative solutions

• Munh-Parikshak is user-friendly device having white and fluorescence light source that connects wirelessly to smartphones, tablets, iPads, etc.
• The device offers quick and painless screening with 90% accuracy in clinical settings. It is safe, radiation-free, and does not require any additional chemicals or processes.

गुड मॉर्निंग सर, लेपर्ड ट्रांक्विलाइज़ड…..

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डॉ राकेश कुमार सिंह और डॉ एम सेम्मारन

31 दिसम्बर 2023/01 जनवरी 2024 नए वर्ष की मध्य रात्रि
स्थान: सोहेलवा वन्य जीव प्रभाग की बरहावा रेंज का गांव बेलवा

कई हेक्टेयर में सागौन के रोपित सघन पेड़ों पर से टपकती ओस की बूंदों की टिप-टिप के बीच पच्चीस फीट ऊंची मचान पर मुझे सहसा अहसास हुआ कि शायद नया साल अब तक दस्तक दे चुका होगा। लेकिन मोबाइल में समय देखने का मतलब था कि घुप्प अंधेरे में मचान पर रोशनी होना और अपने मेहमान यानी तेंदुए को अपनी उपस्थिति का अहसास करा देना। इसलिए मैंने मोबाइल को कम्बल के अंदर डाल कर टाइम देखा तो नये साल को आए हुए बारह मिनट हो चुके थे। कई रातों से मचान पर बैठने से मेरी आंखें नींद से बोझल हो रही थीं। शाम को ली पैरासिटामोल टैबलेट का असर भी अब कम होने से शरीर में हरारत के कारण कुछ थकावट का एहसास भी हो रहा था। भयानक ठंड के कारण मैंने कम्बल को और कसकर इस तरह लपेट लिया कि सिर्फ आंखें ही खुली रहें लेकिन शीत का आलम यह था कि मुंशी प्रेमचन्द की कहानी पूस की रात के नायक हल्कू की तरह मेरी भी नसों में लहू की जगह बर्फ ने ले ली थी। मैंने बगल में सो रहे अपने सहायक, जिसे मैंने मचान पर चढ़ते ही शाम छः बजे सोने को कह दिया था, को हौले से हिला कर उठाया ताकि मैं भी थोड़ी देर के लिए कमर सीधी कर सकूं।

यही कोई रात्रि का डेढ़ बजा रहा होगा कि मेरे सहायक ने मुझे झकझोरा “साहब बघवा बकरे के लई गवा”। मैं सहसा समझ नहीं पाया, लेकिन मुझे लगा कि मचान के नीचे कुछ हलचल है। अपनी डार्ट गन की दूरबीन से मैंने देखने की कोशिश की पर घुप्प अंधेरे में कुछ समझ नहीं आया। हां, एक दैत्याकार काला साया जरूर झाड़ियों में समाता सा लगा। मैंने देखा बकरा अभी भी सहमा सा झाड़ियों की तरफ देख रहा था। सुबह के हल्के अंधेरे में दिख रहे मचान के नीचे छपे तेंदुए के पंजे के निशान रात की कहानी स्वतः बयां कर रहे थे। मेरा मन एक बार फिर तेंदुए को इमोबिलाइज ना कर पाने से बैठ गया। आज नए वर्ष की रात भी मचान पर बिताने के बाद और तेंदुए से आंख मिचौली के छयालिस दिन व्यतीत हो जाने के बावजूद भी एक बार फिर शातिर तेंदुआ हमें चकमा देने में सफल रहा था।

17 नवंबर 2023
स्थान: आईजीआई एयरपोर्ट, नई दिल्ली

मेरे मोबाइल पर एक बार फिर चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन का तेंदुए को इमोबिलाइज या प्रचलित भाषा में ट्रांक्विलाइज़ करने का अनुमति पत्र अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था। रात में ही प्रभागीय वनाधिकारी, सोहेलवा वन्य जीव प्रभाग द्वारा दूरभाष पर बहुत दुखी होकर बताया गया था कि “तेंदुए द्वारा एक और…….”। चूंकि बलरामपुर में स्वयं वन विभाग के कई उच्चाधिकारी स्थिति की समीक्षा और रेस्क्यू ऑपरेशन की योजना हेतु बैठक कर रहे थे। अतः मैं सुबह सुबह ही बिजनौर से नई दिल्ली एयरपोर्ट पहुंच गया था।

नवंबर-दिसंबर 2023
स्थान: ग्राम बेलवा, बलरामपुर

कुल मिलाकर स्थिति यह थी कि बलरामपुर जिले के तुलसीपुर से कुछ किलोमीटर आगे बरहवा रेंज के दो गांवों लालनगर और बेलवा में तथाकथित मानव वन्य जीव संघर्ष की तीन घटनाएं लगभग ग्यारह दिनों के भीतर घटित हुई थी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सर्वप्रथम हमारी टीम द्वारा सभी उपलब्ध फोटो और उन जगहों को देखा गया जहां घटना घटित हुई थीं। दोनों गांव एक दूसरे से लगभग चार से पांच किलोमीटर दूर थे। दोनों गांवों में कई छोटे-छोटे बरसाती नाले थे जो कि एक दूसरे से मिलते हुए एक बड़े नाले भादीनवा में मिल जाते थे। मेरा अनुमान है कि इस नाले में भादों मास में सर्वाधिक पानी बहता होगा इसीलिए यह भादीनवा नाला कहलाता होगा। भादीनवा नाले के अंदर और दोनों तरफ घनी ऊंची झाड़ियों में बेहिसाब खरहे, नीलगाय और सियारों ने आशियाना बना रखा था और यदा-कदा जंगली बिल्ली और लकड़बग्घों के भी पगमार्क वहां मिल जाते थे। इन्हीं नालों और झाड़ियों के किनारे सागौन और नीलगिरी यानी यूकेलिप्टस की भी खेती बड़े पैमाने पर हो रही थी। जिससे कि यह पूरा वन क्षेत्र बन गया था। इन सबके बाद विस्तृत क्षेत्र में गन्ने और सरसों के खेत थे। इस प्रकार तेंदुए के लिए यह एक बहुत ही मुफीद जगह थी।
हमारी टीम ने इन्हीं नालों के किनारे अपने अभियान को केंद्रित किया। धीरे-धीरे हमने पाया कि अधिकतर बेलवा गांव के चारों ओर ही तेंदुओं के पंजे के निशान मिल रहे थे। इसलिए इसी गांव में एक खाली मैदान में एक पेड़ के नीचे ही टेंट लगा कर टीम ने अपना मुख्यालय बना लिया। इतने बड़े क्षेत्र में ट्रेकिंग के लिए एक अन्य वन्य जीव विशेषज्ञ की भी आवश्यकता को देखते हुए हमने अपनी टीम में डॉ दया शंकर और बंगाल के एक बाबू मोशाय जोकि थर्मल ड्रोन चलाने में माहिर थे, को भी शामिल कर लिया। तेंदुआ रेस्क्यू के लिए सिर्फ बेलवा गांव में ही छः पिंजड़े लगाए गए। लेकिन शातिर तेंदुआ प्रत्येक पिंजड़े के सामने आता रहा लेकिन किसी भी रात वह पिंजड़ों में नहीं घुसा। यहां तक कि एक रात थर्मल ड्रोन से देखने पर वह बाइस मिनट तक एक पिंजड़े के चारों ओर चक्कर लगाता रहा पर सुबह परिणाम वही ढाक के तीन पात।

हमारे किसी भी यत्न से वह पिंजड़े में बंद नहीं हुआ। इसलिए प्रभागीय वनाधिकारी डॉ एम सेम्मारन जोकि स्वयं भी वन्य जीव विशेषज्ञ हैं वहीं कैंप करने लगे। अब दिसंबर शुरू हो चुका था और दिन छोटे होने लगे थे। कभी-कभी तो पूरे दिन कोहरे की चादर हटने का नाम ही नहीं लेती थी। इसलिए रेस्क्यू ऑपरेशन में और कठिनाई आने लगी थी। ऐसे में टीम का हौसला बनाए रखना भी एक चुनौती होता है। लेकिन इसी बीच इतनी सतर्कता और गांव-गांव अवेयरनेस अभियान चलाने के बाद भी नजदीक ही तीसरे गांव में एक और अनहोनी घटित हो गई। हमारी टीम कई-कई रात भर तेंदुए के मूवमेंट के स्थान पर पुआल या झाड़ियों में छुपकर, अथवा कहीं खस के टाट के पीछे बैठकर तेंदुए को इमोबिलाइज, जिसे अधिकतर लोग ट्रांक्विलाइज़ कहते हैं, करने के लिए बैठी रही। यहां तक कि एक जिप्सी और एक कार को भी स्थानीय वनस्पति से ढककर उसमें बैठकर टीम तेंदुए को ट्रांक्विलाइज़ करने का इंतजार करती रही। लेकिन हर बार संभवतः तेंदुए को हमारी उपस्थिति का एहसास हो जाता था, क्योंकि प्रत्येक बार सुबह तेंदुए के पगमार्क हमारे छुपकर बैठने के स्थान से बस थोड़ा ही दूरी पर मिल जाते थे। हमें अब कुछ ऐसा करना था कि मानव शरीर की गंध और एक्टिविटीज का तेंदुए को पता न चले। इसीलिए हमारे द्वारा दो अन्य स्थान चिन्हित किए गए। पहला, वह मचान जिसपर हम कई रात से बैठ रहे थे; तथा दूसरा पास ही गन्ने का एक छोटा सा खेत।

2/3 जनवरी 2024 की रात
स्थान: बेलवा गांव का एक छोटा सा गन्ने का खेत

यह नाले से दो सौ मीटर दूर लगभग एक हेक्टेयर का खेत था। जिसके एक तरफ चकरोड थी और तीन तरफ से खाली खेत थे, जिन्हें कुछ दिन पूर्व ही ट्रैक्टर से जोता गया था। इस चकरोड पर भी हर पांच-छः दिन के एक निश्चित अंतराल पर तेंदुए के पगमार्क मिलते थे। योजना के अनुसार खेत को चारों दिशाओं से जाल से बांध कर घेर दिया गया और चकरोड की तरफ से केवल एक कोना खाली छोड़ दिया गया। क्योंकि आसपास के खेत खाली थे, अतः टीम को विश्वास था कि तेंदुआ शिकार को इसी कोने से खेत में छुपाने के लिए ले जायेगा। तेंदुए को देखने के लिए सीसीटीवी भी इसी कोने के सामने पेड़ पर लगा दिए गए थे। योजना को सफल बनाने के लिए भविष्य की प्रत्येक घट सकने वाली काल्पनिक स्थिति के अनुसार टीम के प्रत्येक सदस्य को स्पष्ट निर्देश था और तदनुसार रिहर्सल भी कर ली गई थी। तेंदुआ प्रत्येक पांचवे या छठे दिन इस चक रोड पर पेट्रोलिंग करता था। अतः टीम को विश्वास था कि आज रात वह मचान या इस खेत के पास अवश्य आएगा। इसलिए एक टीम मचान पर और एक खेत से उचित दूरी पर सरसों के खेत में कैमोफ्लेज किए ट्रैक्टर पर बैठी थी। और आज रात दोनों संभावित स्थिति में तुरंत मौके पर पहुंचने के लिए हम वन्य जीव विशेषज्ञ निकट ही टेंट में बैठे थे। सुबह का यही कोई पांच बज रहा था। मैंने टेंट से बाहर देखा चारों ओर जबरदस्त कोहरा छाया था और अंधेरे ने धरती को अभी भी आगोश में ले रखा था। मैं एक बार फिर कम्बल में पैर डालकर निराशा से सोचने लगा कि शायद आज रात फिर तेंदुआ चकमा दे गया। तभी मेरे फोन की घंटी घनघना उठी। “सर तेंदुआ शिकार को खेत में ले गया” उधर से एक फॉरेस्ट गार्ड की आवाज सुनाई दी।

योजना के अनुसार सभी लोगों ने वहां पहुंचकर चुपचाप खेत को उसी कोने से घेर लिया जहां जाल नहीं होने से तेंदुआ शिकार के साथ अंदर गया था। हमारी डार्टिंग टीम विपरीत कोने पर डार्ट गन लेकर तैयार थी। प्लान ये था कि मशाल जलाकर और टीन के कनस्तर बजाते हुए हांका टीम आगे बढ़ेगी। और डार्टिंग टीम विपरीत कोने में, घबराकर भागते तेंदुए के जाल से टकराते ही, उसे डार्ट फायर कर इमोबीलाइज कर देगी। लेकिन एक गड़बड़ हो गई जबरदस्त ओस के कारण हमारी मशालें भीग गई थीं और वे नहीं जली। बिना मशाल लिए खेत में हांका लगाकर तेंदुए को एक ही कोने तक पहुंचाना असंभव और बहुत जोखिम भरा था। अतः लोहे के जाल से ढके एक ट्रैक्टर को लेकर एक टीम खेत में हांका लगाने घुसी। और डार्ट टीम एक बार फिर तेंदुए के भागकर खेत से निकलने वाले संभावित विपरीत दो कोनों पर मुस्तैद पोजिशन में थी। तेंदुए ने पहला प्रयास जिस कोने से किया वहां का जाल नहीं गिरा और पलक झपकते ही वह ओझल हो गया। एक बार फिर हांका टीम आगे बढ़ी, इस बार तेंदुए ने दूसरे कोने से प्रयास किया और जाल का कुछ हिस्सा ही उसपर गिर सका। वहां स्थित टीम ने उसे डार्ट करना चाहा पर अंधेरे में दौड़-भाग कर रहे तेंदुए पर वह डार्ट सिरिंज नहीं लगी। अब हमारे पास दूसरी गन में एक डार्ट ही बची थी। इसलिए हमें इस प्रकार डार्ट करना था कि चूक ना हो। अन्यथा अगले प्रयास में तेंदुआ जंप मारकर खेत से बाहर निकल सकता था।

क्योंकि तेंदुए के टकराने से जाल ढीला पड़ रहा था और डार्ट के लगते ही तेंदुआ स्वाभाविक प्रवृत्ति से डार्ट करने वाले पर जरूर चार्ज करता है। अतः डार्ट गन लेकर मैने टीम के साथ स्वयं को लगभग दस मीटर दूर पोजिशन किया जिससे कि लूज जाल में जब तेंदुआ चार्ज करे तो हम बच सकें। पूर्व के हमारे कई रेस्क्यू अनुभवों के अनुसार इस बार तेंदुआ जाल से निकलने के लिए अवश्य ऊपर उर्धवाधर यानी वर्टिकल जंप करने वाला था। और यह ऐसा समय होता है जब उसका पूरा शरीर बिना किसी अवरोध के हवा में आपके सामने होता है। और हमें उसी समय गन्नों और कुछ झाड़ियों से बचाते हुए डार्ट सिरिंज को तेंदुए की जांघों पर पहुंचाना होता है। सटीक अनुमान के मुताबिक इस बार तेंदुए ने बाहर निकलने के लिए वर्टिकल जंप लिया और पहले से ही पोजिशन लिए होने के कारण ट्रिगर दबाते ही दवा से भरी डार्ट सिरिंज तेंदुए की जांघों में समा गई। एक दिल को दहला देने वाली गर्जना के साथ ही तेंदुए ने चार्ज कर दिया। ताजे जुते हुए खेतों के कारण मैं ठीक से पिछड़ नहीं सका और पीठ के बल नीचे गिर गया। पर उचित दूरी होने के कारण हम सब सुरक्षित थे।

इस बीच गांव के भी लोग वहां इकट्ठे हो गए थे लेकिन उनके जबरदस्त शोर के कारण तेंदुए पर दवा का असर धीरे-धीरे हो पा रहा था। इसलिए तेंदुए पर किसी तरह दूर से जाल फेंक कर डाला गया और उसके नजदीक जाकर एक बार फिर दवा की हल्की डोज सामान्य सिरिंज से देनी पड़ी। तेंदुए को पिंजड़े में रखकर भीड़ से बचाते हुए किसी तरह हम प्रभागीय वनाधिकारी के नेतृत्व में गांव से बाहर निकले। कुछ ही देर में तुलसीपुर में प्रसिद्ध शक्तिपीठ मां पाटेश्वरी मंदिर के सामने से गुजरते हुए मुझे याद आया कि इस रेस्क्यू ऑपरेशन को शुरू करते समय उच्चाधिकारियों के साथ समस्त टीम ने अभियान की सफलता के लिए प्रार्थना की थी। मैंने शीश झुकाकर मन ही मन इस सफल रेस्क्यू ऑपरेशन के लिए देवी मां को धन्यवाद दिया। पिंजड़े में होश में आ रहा तेंदुआ अब अपलक मुझे देख रहा था। दूर क्षितिज पर सूरज की किरणें कोहरे को चीरने का प्रयास करते हुए एक नए सबेरे का संदेश दे रही थीं। प्रभागीय वनाधिकारी और मैं अपने मोबाइल फोन पर उच्चाधिकारियों को टेक्स्ट मैसेज कर रहे थे, “गुड मॉर्निंग सर, लेपर्ड ट्रांक्विलाइज़ड…..”

डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्य जीव विशेषज्ञ

एक अंधा तेंदुआ शावक

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डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्य जीव विशेषज्ञ, साहित्यकार एवम कवि

माँ मुझे बचा लो, मां तुम कुछ बोलती क्यों नहीं, तुम कहाँ हो मां, मुझे कुछ भी दिखाई क्यों नहीं पड़ रहा, मेरे छोटे भाई-बहन की आवाज़ क्यों नहीं आ रही, मुझे ये लोग मार डालेंगे मां।“ शायद यही शब्द निकलते नन्हे शेरू के मुख से, यदि उस बेज़ुबान तेंदुए शावक के पास बोलने की क्षमता होती। ठीक पांच वर्ष पहले मई 2019 में जब एक छोटे से लगभग पांच से छः माह के तेंदुए शावक को पिंजरे से निकाला जा रहा था तो जैसे उसे कुछ सूझ ही नहीं रह था। एक पिंजरे से दूसरे पिंजरे में जाते समय वह पिंजरे की सलाखों से टकरा रहा था। उसकी गर्दन झुकी हुई थी और उसका सिर लगातार हिल रहा था। उसकी आंखों के सामने हाथ हिलाने पर उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। जी हाँ, आपका सोचना सही है। निर्दोष शावक अंधा हो चुका था, उसे खतरनाक स्तर तक अंदरूनी चोटें आई थीं। यहां तक कि उसके सिर की गतिविधियां तक उसके स्वयं के नियंत्रण में नहीं थीं। वह दर्द से कराह रहा था। उस दिन मैंने देखा कि किस प्रकार बेरहम इंसानों ने एक निर्दोष की इतनी बुरी हालत कर दी है । सचमुच उसकी आँखों में रोशनी नहीं आँसू थे।

किसी तरह मासूम शावक को पिंजरे में रखकर अस्पताल लाया गया। उसकी तेजी से चल रही सांसे और बढ़ी हुई धड़कनें इशारा कर रही थीं कि वह किस कदर डरा हुआ है। पिंजरे के अंदर उसे इलाज़ के लिए कसना (मांसाहारी वन्यजीवों को उपचार हेतु स्क़वीज़र पिंजरे में कस दिए जाने से वह हिल नहीं पाता व आसानी से उपचार किया जा सकता है) सम्भव नहीं था क्योंकि अंदरूनी चोटों से वह भयानक पीढ़ा महसूस कर रहा था। शावक इतना छोटा भी नहीं था कि उसे पिंजरे से बाहर निकाल कर इलाज़ किया जा सके।

शावक का दर्द बढ़ता जा रहा था। मैं जानता था यदि उसे उपचार न मिला तो भयंकर पीढ़ा उसकी जान ले लेगी। तभी हमें लगा कि शावक आँखों की रोशनी तो खो ही चुका है। ऐसे में यदि उसके पिछले पैरों को पकड़ के तुरंत तेजी से इंजेक्शन लगा दिये जाएं तो उसके आत्म रक्षक वार से बचा जा सकता है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि इस उम्र के तेंदुए शावक के नाखून व दांत काफी विकसित हो चुके होते हैं और उनके एक वार से खून की धारा बह सकती है। मैंने अविलम्ब सावधानी से उसके पिछले पांव को खींच कर दर्दनिवारक दवा उसकी मांसपेशियों में पहुंचा दी।

शावक को सम्भवतः लाठी डंडे से पीटा गया था। ऐसे में आवश्यक था कि शावक को एकांत में रखकर मनुष्य की आवाज़ से दूर रखा जाए जिससे कि उसके अंदर से मनुष्य के प्रति नफरत व डर दोनों कम हों। शावक को पिंजरे में एकांत में रखकर एक पर्दे से ढक दिया गया। उसके डिहाइड्रेशन का स्तर काफी अधिक हो चुका था। वह कुछ भी खा-पी सकने में असमर्थ था। किसी तरह मैंने व अन्य चिकित्सकों ने उसकी पूंछ से उसे एक बोतल डेक्सट्रोज चढ़ाया।

अगले दिन भी शावक निढाल पड़ा था। शावक ने खाना तो दूर, पानी भी नहीं पिया। तमाम प्रयासों के बावजूद शावक की हालत बिगड़ने लगी। उसके सिर का हिलना और बढ़ गया। वह बार-बार गिर पड़ रहा था। यदि उसने मुंह से खाना नहीं खाया तो मुश्किलें और बढ़ सकती थीं। ऐसे में जब-जब शावक मुंह खोलता तो एक सीरिंज में चिकेन का शोरबा भरकर उसके मुंह में पिचकारी के रूप में पहुंचाया जाने लगा। यह कार्य अत्यंत थकाने वाला था। लेकिन शावक की हालत देखकर हम सब पुनः-पुनः प्रयास करते रहे। कभी-कभी मुझे स्वयं लगा कि यह सब मेहनत व्यर्थ होने वाली है। लेकिन मासूम शावक की बेजान आंखें जैसे कुछ कह रही होती थीं। कई दिनों तक यही सिलसिला बदस्तूर चलता रहा। इससे इतना ज़रूर हुआ कि शावक की हालत स्थिर होने लगी।

लेकिन सिर्फ दवाओं व शोरबे के सहारे किसी मरीज को लम्बे समय तक ज़िंदा रख पाना सम्भव नहीं था। हमें कुछ न कुछ करना था कि वह मांस के टुकड़े खाये। परन्तु शावक के मुंह खोलते ही उसके मुंह में मांस के टुकड़े फेंकने पर भी वह उसके मुंह से गिर जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वह खाना तो चाहता है परंतु उसका अपने मुंह की मांसपेशियों पर नियंत्रण न होने से टुकड़े खुद-ब-खुद गिर पड़ते हैं। तय हुआ कि इससे भी छोटे मांस के टुकड़ों को उसके अंधेपन का फायदा उठा कर पास से मुंह में इस प्रकार फेंका जाए कि वह उसके गले तक सीधा पहुंचे। यह कार्य जोखिम भरा था क्योंकि शावक इतना छोटा भी नहीं था कि उसके दांतों से चोट न पहुंचे। कई प्रयासों के बाद कुछ टुकड़े उसके गले तक पहुंचे व उन्हें वह निगलने भी लगा। अब उसे सीरिंज से पानी व शोरबा पिलाना और जब वह मुंह खोले तो गले तक किसी तरह मांस के टुकड़े फेंक कर पहुंचाना, प्रतिदिन का कार्य हो गया।

शावक अब समझने लगा था कि यह सब उसे बचाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। अब वह स्वयं हम सबकी आवाज़ से मुंह खोलने का प्रयास करने लगा था। परन्तु अकसर उसके मुंह से मांस के टुकड़े गिर पड़ते थे। जिन्हें वह अंधा शावक जब ढूंढने का प्रयास करता था, तो सबकी आंखें नम हो जाती थीं। इसलिए यह प्रक्रिया दिन में कई घण्टे करनी पड़ती थी। उसके इस नाज़ुक हालत में भी रोग से लड़ने के जज़्बे को देखते हुए सब उसे शेरू बुलाने लगे। कुछ ही दिनों में वह अपने नाम पर प्रतिक्रिया भी देने लगा। एक दिन अनजाने में मेरा हाथ उसके मुंह के पास रह गया तो वह उसे चाटने लगा। यही प्रक्रिया उसने अपने कीपर के साथ की और उससे पिंजरे के बाहर पंजे निकाल कर घावों पर अब मरहम भी लगवाने लगा था।

शेरू ठीक तो हो रहा था। लेकिन एक अंधा तेंदुआ पूरा जीवन कैसे जिएगा यह यक्ष प्रश्न मुझे बार-बार परेशानी में डाल देता था। उसकी आँखों में तमाम दवाइयों को डालने से भी कोई खास फर्क नज़र नहीं आ रहा था। हाँ, इतना अवश्य था कि वह आवाज़ की दिशा में देखने का प्रयास करता था। अंधेरे में टार्च की रोशनी की ओर वह आंखें घुमाने लगा था। तभी मेरे एक विचार आया कि शावक की आँखों की ज्योति जाने का कारण आंखों की नसों का क्षतिग्रस्त होना हो सकता है। केवल दवाओं से रोशनी वापस आना सम्भव न था। अतः तय हुआ कि शेरू की आंखों के सामने पिंजरे के बाहर से चुटकी बजाते हुए इधर उधर घूमा जाये। ताकि आवाज़ की दिशा में देखने के प्रयास में उसके आंखों की कसरत हो सके। यह प्रक्रिया काम करने लगी। धीरे-धीरे शेरू के आंखों की रोशनी लौटने लगी। इसका यह भी फायदा हुआ कि वह किसी तरह अपना खाना पानी भी स्वयं लेने लगा।

अब शेरू की 80 प्रतिशत से अधिक ज्योति वापस आ चुकी है। शेरू को समय ने एकदम शांत और एकांतवासी बना दिया है। सभी तेंदुओं के स्वभाव के विपरीत वह किसी को देखकर कभी भी गुर्राता नहीं। शेरू ने स्वयं को ठीक करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसने कभी हमें अनावश्यक परेशान नहीं किया। यहां तक कि वह इंजेक्शन भी बड़ी आसानी से लगवा लेता था। अब वह केवल उन्हीं लोगों के बुलाने पर आता है, जो उसके इलाज के समय उसके पास रहे। लेकिन किसी अनजान को देखते ही छिप जाना, स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है कि वह कुछ अनजान क्रूर हाथों की उन हरकतों को अभी भी भूला नहीं सका है।

आज शेरू व्यस्क हो गया है। लेकिन उसके और मेरे बीच का यह अटूट बन्धन और मेरे प्रति शेरू का स्नेह तथा उसकी आँखों में भरी कृतज्ञता को शब्दों में व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं है।
वह शेरू जिसे आज जंगल की पगडंडियों को नापना था। वह शेरू जिसे अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करना था। वह शेरू जो एक ही वार में अपने से दोगुने शिकार को धराशायी कर सकता था। वह शेरू जिसे आज उन्मुक्त विचरण करना था। वह आज उम्रभर सलाखों के पीछे किसी अन्य के दिये मांस के टुकड़ों पर निर्भर है। यह वह न्याय है जहां न चाहते हुए भी सजा बेगुनाह को मिलती है और मुलजिम आज़ाद घूमते हैं।

महाराणा प्रताप

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-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, स्तम्भकार एवम कवि

पंद्रह सौ छिहत्त्तर का वो संग्राम निराला था।
भारत माँ के सपूत को आक्रांताओं ने ललकारा था।
चेतक पर सवार था महाराणा, हाथ में उसके भाला था।
नाहर सी गर्जन थी उसकी, आंख में जैसे शोला था।१।

बरछी, भाला और कटार से वो बचपन से खेला था।
उदय और जयवंता का कीका, कुम्भलगढ़ का बड़ा दुलारा था।
पल भर में घोड़े पर चढ़कर, ओझल हो जाना उसको आता था।
गऊ-माता के लिए प्रताप, सिंह से भी लड़ जाता था।२।

सैंतीस सेर का केसरिया बाना, उसपर बड़ा सुहाता था।
चमक उठती थी बिजली, जब वो चेतक संग दौड़ लगाता था।
बिछती थीं लाशें रण में, जब वो तलवार चलाता था।
भाले से सौ गज दूर, गज को भी वो मार गिराता था।३।

दस-दस पर, वो अकेला ही भारी पड़ जाता था।
बत्तीस वर्ष की आयु में, वो महाराणा कहलाया था।
मैं मेवाड़ नहीं दूंगा, ये आक्रांताओं को धमकाया था।
जंगल-जंगल भटका था वो, पर न शीश झुकाया था।४।

जय-भवानी का नारा, रण में उसने लगाया था।
भीलों की सेना लेकर, उसने आक्रांताओं को खूब छकाया था।
लगा कर चेतक की एड़, वो हाथी पर चढ़ आया था।
भय से मानसिंह ने उसदिन, खुदको हौदे में छुपाया था।५।

घायल प्रताप को लहूलुहान चेतक ने पार लगाया था।
अपने प्राण देकर भी, चेतक ने प्रताप को सम्मान दिलाया था।
हल्दीघाटी में उस दिन, प्रताप ने आक्रांताओं को पाठ पढ़ाया था।
फिर कभी मेवाड़ पर, आक्रांताओं ने रौब नहीं दिखलाया था।६।

छापामार युद्ध कर प्रताप ने, कई किलों को अधीन बनाया था।
राजपुताना को गौरव, महाराणा ने फिर से दिलवाया था।
हल्दीघाटी का युद्ध, अब भी हमको याद दिलाता है।
मातृभूमि के लिए कैसे रण में, रक्त बहाया जाता है।७।

अमर हो गया प्रताप, खाकर सौगन्ध राजपूताने की।
दे गया सन्देश हमें वो, मातृभूमि के लिए मर जाने की।
भारत-भूमि के उस लाल को, आज हम शीश नवाते हैं।
रखेंगे अखण्ड भारत को, ये सौगन्ध हम खाते हैं।८।

-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, स्तम्भकार एवम कवि

कॉलेज लाइफ के वो यादगार दिन

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डॉ राकेश कुमार सिंह,वन्यजीव विशेषज्ञ
“नाइंटी” (नब्बे डिग्री झुककर नमस्कार करना) हॉस्टल में पहला कदम रखते ही एक कड़कती आवाज़ ने मेरा स्वागत किया। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता कई शानदार उपमाओं से मुझे नवाज़ दिया गया। मुझे समझ ही नहीं आया, या पंतनगर की भाषा में कहें तो “मैं कंफ्यूजिया गया” कि ऐसे खूबसूरत शब्दों से किसे और क्यूँ बुलाया जा रहा है। तभी पीछे से आवाज़ आई “….. तुझे ही बुला रहे हैं”। ऐसा अनुभव तो ज़िन्दगी में कभी हुआ ही नहीं था। मैंने पूछा “भाई साब क्या बात है क्यूँ……दे रहे हो”। बस इसके बाद तो मेरे ऊपर उपमाओं की बौछार होने लगी। “…. सीनियर हैं तेरे, सर नमस्कार बोल”। अजीब बात थी ऐसा पहली बार देखा कि कोई अजनबी खुद को नमस्ते करवा रहा था वो भी जबर्दस्ती। तभी मुझे समझ आ गया कि यह सब वही है जिसका सामना कॉलेज में नया दाखिला लेने पर हर विद्यार्थी को करना पड़ता है और जिसके बारे में अब तक फिल्मों मे देखा या अख़बारों मे ही पढ़ा था। अब मेरे होश फाख्ता होने लगे। मरता क्या ना करता पूछ बैठा “सर ‘नाइंटी’ क्या होता है”।

मुझे आज भी गर्व होता है कि सबसे कड़क सीनियर ने तुरंत मुझे ही “नाइंटी” मार के दिखाई। यह देख कर मुझे हंसी आना स्वाभाविक था। और वही हुआ जो पन्तनगर की भाषा में मुस्की मारने यानी दबी हंसी पर होता है। अब तो मुस्कुराने पर ही एक नई कविता रटाई जाने लगी। कितने सुंदर शब्द थे, “मुस्की मारी……”। फिलहाल बड़ी मुश्किल से पीछा छूटा।
हॉस्टल की रियर विङ्ग मे पहुँचते ही नई उपमाओं ने एक बार फिर मेरे कर्ण को भेदा। अब एक नये प्रकार के अभिवादन “एट्टी” (जमीन पर लेटकर दंडवत प्रणाम) हेतु शब्द बाणों ने स्वागत किया। क्या-क्या एक ही दिन में सिखाया जा रहा था। जो भी सीनियर मिलता वही तरह-तरह का ज्ञान, उपमाएं, कवितायें, गाने सिखाये जा रहा था।

अब तक यह समझ आ गया था कि अगले एक या दो माह थर्ड बटन (सिर झुकाकर कमीज की तीसरी बटन देखते हुए) ही चलना है। सामने से भले ही हॉस्टल का कुकुर भी आ जाए बस “नाइंटी” मारो आगे बढ़ो और कुछ बोलो नहीं क्योंकि सीनियर लोग बता ही चुके थे कि “पंतनगर वह बस्ती है…..”। एक चीज बहुत मजेदार नोट करी थी कि उस दौरान कैफे वाले भी मजे लेने के लिए अक्सर हॉस्टल की गैलरी में घूमा करते थे और जाने अनजाने हम लोग उन्हें भी “नाइंटी” मार दिया करते थे। ये हाल केवल नए घोड़ों (वेटरनरी कॉलेज) का ही नहीं था, हथौड़ों (टेक्नोलॉजी कॉलेज), मछलियों (फिशरीज कॉलेज) और नए खुरपों (एग्रीकल्चर कॉलेज) को भी यही सब सुंदर आनंद दायक ज्ञान दिया जा रहा था। यहां तक कि पंतनगर का पिन कोड “263145”, जिसमें एक से लेकर छः तक के सभी नंबर थे, रटाए जा रहे थे।
जो भी हो उन शुरूआती दिनों का मज़ा ही अलग था। धीरे-धीरे यह सब सामान्य व आनंद दायक लगने लगा। हाँ, “एट्टी” मारने पर कपड़े गंदा हो जाना स्वाभाविक था तो सीनियर पांच रुपए कपड़े धुलवाने का ज़रूर देते थे। फिर तो जितने सीनियर दिखे भले ही वो “नाइंटी” कि अपेक्षा करें हम “एट्टी” से अभिवादन करते थे। जिससे शाम तक 50 से 60 रूपये आसानी से इकट्ठे हो जाते थे।


उस दिन वर्ष 2018 में 23 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद जब एक बार पुनः वाइल्ड लाइफ पर एक गेस्ट लेक्चर देने हेतु मुझे मेरे अल्मा मेटर बुलाया गया तो मैं तुरंत सहर्ष तैयार हो गया था। और पंत नगर स्टेशन पर उतरते ही यादों की खूबसूरत दुनिया में खो गया। लगा कि अभी हॉस्टल पहुंच कर कॉलेज क्लास जाना है। पहले पंतनगर छोटी लाइन का छोटा सा लेकिन बहुत आकर्षक व प्रकृति से भरपूर स्टेशन हुआ करता था। जिसे देखकर मुझे मालगुडी डेज के मालगुडी स्टेशन की कल्पना होती थी। लेकिन अब यह एक बड़ी लाइन का बड़ा स्टेशन हो चुका है और इसके दोनों तरफ घनी बस्ती बस गई हैं। नगला की कई दुकानें अभी भी वैसी ही थीं। उस दौरान अधिकतर छात्र छात्राएं आगरा फोर्ट एक्सप्रेस या नैनीताल एक्सप्रेस, जिसे ‘एनटी’ नाम से जाना जाता था, से ही आते-जाते थे। हल्दी स्टेशन 1995 में शुरू हुआ था।

मैंने पहले ही मुझे स्टेशन से लेने के लिए कोई भी गाड़ी न भेजने का अनुरोध कर दिया था। पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए मैंने एक रिक्शा किया और उस रिक्शे से धीरे-धीरे अंदर जाने लगा। कुछ मीठी यादें, कुछ सुनहरे पल और वो पुराने दोस्त अचानक मस्तिष्क पटल पर उभर आए जब मैंने अपने अल्मा मेटर के उस विशाल परिसर में प्रवेश किया। मेरे अंदर कदम रखते ही फिशरीज कॉलेज के सामने लेटर बॉक्स अभी भी उसी जगह खड़ा था मानो पुरानी यादें लिए हुए मेरा इंतजार कर रहा हो। इन सड़कों पर दोस्तों के साथ बिताए पलों की कीमत सही मायने में उस दिन महसूस हुई थी। मीनाक्षी भवन के सामने खेतों को देखकर याद आया कि फर्स्ट ईयर में फौडर प्रोडक्शन के लिए हम लोगों ने स्वयं यहां बरसीम की खेती की थी। पंतनगर की हरियाली अभी भी उसी तरह हमारी यादों को संजोए खड़ी थी। रिक्शा वाला रिक्शे को सीधे लाइब्रेरी की तरफ ले जाने लगा तो मैंने उसे कब्रिस्तान तरफ वाले रास्ते से आगे बढ़ने के लिए कहा। क्योंकि जब हम लोग घर से लौटते थे तो अक्सर इसी रास्ते से रिक्शा जाया करता था। इस कब्रिस्तान पर भी रात के सन्नाटे में कई बार कोल्ड ड्रिंक्स की शर्त लगने पर हम लोग आए थे।

उस दिन हवा के सुहावने झोंके के साथ मैं पंत नगर में बिताए यादगार पलों में इतना खो गया था कि पता ही नहीं चला कि कब पैदल गेस्ट हाउस पहुंच गया। इससे पहले मैंने छोटी मार्केट के पास रिक्शे वाले से कहा था कि “मैं यहां से पैदल चलकर गेस्ट हाउस जाना चाहता हूं क्योंकि मैं आज अपने कॉलेज लाइफ के उन सुनहरे पलों को पूरी तरह से जीना चाहता हूं जो किसकी भी जिंदगी के सबसे खूबसूरत पल होते हैं”। इतने वर्ष बीतने के बाद भी ऐसा लग रहा है जैसे कल ही की तो बात थी।

छोटी मार्केट के आगे पहुंचने पर लाल रंग के वह हॉस्टल अभी भी जैसे हमारी यादों को समेटे हमारा इंतजार कर रहे थे। पर कुछ छात्रावासों का रंग बदल भी दिया गया था। मन कर रहा था कि सिर्फ मैं ही नहीं, उस समय के सारे छात्र छात्राएं जो इस यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे, एक बार सब आ जाएं। और एक दिन कम से कम वैसा ही जी लें, जो हमने नब्बे के दशक के पूर्वार्ध में जिया था।


बात 1990 की है जब मेरा सलेक्शन पंतनगर वेटेरिनरी कॉलेज में हुआ था। पर पंतनगर में उस समय चल रही साइने डाई (अनिश्चित कालीन बंद) के कारण हमारी क्लासेज 4 फरवरी 1991 से ही प्रारम्भ हो सकीं। सेशन लेट शुरू होने से सेशन को बहुत ही अधिक कंडेंस यानी मात्र तीन माह का कर दिया गया था। सुबह 9 बजे से शाम 5.30 तक पशु चिकित्सा विज्ञान महाविद्यालय में ही गुजरने लगा। शुरुआत में शाम को नेहरू भवन भूत बंगला लगने लगता था क्योंकि सभी नए विद्यार्थी सीनियर्स द्वारा जबर्दस्ती बांटे जा रहे तथाकथित प्रेम भरे ज्ञान से बचने के लिए लाइब्रेरी, गेस्ट हाउस, नगला या CRC (crop research centre) या LRC (livestock research centre) की शरण ले लेते थे।

इंटरनेशनल गेस्ट हाउस में शाम को छिपकर बैठने पर यदि कोई सीनियर दिख गया तो नजरें झुका कर अखबार पढ़ना या फिर नजरें चुराकर टॉयलेट में चले जाना एक नियमित प्रक्रिया सी बनती जा रही थी। और हां वहां मैंने नोट किया कि वहां मैं अकेला ही ऐसा नहीं था। वहां पर बहुत सारे चेहरे प्रतिदिन दिखाई पड़ने लगे मैं समझ गया कि यह सब भी मेरे जैसे ही भाई बंधु हैं।

रात को खाने के समय ही कुछ नवागन्तुक छात्र हॉस्टल की कैफेटेरिया में प्रकट होते थे। वो भी सभी की कोशिश रहती थी कि किसी तरह 9:30 बजे के बाद पहुंचा जाए जब कैफेटेरिया बंद होने का समय होता है, और चुपचाप खाना खाकर अपने कमरे में भागा जाए। आलम यह था कि अगर दरवाजे पर हवा का झोंका भी आ जाए तो बस ऐसा लगता था कि अब पूरी रात थर्ड बटन कटने वाली है। सेकंड ईयर के छात्र फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे और “क्लीन शेव बैच” के नए छात्र ग्राउंड फ्लोर पर। ऐसे में सीढी से किसीके भी उतरने की पद चाप दिल में सिहरन पैदा कर देती थी। लगता था कि अब कोई न कोई आकर ज्ञान बांटेगा। कभी-कभी तो पूरी रात ट्रेन का ड्राइवर बनकर हरिद्वार से देहरादून के बीच ट्रेन चलानी पड़ती थी। पूरी रात हररईवाला भररईवाला डोईवाला रायपुर होते हुए देहरादून तक ट्रेन चलाओ। और एक दिन तो पूरा बैच ही बिना रेलवे लाईन के पोल्ट्री फार्म की मुर्गियों के बीच ट्रेन चला रहा था। ये बात अलग है कि आज तक मुझे रेलवे टाइम टेबल में “नगला एक्सप्रेस” कहीं नहीं मिली ना ही इंडियन रेलवे ने उस ट्रेन को कभी चलाया है। लेकिन वह ट्रेन चली बहुत तेज थी।

हॉस्टल की नई जिंदगी कुछ गुदगुदाती, कुछ मुस्कुराती और सीनियरों से छुपती छुपाती आगे बढ़ रही थी। हां, वहीं जाकर पता चला कि “एडी, सीडी” भी कुछ होता है। इसी दौरान कुछ सीनियर्स मुझे सुभाष भवन (एग्रीकल्चर कॉलेज का हॉस्टल) ले गए और वहां जबरदस्त तथाकथित प्रेम भरा इंट्रोडक्शन लिया गया। अब नए छात्र सोच रहे होंगे कि सुभाष भवन तो गर्ल्स हॉस्टल है, तो मुझे वहां कौन पकड़ ले गया। उस समय केवल सरोजिनी और कस्तूरबा भवन ही गर्ल्स हॉस्टल होते थे तथा गांधी भवन और सुभाष भवन में BSc Ag के ब्वॉयज छात्र रहते थे।

गांधी हॉल ऑडिटोरियम में फ्रेशर फंक्शन में गूंजता विश्व विद्यालय गान “जय हो नव युग निधि की जय हो….” आज भी पूरी तरह कंठस्थ है। हां, फ्रेशर फंक्शन के बाद से वह गेस्ट हाउस में जाना और रात को सीनियर से बचने की कोशिश करना सब बंद हो गया। मगर ऐसा लगने लगा कि उसका भी एक अलग ही मजा था। नए तरीके के विषय, लैब और एक से एक विद्वान प्रोफेसर, इन सबमें जिंदगी घुलने मिलने सी लगी थी। एक चीज तो है यूनिवर्सिटी के अधिकतर शिक्षक गजब की नॉलेज रखते थे और छात्रों को सीखाने में जी तोड़ मेहनत करते थे। पहली क्लास बायोकेमिस्ट्री की थी। जिसकी याद आज भी मन को उन खूबसूरत दिनों में खींच ले जाती है। एक और मजेदार बात थी पंतनगर में एग्जाम तो कभी हुआ ही नहीं “आवरली” (एक घंटे के एग्जाम को पंतनगर में hourly कहते थे) ही हुईं। फर्स्ट सेमेस्टर में सभी छात्र लाइब्रेरी से पुस्तकें लेने की जल्दीबाजी में लग गए। लेकिन फाइनल एग्जाम तक समझ आ गया कि बस नोट्स ही पर्याप्त हैं। एक विषय में तो मात्र डेढ़ पेज के लिखे हुए को पढ़कर आवर्ली देना नया अनुभव था।

कुछ नए छात्रों में जबरदस्त होम सिकनेस थी। और कुछ तो ऐसे घुटे हुए थे कि ऐसा लग रहा था जैसे कि हॉस्टल में आकर ज्यादा स्वतंत्र और ज्यादा आबाद हो गए हैं। उस साल होली 1 मार्च को थी और 26 फरवरी को ही ज्यादातर छात्र अपने घरों को रवाना हो रहे थे। हां, उस दिन हॉस्टल में एक गाना बहुत बज रहा था, जो आज भी मेरे कानों में घूमता रहता है, “रंग लेके दीवाने आ गए…..होली के बहाने या गए….”। और उस पर नाचते झूमते हॉस्टल की पहली होली सबने खेली थी। हॉस्टल से पहली बार घर जाना सभी के लिए एक न भूलने वाला अनुभव होता है। लेकिन हमारे बैच में एक महान आत्मा थी जो त्यौहारों पर भी अकेले ही हॉस्टल में रहना पसंद करता था। एक बार तो उसके कमरे की हम सबने ज़बरदस्ती सफाई करवाई तो पूरे तख्त के नीचे कई किलो मूंगफली के छिलके फेंके हुए थे। एक बात थी, वह गजब की मेमोरी रखता था और अपने कमरे में हाथ पर बोर्नविटा रखकर चाटता था। मगर था बड़ा नेकदिल और सहज स्वभाव वाला।


हालांकि यूनिवर्सिटी के गांधी हॉल में हर शनिवार और रविवार को छात्रों द्वारा चयनित फिल्में दिखाई जाती थीं। लेकिन कभी कभी ट्रेन से WT हल्द्वानी या बरेली जाकर फिल्म देखना आज भी बेहद यादगार लगता है। हॉस्टल में उस समय बजने वाले गाने आज भी मुझे तुरंत कॉलेज की यादों में पहुंचा देते हैं।

मेरा रूममेट रूद्रपुर का था इसलिए शनिवार दोपहर से सोमवार सुबह तक व छुट्टी के दिन अकेले ही कमरे में काटना मुझे अखरता था। मैने यह बात कभी उससे नहीं कही। लेकिन शायद इसे पढ़ने के बाद वह मुझे जरूर फोन कर जबरदस्त दोस्ताना भाषा का प्रयोग करने वाला है, यह मैं जानता हूं। उसके साथ एक छत के नीचे काटे पांच साल अविस्मरणीय थे। आज भी जब मिलते हैं तो लगता है कि कल ही की तो बात है। वह एक शानदार गायक था और मुकेश साब के गाने हुबहू गाता था। रात को सोने से पहले अक्सर मैं उससे “दिल ने फिर याद किया बर्क़ सी लहराई है, फिर कोई चोट मुहब्बत की उभर आई है..” सुनता था।

हमारे बैच में सरकारी कोटे से कुछ उम्रदराज एलडीए (लाइवस्टोक डेवलपमेंट असिस्टेंट) भी पढ़ने आए थे। उसमें से एक तो लगभग रिटायरमेंट के करीब थे वह बहुत मेहनत करते थे। हां, यह जरूर अच्छी बात है कि हमारे साथ के पांचों जो एलडीए थे, उन्होंने बहुत अच्छे अंको से समय पर डिग्री पूरी कर ली।

लेकिन जिंदगी कभी कभी कुछ ऐसे समाचार सुनाती है जो आदमी को अंदर से हिला भी देते हैं और भविष्य के लिए मजबूत भी कर देते हैं। ऐसी घटना हमारे पहले सेमेस्टर के बीच में हुई जब मेरे एक सहपाठी, जिससे मेरी अच्छी मित्रता भी हो गई थी, की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। पंतनगर में हॉस्टल लाइफ के कुछ महीनों के अंदर ही इस समाचार ने पूरे बैच को स्तब्ध कर दिया।

कभी-कभी कुछ छात्र अपने भविष्य को भी किसी के प्रति एक तरफा लगाव के कारण दांव पर लगा देते हैं। ऐसा ही हमारे एक सहपाठी ने भी किया। जब उसके मार्क्स कम आने लगे और उसकी “ए-पी” (academic probation) लग गई तो हमारे बैच के लगभग सभी छात्रों ने उसे समझाया। लेकिन वह इस कदर परेशान और डिप्रेशन में जा चुका था कि वह उस एक तरफा प्रेम से उबर नहीं सका। और फाइनल एग्जाम के बाद उसके मार्क्स इतने कम हो गए कि उसको यूनिवर्सिटी छोड़नी पड़ी।

मेरे रूम के ठीक बगल में रहने वाला एक अन्य छात्र बहुत ही मेहनती था और टेबल टेनिस का जबरदस्त प्लेयर भी था। उसकी कोई बुरी आदत भी नहीं थी। वह मेहनत भी बहुत करता था लेकिन किसी कारणवश उसके मार्क्स कम आ रहे थे। जिन्हें उसने कवर भी करने की कोशिश करी। और जब फर्स्ट ईयर के फाइनल एग्जाम के अंतिम सब्जेक्ट के ग्रेड की लिस्ट लगी तो उसमें उसकी डी ग्रेड देखकर वहां खड़े सभी छात्रों को बहुत दुख हुआ। क्योंकि यूनिवर्सिटी में बने रहने के लिए उसे इस विषय में कम से कम बी ग्रेड लाने की जरूरत थी। हम जब कॉलेज से हॉस्टल लौट रहे था तभी रास्ते में वह मुझे मिला। हालांकि मैंने उससे नजरें चुराने की कोशिश करी लेकिन वह मुझसे पूछ बैठा कि “मेरी ग्रेड देखी क्या”? लेकिन मैंने कहा “नहीं मैं देख नहीं पाया तुम्हारी ग्रेड” और वह आगे बढ़ गया। मैं जानता था कि मैं उसे नहीं बता सकता था कि मेरे दोस्त अब इस कैंपस में तुम्हारा समय पूरा हो गया है।

मैं निराश होकर हॉस्टल की छत से उस रास्ते की तरफ देख रहा था जहां से वह कॉलेज से वापस लौटने वाला था। दूर से उसके बोझिल कदम बता रहे थे कि वह टूट चुका है। सचमुच उसने बहुत मेहनत करी थी और हम सबको उम्मीद थी कि वह ड्रॉप नहीं होगा। वह धीरे-धीरे हॉस्टल आया और किसी से कुछ नहीं बोला और ना ही हम सब की हिम्मत पड़ी की उसको कुछ बोलें। यह तय हुआ था कि कुछ देर बाद उसके रूम पर जाएंगे और उसको समझाएंगे। और हम सभी शाम को उसके रूम पर जब गए, तो वह अपना सारा सामान लेकर चुपचाप बहती हवा सा हॉस्टल छोड़कर जा चुका था। हमें बड़ा कष्ट हुआ कि हम उसी समय उससे क्यों नहीं मिले। यह आज भी मुझे बहुत कचोटता है। हालांकि तीन वर्ष पूर्व किसी प्रकार उसका फोन नंबर मिलने के बाद मैंने उससे बात करी तो मालूम हुआ कि वह हल्द्वानी में एक सफल और अच्छी जिंदगी जी रहा है।

थर्ड ईयर में हम पंत भवन हॉस्टल शिफ्ट हो गए। लेकिन इसी दौरान हमारे एक और साथी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। हम सब उसे हॉस्टल में “लालू” बुलाते थे और वह इस नाम को बहुत एंजॉय करता था, बड़ा जिंदादिल हंसमुख था वो। सचमुच लालू तुम्हारा वह हंसता चेहरा आज भी बहुत याद आता है। सबको रूला दिया था तुमने।

अब जब पंतनगर के हॉस्टल में विद्यार्थी रह रहे हों तो अध्यापकों का तो निक नेम रख ही दिया जाता था। लेकिन आपस में भी स्टूडेंट्स के बड़े मजेदार निक नेम होते थे। लालू का उल्लेख तो ऊपर किया जा चुका है। लेकिन हमारे हॉस्टल में बैल, सनम, चाउ-माऊ, आरसी, क्रेजी, बुड्ढा, मूडी, सैंडी, आरपी, डीके, पीके, टायसन, छमिया, यंग लेडी, फैनी और यहां तक कि कट्टा तक रहते थे। कुछ तो परमानेंट “सी-पी” (conduct probation) पर रहते थे। इन “सी-पी” वाले महानुभावों के कारण कभी-कभी कुछ सीधे-साधे छात्रों और “एसकेजे” लोगों की भी “डी सी” हो जाया करती थी।
यह पंतनगर की “एसकेजे” ब्रीड भी विचित्र होती थी, बस अपने में मस्त। बड़ा मजेदार ग्रुप होता है इनका। लेकिन अच्छी बात थी कि इन्हें “एडी सीडी” से कोई मतलब नहीं होता था। बस सजना-संवरना और “ढाई नंबर” (g…. Hostel)का चक्कर मारना। हां, इनमें से एकाध कभी कभार मौका लगने पर सूट्टा भी मार लेते थे।

एक हमारे सीनियर थे बड़े ही शानदार गायक, एंकर और अलमस्त जिंदगी जीने वाले। पर उनकी खासियत यह थी कि वह शायद ही पूरी डिग्री के दौरान कभी अपने रूम पर रहे हों। वह अपने सुपर सीनियर्स के रुम में ही पड़े रहते थे। और इनसे बिलकुल अलग एक सज्जन तो ऐसे भी थे अगर आप उनके कमरे में पहुंच गए तो ज़बरदस्ती दुःख भरी गजलें ही सुनाया करते थे।


पंतनगर में शाम को मार्केट जाने का बहुत क्रेज रहता था। भले ही कोई काम हो या ना हो लेकिन शाम को “मार्केटोलॉजी” जरूर करनी है। बड़ी मार्केट शाम को यूनिवर्सिटी के छात्रों से भर उठती थी। कोई दुकान पर जूस पी रहा होता था तो कोई रसगुल्ले खा रहा होता था। कहीं चाय की दुकान पर कुल्हड़ लिए छात्र छात्राएं तो कहीं कोल्ड ड्रिंक्स पीते नौजवान। मगर एक दुकान ऐसी थी जहां आर्चिस कार्ड्स खरीदने की होड़ सी लगी रहती थी। उस दुकान की इन कार्ड्स से गजब की कमाई होती थी। अब छात्र इन कार्ड्स का क्या करते थे यह बताने की जरूरत नहीं है। एक बार इसी बड़े मार्केट में मेरे एक मिर्जापुर के मित्र ने रसगुल्ले खाने की शर्त लगा ली और मैं भी जोश में सभी से अधिक रसगुल्ले खा गया।
तब मोबाइल फोन होते नहीं थे। और सब छात्रों के घरों में फोन भी नहीं होते थे तो वह किसी ना किसी के माध्यम से फोन करके अपना समाचार घर पहुंचाते थे। और एकमात्र पीसीओ पर शाम को फोन करने वालों की अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। वह चिट्ठियों का दौर था। चिट्ठी लिखना और चिट्ठी का इंतजार करना बहुत ही सुखद लगता था। विशेषकर दोपहर में खाना खाने के लिए जब छात्र हॉस्टल लौटते थे तो रूम का दरवाजा खोलते ही देखते थे कि दरवाजे के नीचे से कोई चिट्ठी तो नहीं आई है। और यदि कोई चिट्ठी आई होती थी उसको बार-बार पढ़ना दिल में रोमांच पैदा करता था। मैंने देखा इन तेईस वर्षों बाद भी पंतनगर पोस्ट ऑफिस का वो लोहे का पोस्ट बॉक्स आज भी वहीं खड़ा है। मैं लगातार उसको निहारता रहा कि यह पोस्ट बॉक्स हमारे परिवारों से उन पांच वर्षों में लगातार संवाद कायम रखने का जरिया बना रहा।
पंतनगर में एक कहावत है कि जब वहां से एक छात्र हॉस्टल में रहने के बाद डिग्री लेकर निकलता है तो वह एक ट्रक आलू खा चुका होता है। हालांकि है यह एक अतिशयोक्ति है लेकिन इसमें वास्तविकता भी है। पंतनगर में सुबह की शुरुआत आलू के पराठे से होती थी। उस स्वादिष्ट कुरकुरे आलू के पराठे पर लगा हुआ बटर और उसकी प्यारी सी महक की यादें आज भी मुंह में पानी भर देती है। बुधवार को कैफिटेरिया में स्पेशल सब्जी और अंडा खाने वालों के लिए अंडा करी और मीट के कहने ही क्या थे। और संडे का मजा तो फ्रूट क्रीम में था। एग्जाम के दिनों में रात 12:00 बजे चाय का इंतजाम बहुत ही कम होस्टलों में देखने को मिलता है। एक और मजेदार बात ये थी कि कैफेटेरिया में बैठे हुए संचालक से बचाकर एक भी अतिरिक्त रोटी खाना संभव नहीं था। कितना भी आप कोशिश कर लीजिए अगर आप उनके सामने थाली नहीं ले गए, तो भी वह दूर से ही देखकर पहचान जाते थे इसकी थाली में कितनी रोटी और कौन कौन सी सब्जी और अचार हैं। गजब का हिसाब रखने की कला थी उनमें। हॉस्टल में सिर्फ दूध की चाय जिसे सब “टिल्क” बोलते थे, बड़ी ही प्रसिद्ध थी। अगर बात करें रोडसाइड ईटेबल्स की, तो चाकू अंकल की कॉफी और चाय लाजवाब होती थी। इंजीनियरिंग के अधिकतर छात्र छोटी मार्केट में देखे जाते थे। और वहां भी आंटी जी की दुकान का खाना और पराठा लाजवाब होता था।

पंतनगर का किसान मेला कहने को तो किसान मेला होता था लेकिन छात्र मेला ज्यादा दिखाई पड़ता था। किसानों से ज्यादा छात्र वहां पर दिखाई देते थे। हालांकि छात्र बहुत मेहनत भी करते थे किसान मेले में। लेकिन साल में लगने वाले दो किसान मेलों का सभी को बड़ा इंतजार रहता था। और उन तीन दिनों में सब छात्र सुबह से लेकर शाम तक किसान मेले में ही दिखाई पड़ते थे। कभी-कभी क्लास बंक करके इधर-उधर घूमना या घर चले जाना भी एक गुदगुदाने वाला अनुभव था। अक्सर किसी आने वाले त्यौहार की छुट्टियों से दो दिन पहले ही डिसाइड हो जाता था कि अब कोई भी क्लास नहीं जाएगा। जिससे कि अटेंडेंस शार्ट ना हो और इस कार्य में सभी छात्र गजब की एकता दिखाते थे। यहां तक कि डे-स्कॉलर भी साथ देने में पीछे हटते नहीं थे। कुछ छात्र यूनिवर्सिटी की छोटी छोटी पुलिया पर बैठकर गप्पबाजी करते थे। पंतनगर की भाषा में इसे “पुलियोलॉजी” कहा जाता था। जिससे परेशान होकर प्रशासन ने सारी पुलिया तिरछी करवा दी थीं जिससे कि छात्र उस पर ना बैठ सके।

गांधी हॉल/ऑडिटोरियम की पहली मंजिल पर स्थित डीआर रेस्टोरेंट में जाकर कॉफी पीना, और वह भी क्लास बंक करके, बड़ा ही आनंद देता था। लेकिन एक दिन तो तब गजब ही हो गया जब हम लोग वहां बैठे कॉफी पी रहे थे। और जिन प्रोफेसर साहब की हम क्लास बंक करके आए थे, क्लास लेने के बाद वह भी वहीं पहुंच गए। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस समय हमारी क्या स्थिति हुई होगी।

कुछ टेक्नोलॉजी और एग्रीकल्चर के भी छात्र थे जो अपना हॉस्टल छोड़कर अक्सर हमारे हॉस्टल में रुका करते थे और उनमें से एक तो गजब का वेटनरी साइंस का प्रेमी था। और वह रात को भी अक्सर हमारे हॉस्टल में रुक जाया करता था। और उसको स्यूडो वेटेरिनरीयन भी कहा जाता था। यदि रात को वार्डन हॉस्टल चेक करने आते थे तो उसे कई बार बाथरूम में या तखत के नीचे भी छुपाना पड़ा था। इसका उल्टा भी था मैं भी अक्सर पटेल भवन या विश्वेश्वरय्या भवन में रुक जाता था। ऐसी ही खट्टी मीठी यादों के साथ एक अलमस्त सी जिंदगी आगे बढ़ रही थी।
आइए पंतनगर की खूबसूरत लाइब्रेरी का रुख करते हैं। सचमुच लाइब्रेरी की बिल्डिंग अपने आप में वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। इतनी शानदार और इतनी सुंदर और इतनी बड़ी लाइब्रेरी मैंने पहले कहीं किसी भी विश्वविद्यालय में नहीं देखी थी। यह पंतनगर के छात्र के लिए गौरव का विषय थी। जहां पर हर प्रकार की पुस्तकें जर्नल्स और न्यूज़पेपर एक जगह पर मिल जाते थे। वहीं पर मैने भी लाइब्रेरी का कैटलॉग देखना सीखा। लेकिन कुछ छात्र वहां पढ़ने कम और वहां के ठंडे वातावरण में बैठने के लिए ज्यादा जाते थे। स्वभाविक है छात्र जीवन इन्हीं खट्टे मीठे अनुभव का एक शानदार मिश्रण होता है जो आगे चलकर आपके व्यक्तित्व को निखारता है। और पंतनगर के छात्र होने के कारण यह निखार होना तो स्वाभाविक ही है।

चलिए, एक बार फिर हॉस्टल कि उन्हीं सड़कों पर चलते हैं। अर्धचंद्राकार सड़क के किनारे लगभग एक जैसे लाल रंग के बने हुए हॉस्टल बहुत ही खूबसूरती से एक ज्योमैट्रिकल विन्यास के बनाए गए थे। ज्यादातर अगल-बगल के हॉस्टल एक दूसरे की मिरर इमेज हुआ करते थे। प्रत्येक हॉस्टल से उस हॉस्टल में रहने वाले छात्रों के महाविद्यालय की दूरी बराबर होती थी। और हर महाविद्यालय से सेंट्रल लाइब्रेरी एवं विश्वविद्यालय के ऑफिस, बैंक, कुलपति कार्यालय एवं ऑडिटोरियम की दूरी भी बराबर थी। हॉस्टल्स की अर्धचंद्राकार सड़क के अंदर वाली अर्धचंद्राकार सड़क पर महाविद्यालय थे एवं सबसे बीच में विश्वविद्यालय का प्रशासनिक भवन एवं लाइब्रेरी स्थित थे।

पंतनगर विश्वविद्यालय 1960 में प्रारंभ हुआ था एवं इसका निर्माण इलिनॉइस यूनिवर्सिटी यूएसए के सहयोग से किया गया था। चारों तरफ फैली हरियाली और बहुत ही खूबसूरती से बनाई गई सड़कें, उनका वृक्षारोपण और बिल्डिंग अपने आप में स्थापत्य कला का एक अनूठा उदाहरण है। इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों के टैगोर भवन, पटेल भवन, सिल्वर जुबिली और विश्वेश्वरय्या भवन के आसपास बड़ा ही मनोरम प्राकृतिक दृश्य दिखता था। बीटेक के छात्रों की संख्या अधिक होने से उनके हॉस्टल भी अधिक थे। बीटेक का एक जूनियर था। वह खेल कूद का बड़ा शौकीन था, मैं अक्सर उसके रूम पर या वह मेरे रूम पर आता था। बड़ा खुश मिजाज और हाज़िर ज़वाब था वो। और मुझे लगता था कि उसकी मंजिल कहीं और है। और सही में बीटेक के बाद ही वह आईपीएस हो गया। कुछ वर्ष पूर्व छत्तीसगढ़ में उससे मुलाकात हुई। बहुत गर्मजोशी से मिला वह।


पंतनगर की इन्हीं सड़कों, भवनों, हॉस्टलों और “ट” कॉलोनी और “झ” कॉलोनी की गलियों में जिंदगी के कब पांच साल निकल गए पता ही नही चला। अब सभी छात्र अपने भविष्य के बारे में चिंतित थे। कोई जॉब करना चाहता था। कोई प्राइवेट क्लिनिक खोलने का इच्छुक था और कोई पोस्ट ग्रेजुएशन करने की तैयारी कर रहा था। अगर देखा जाए तो मैं कुछ भी सोच समझ सकने की स्थिति में नहीं था। बस ऐसा लगता था कि अब हॉस्टल की यह दीवारें, यह आम के पेड़ और इंटरनेशनल गेस्ट हाउस के पास खड़ा विशाल पीपल का दरख़्त यानी “मोक्ष स्थल”, जिसके नीचे अकसर मैं अपने दो सीनियर्स के साथ जाकर बैठ जाया करता था, अब छूट जाएगा। और इनकी यादों के सहारे आगे बढ़ना पड़ेगा क्योंकि कॉलेज लाइफ के ये पल अब कभी नहीं लौटने वाले थे। पूरे हॉस्टल में एक गम भरा सा माहौल देखने को मिलता था। सभी छात्र एक दूसरे का घर का पता नोट करने लगे थे। क्योंकि तब फोन होते नहीं थे और चिट्ठियों से ही बातें हुआ करती थीं।
“राकेश यह पल हमें बहुत याद आएंगे” मेरे मित्र ने हॉस्टल की पुलिया पर अपना हाथ मेरे कंधे पर रखते हुए धीमे से कहा। मेरे सामने पंतनगर में बिताये खूबसूरत पल किताब के पन्नों की तरह पलटने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे कल ही की तो बात थी जब आगरा फोर्ट एक्सप्रेस से सुबह-सुबह उतरकर रिक्शा करके सेंट्रल लाइब्रेरी के सामने एडमिशन फीस जमा करने लाइन में खड़े थे। और देखते-देखते पांच साल पंख लगा कर निकल गए।

मैं बोझिल मन से अंतिम बार चाकू अंकल की दुकान की तरफ बढ़ गया। लेकिन वहां भी तीन चार छात्रों का ग्रुप बैठा हुआ यही बात कर रहा था कि आज रात के बाद ना जाने कब मुलाकात होगी। मेरा मन बहुत उदास था फिर भी मैंने चाकू अंकल की कॉफी अंतिम बार धीरे-धीरे सिप करी। लेकिन जैसे चाकू अंकल की दुकान पर हंसी ठिठोली होती थी उस रात वह सब कुछ नहीं था। छात्र वहां बैठे पुरानी यादों को ताजा करते हुए भारी मन से एक दूसरे से विदा ले रहे थे। रात के अंधेरे में मैं अपने कॉलेज को निहारने के लिए उस तरफ बढ़ा। मुझे याद है वह चांदनी रात थी और जितना खूबसूरत हमारा महाविद्यालय उस दिन लग रहा था उतना कभी नहीं लगा था। कितनी यादें जुड़ी थी इस महाविद्यालय से जिसने हमें इस मुकाम पर पहुंचाया। मगर अब वह छूटने वाला था। उसमें अब कभी क्लास नहीं करनी थी। मन कर रहा था कि क्या कल एक और क्लास नहीं हो सकती? लेकिन वक्त नहीं रुकता….।

मैं अपने अन्य साथियों से मिलने के लिए वापस हॉस्टल आया और अपने मित्र के रुम में गया वह अपना बेडिंग बांध रहा था। मुझे देखते ही उसकी आंख भर आई, वह बोला “यार अच्छा नहीं लग रहा है”। लेकिन हम एक दूसरे को बस दिलासा ही दे सकते थे। हमारे हॉस्टल से कुछ छात्र जा चुके थे। कुछ निकलने की तैयारी में थे। और कल तक लगभग सभी अपने अपने गंतव्य की तरफ निकल जाने वाले थे। हॉस्टल की विंग में लगातार होने वाला छात्रों का शोर अब एक भयानक खामोशी में बदल चुका था। कुछ कमरों की लाइट ऑफ थी और दरवाजे खुले हुए थे, जो यह बता रहे थे कि इन कमरो के छात्र अपने हॉस्टल लाइफ को पूरा करके अपने गंतव्य की तरफ बढ़ चुके हैं।

चांदनी की परछाई में मुझे दो-तीन साए छत पर घूमते हुए दिखे। मैं भी उत्सुकता वश हॉस्टल की छत पर चला गया वहां पर तीन छात्र एक दूजे के कंधे पर हाथ रखकर घूम अवश्य रहे थे। लेकिन आपस में कोई बात नहीं कर रहे थे। एक छात्र दूर खड़ा हॉस्टल के पीछे स्थित महाविद्यालय को निहार रहा था। दूर सड़कों पर जलते हुए लैंप पोस्ट के चारों ओर अंतहीन चक्कर लगाते कीड़े मकोड़े और आकाश को छूते हुए विशाल दरख़्त चांदनी रात में बड़े ही खूबसूरत लग रहे थे। लेकिन अब इस हरियाली और शांत वातावरण से दूर जिंदगी की दौड़, आपाधापी, द्वंद और महानगरों के कोलाहल में शामिल होने के लिए हमें जाना ही था। हम सभी बिना बोले सामान पैक करने अपने-अपने रूम में वापस आ गये। हम कुछ-कुछ देर पर हॉस्टल के बाहर अपने मित्रों को छोड़ने आ रहे थे।

और फिर वह समय भी आ गया जब हॉस्टल में बचे हुए थोड़े से हमारे बैचमेट्स मुझे रिक्शे तक छोड़ने आए। हमने एक-दूसरे को शुभकामनाएं दी। और मैं भारी मन से रिक्शे पर बैठ गया हम लोग दूर तक एक दूसरे को हाथ हिला कर विदा कर रहे थे….। मेरा रिक्शा कब्रिस्तान के रास्ते से मंद-मंद चलती हवा के बीच धीरे-धीरे बाहर की तरफ बढ़ रहा था। रिक्शेवाले के मुंह से निकलती सिटी की धुन “रात ये बाहर की फिर कभी ना आएगी, दो-एक पल और है यह समा, सुन जा दिल की दास्तां, ये रात ये चांदनी फिर कहां……….” सचमुच माहौल को और गमगीन बना रही थी। मैंने देखा दूर क्षितिज पर फैली चांदनी थोड़ी सी धूमिल पड़ गई थी और चांद को बादलों ने अपने आगोश में ले लिया था ।

IIT Kanpur organizes “Anviksha” – A Research Scholars’ Conference

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Prof. Ipshita Chanda from EFLU (English and Foreign Language University), Hyderabad and Prof. Mini Chandran, the Head of the Department of Humanities and Social Sciences IIT Kanpur

G.P. VARMA
Kanpur, 7 February, 2024: The Department of Humanities and Social Sciences, IIT Kanpur (IITK), organised its first two-day national research scholars’ conference Anviksha. The theme for this multi-disciplinary conference was “Boundaries” and examined diverse domains associated with it, including modes of sociality, political discourse, identity formation, and literary and aesthetic production.

The conference brought together more than 500 submissions from across the country, out of which 48 abstracts were selected for the final presentation through a blind peer review process. The conference had 12 panels focussing on themes- Gender, Conflict, Digital Frontiers, Urbanisation, and Knowledge.

A keynote speaker, Prof. Janaki Abraham from the Delhi School of Economics engaging with the participants
The Department of Humanities and Social Sciences, IIT Kanpur successfully conducted its first two-day national research scholars’ conference, Anviksha

Prof. S. Ganesh, Director, IIT Kanpur, said, “The Department of Humanities and Social Sciences at IIT Kanpur has taken a significant step forward by hosting this conference to address critical cross-disciplinary frontiers that affect society as a whole. Anviksha, the department’s first national research scholars’ conference, highlights our commitment to informed and inclusive education by facilitating insightful dialogues and thoughtful conversations among emerging scholars. It has paved the way for discourses that cross ‘boundaries’ in the literal sense and can have far-reaching consequences in the humanities and social sciences.”

On the inaugural day, Prof. Mini Chandran, the Head of the Department of Humanities and Social Sciences, welcomed the participants by sharing insights into the conceptualization of the theme and expressed optimism about the conference evolving into an annual academic highlight for scholars nationwide.

Prof. Ipshita Chanda from EFLU (English and Foreign Language University), Hyderabad gave the keynote address on the need for ethically engaging plurality. She emphasised how humanities research, to be meaningful, must end in a realisation about the nature of the human through a relation of self to the world and needs to break through fixed ways of thinking about lives.

Prof. Janaki Abraham from the Delhi School of Economics, as a keynote speaker for the second day, derived from her fieldwork to question rule-based boundaries of rituals and customs, turning a sociological eye to wedding rituals. She argued that recognising the practice of rituals, which includes innovation, subversion and the invention of new traditions, could enable us to see micro–processes versus notions of static customs.

With the scale of participation and the quality of insights presented, Anviksha marked an outstanding debut for IIT Kanpur in convening a forum to showcase the best of young talent in humanities and social sciences research nationwide.

IIT Kanpur achieves major milestone with India’s First Hypervelocity Expansion Tunnel Test Facility

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G.P. VARMA
Kanpur, 05 February, 2024: The Indian Institute of Technology Kanpur (IITK) has successfully established and tested India’s first Hypervelocity Expansion Tunnel Test Facility, a major achievement that puts India amongst only a handful of countries with this advanced hypersonic testing capability. The facility, named S2, is capable of generating flight speeds between 3-10 km/s, simulating the hypersonic conditions encountered during atmospheric entry of vehicles, asteroid entry, scramjet flights, and ballistic missiles. This makes it a valuable test facility for ongoing missions of ISRO and DRDO including Gaganyaan, RLV, and hypersonic cruise missiles.

The S2, nicknamed ‘Jigarthanda’, is a 24-meter-long facility located at IIT Kanpur’s Hypersonic Experimental Aerodynamics Laboratory (HEAL) within the Department of Aerospace Engineering. The S2 was indigenously designed and developed over a period of three years with funding and support from the Aeronautical Research and Development Board (ARDB), the Department of Science and Technology (DST), and IIT Kanpur.

Commenting on this, Prof. S. Ganesh, Director, IIT Kanpur, said, “The successful establishment of S2, India’s first hypervelocity expansion tunnel test facility, marks a historic milestone for IIT Kanpur and for India’s scientific capabilities. I congratulate Prof. Sugarno and his team for their exemplary work in designing and fabricating the hypersonic research infrastructure. S2 will empower India’s space and defence organizations with domestic hypersonic testing capabilities for critical projects and missions.”

Prof. Mohammed Ibrahim Sugarno, Associate Professor, Department of Aerospace Engineering and Centre for Lasers & Photonics at IIT Kanpur said, “Building S2 has been extremely challenging, requiring in-depth knowledge of physics and precision engineering. The most crucial and challenging aspect was perfecting the ‘free piston driver’ system, which requires firing a piston at high pressure between 20-35 atmospheres down a 6.5 m. compression tube at speeds of 150-200 m/s, and bringing it to a complete stop or ‘soft landing’ at the end.”

“However, with our expertise, we were able to overcome this. Our team is proud to have designed, built, and tested this one-of-a-kind facility, cementing India’s position in the elite global hypersonic research community,” he added.

Prof. Tarun Gupta, Dean, Research and Development, IIT Kanpur, said, “S2 highlights IIT Kanpur’s research excellence, positioning the institute at the forefront of innovative research and opening doors to groundbreaking advancements in aerospace technology. I am pleased to acknowledge the crucial support received from ARDB and DST.”

Prof. G. M. Kamath, Head, Department of Aerospace Engineering, IIT Kanpur, said, “With S2, we advance our research horizons, inspiring a new generation of aerospace enthusiasts and fostering innovation and exploration in this exciting field. Being the first in India to develop such a facility enables us to set a new benchmark for hypervelocity research in India and beyond.”

S2 represents a tremendous achievement for IIT Kanpur and a major capacity boost for India’s space and defence sectors. With sophisticated hypervelocity testing capabilities now available domestically, India is better positioned to develop advanced hypersonic technologies and systems.

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