खुद का फैसला और ज़िंदगी

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Dr. Kamal Musaddi
कहते हैं ज़िंदगी वो है जो अपने फैसलों पर अपने अनुसार जी जाए बाकी तो बस सामंजस्य है।क्या सच में ज़िंदगी सिर्फ वो है जो अपने फैसलों पर जी जाए ऐसा हो सकता है क्या ,क्या कोई आज तक अपने फैसलों पर जी सका है।जन्म से लेकर पराधीनता की उम्र तक फैसले बड़े लेते हैं।क्या खायेगा क्या पहनेगा कहाँ पढ़ेगा यहां तक कि किससे रिश्ते रखेगा और किससे दोस्ती।
फिर एक दिन वह आता है जब इंसान अपने आपसे रूबरू होता है,खुद को पढ़ने लगता है और अपनी भावनाओं के आधीन होकर जीवन को ढालने लगता है तब उसे आवश्यकता होती है ऐसे अपनों की जो उसकी भावनाओं को समझ सके और सिर्फ समझ ही न सके बल्कि उसकी सुरक्षा का सम्बल बने।ये उम्र शुरू होती है जब उसका जज्बाती विकास होता है और वो उम्र होती है किशोर उम्र।मनोवैज्ञानिकों ने इसे तूफानी उम्र कहा है,जहां शरीर के विकास के साथ -साथ भावनाओं में भी सुनामी आने लगती है।जिस उम्र में  कपड़े जल्दी-जल्दी छोटे होने लगते है और जिस तरह एक किशोर के कपड़ो की सियन अक्सर उधड़ने लगती है वैसे ही उनकी भावनाओं की सियन भी उधड़ने लगती है।वो बेचैन रहता है वो भ्रमित रहता है,वो परेशान रहता है।लड़कियों को लड़के आकर्षित करने लगते है और लड़कों को लड़कियां।इस आकर्षण और बेचैनी को नाम दे देते है वो प्यार का मुहब्बत का और आज की भाषा में अफेयर और रिलेशन्स का।
बस यहीं से शुरू हो जाती है वो कश्मकश जिसके समर्थन में कहने वाले कह गए कि ज़िंदगी वो होती है जो अपने फैसलों पर जी जाए।मगर कितने किशोर होते है जो अपने इस रिलेशन को अपने फैसलों से जी पाते है और जिन्हें जीने की छूट मिल जाती है वो खुद कितने दिन इसे सम्हाल पाते हैं।
आज के दौर में जब लड़के-लड़की की परवरिश में कोई भेद भाव नही,शिक्षा में कोई अंतर नही उपलब्धियों पर कोई रोक नही तो ये निकटता कभी-कभी बच्चों का गहरा नुकसान भी कर देती है भावनात्मक रूप से कमजोर किशोर कभी -कभी आत्म उत्पीडन और कभी गुनाह का रास्ता पकड़ लेते हैं और तब समाज  तमाम तरह के सवालों से जूझने लगता है कि क्या  लड़कियों का खुलापन,बच्चों को आपसी मेल -जोल की छूट कहीं गलत तो नही।
मुझे याद है एक समाचार पत्र की एक खबर ने मेरा मन झकझोर दिया था कि एक ग्यारहवीं – कक्षा के छात्र ने फेसबुक लाइव पर अपनी मित्र से झगड़ा होने पर उसे दिखा-दिखा कर अपने हाथ की नस काट ली उधर से वो चीखती रही और ये रुका नही और अंत में अधिक रक्तस्राव से उसकी मौत हो गयी।
आये दिन हम किशोर उम्र के लड़के -लड़कियों की आत्महत्या ,आत्म उत्पीड़न ,प्राण घातक हमले,एसिड अटैक या फिर रिवेंजफुल शारीरिक उत्पीड़न की खबरें सुनते और पढ़ते रहते है।परिपक्व लोगों का मन पीड़ा से भर जाता है।सिर्फ़ पीड़ा नहीं आत्मग्लानि से भी कि आखिर परवरिश में कहां चूक हो गयी क्यों हम उन्हें भावनाओं की शक्त नहीं दे पाए।इन सवालों के साथ ही हमारे मन में उत्तर भी जागते हैं कि  हमने अतिरिक्त मोह ,भय,और आधुनिकता की होड़ में उसे भावनात्मक संतुलन रखना सिखाया ही नहीं और बिना विवेक के उसे मनचाही ज़िंदगी जीने की छूट दे दी।
तमाम दुःखद घटनाओं का विश्लेषण करने पर एक ही बात समझ में आती है कि ज़िंदगी वो है,जो अपने फैसलों पर जी जाए।मगर फ़ैसले लेने की समझ का विकास होने तक हमें युवा पीढ़ी और किशोर पीढ़ी को अनुभवी लोगों की बात सुनने को प्रेरित करना चाहिए और फैसले लेने लायक बनाना चाहिए।