पंद्रह सौ छिहत्त्तर का वो संग्राम निराला था।
भारत माँ के सपूत को आक्रांताओं ने ललकारा था।
चेतक पर सवार था महाराणा, हाथ में उसके भाला था।
नाहर सी गर्जन थी उसकी, आंख में जैसे शोला था।१।
बरछी, भाला और कटार से वो बचपन से खेला था।
उदय और जयवंता का कीका, कुम्भलगढ़ का बड़ा दुलारा था।
पल भर में घोड़े पर चढ़कर, ओझल हो जाना उसको आता था।
गऊ-माता के लिए प्रताप, सिंह से भी लड़ जाता था।२।
सैंतीस सेर का केसरिया बाना, उसपर बड़ा सुहाता था।
चमक उठती थी बिजली, जब वो चेतक संग दौड़ लगाता था।
बिछती थीं लाशें रण में, जब वो तलवार चलाता था।
भाले से सौ गज दूर, गज को भी वो मार गिराता था।३।
दस-दस पर, वो अकेला ही भारी पड़ जाता था।
बत्तीस वर्ष की आयु में, वो महाराणा कहलाया था।
मैं मेवाड़ नहीं दूंगा, ये आक्रांताओं को धमकाया था।
जंगल-जंगल भटका था वो, पर न शीश झुकाया था।४।
जय-भवानी का नारा, रण में उसने लगाया था।
भीलों की सेना लेकर, उसने आक्रांताओं को खूब छकाया था।
लगा कर चेतक की एड़, वो हाथी पर चढ़ आया था।
भय से मानसिंह ने उसदिन, खुदको हौदे में छुपाया था।५।
घायल प्रताप को लहूलुहान चेतक ने पार लगाया था।
अपने प्राण देकर भी, चेतक ने प्रताप को सम्मान दिलाया था।
हल्दीघाटी में उस दिन, प्रताप ने आक्रांताओं को पाठ पढ़ाया था।
फिर कभी मेवाड़ पर, आक्रांताओं ने रौब नहीं दिखलाया था।६।
छापामार युद्ध कर प्रताप ने, कई किलों को अधीन बनाया था।
राजपुताना को गौरव, महाराणा ने फिर से दिलवाया था।
हल्दीघाटी का युद्ध, अब भी हमको याद दिलाता है।
मातृभूमि के लिए कैसे रण में, रक्त बहाया जाता है।७।
अमर हो गया प्रताप, खाकर सौगन्ध राजपूताने की।
दे गया सन्देश हमें वो, मातृभूमि के लिए मर जाने की।
भारत-भूमि के उस लाल को, आज हम शीश नवाते हैं।
रखेंगे अखण्ड भारत को, ये सौगन्ध हम खाते हैं।८।
-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, स्तम्भकार एवम कवि