ज़िन्दगी के रंगों को देखती हूँ तो दिखती है- चार फुट छः इंच की लक्ष्मी, जो मेरे घर साफ़ सफाई करने आती है। छोटे कद की कृशकाय लक्ष्मी, तीन जवान बच्चों की माँ है। दो बेटे और एक बेटी। बेटी बारहवीं में पढ़ती है; एक सरकारी स्कूल में। मगर बेटे; हज़ार कोशिशें करने के बाद भी छठी कक्षा से आगे पढ़ नहीं पाए। पति किसी प्रिंटिंग प्रेस में दिहाड़ी करता था मगर अपने उग्र स्वभाव के कारण लड़- झगड़ कर घर में बैठ गया। नौकरी तो नही रही मगर रोज की शराब और हर दिन तामसी भोजन उसे चाहिए था। सबकी जरूरतों को पूरा करने के लिए लक्ष्मी सुबह सात बजे घर से निकलती और शाम सात बजे वापस लौटती।
लक्ष्मी एक ही बिल्डिंग के चार फ्लैट में काम करती। किसी के घर खाना बनाती, कहीं कपड़े धोती और मेरे घर झाड़ू पोछा करती। अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए उसने इस बिल्डिंग के अतिरिक्त चार अन्य घर भी पकड़ रखे थे। इतनी मेहनत करने वाली लक्ष्मी न कभी छुट्टी करती, न आँखों में लालच झलकता, न कभी चिड़चिड़ाती। घर में मुस्कुराती हुई आती और सामने मुझे देखकर बोलना शुरू करती तो बोलती चली जाती। उसे इस बात की भी परवाह नहीं थी कि मैं सुन भी रही हूँ या नहीं। हालांकि मैं सुनती रहती थी क्योंकि उसकी विवेचना शैली इतनी रोचक होती कि न चाहकर भी ध्यान उसकी बातों पर टिक जाता।
गरीबों की जिस बस्ती में वह रहती थी। वहां चारों ओर विसंगतियां बिखरी पड़ी थी। मसलन किसका लड़का जुआ खेलते पकड़ा गया, कौन सी बूढ़ी सुलभ शौचालय तक नही जा पायी तो कैसे उसने औरतों के साथ मिलकर उसे वहाँ तक पहुँचाया। रात को घर लौटते वक़्त बंगले और फ्लैट के किशोर लड़के लडकियां सड़क के अंधेरे हिस्सों में कैसी बातें और हरकते करते हैं, वग़ैरह वग़ैरह या फिर नीचे के फ्लैट की नब्बे वर्षीय माता जी का अपने पैंसठ वर्षीय बेटे से इसलिए विवाद हो गया कि वह अपने गुरु जी की फोटो भी वही लगाना चाहती है जहाँ बेटे ने हनुमान जी की फोटो लगा रखी है।
कुल मिलाकर लक्ष्मी काम के प्रति जितनी गंभीर, उतनी ही संवेदनशील। तभी तो दुनिया भर के दुःख दर्द को खुली आँखों से देखकर खुद में समाहित कर लेती है और मेरी संवेदनशीलता में अपनी भावना व्यक्त करके उनका समर्थन तलाशती है।
उस दिन लक्ष्मी आयी, मैं तेज़ बुखार में जल रही थी। उसने दीदी दीदी आवाज़ दी। हूँ..; हाँ…करके मैं शांत हो गयी। उसने मेरे माथे पर हथेली लगाई और चौंक गयी। अरे तुम्हें तो बहुत तेज़ बुखार है, फिर मनुहार करके बोली, दीदी चाय बना दें…? बदन दबा दें? मैं जवाब देने की स्थिति में नहीं होने के बावजूद सिर्फ ना में गर्दन हिलाती रही।
लक्ष्मी अपने काम में लग गयी, वो कब घर से गयी मुझे पता नहीं चला। लगभग दो घंटे बाद अचानक मेरी चेतना लौटी तो मैंने लक्ष्मी-लक्ष्मी आवाज़ दी। कोई जवाब न मिलने पर बिस्तर से उतरी और डगमगाती सी पूरे फ्लैट का चक्कर लगा लिया। लक्ष्मी कहीं नहीं दिखी। मगर मुझे दिखा, वो मेरे हिस्से का सारा काम कर गयी थी जैसे कपड़े धोकर सलीके से स्टैंड पर सुखा गयी। रसोई के बर्तन, सिंक सब साफ़ सुथरा कर दिया। पलंग पर बिखरा सामान सब समेट कर रख गयी। साफ़ सुथरा घर देखकर मेरी, मेरे प्रति ज़िम्मेदारी जागी और मैं चाय ब्रेड के साथ दवा खाने के उपक्रम में लग गयी। जेहन ने लक्ष्मी का मानवतापूर्ण और आत्मीय व्यवहार मुझे झकझोर रहा था कि हम लोग जिसे नाप- तौल कर तनख़्वाह देते हैं, उनके छुट्टी लेकर वापस आने पर दो- चार एक्स्ट्रा काम कराकर पैसा वसूल कर लेते हैं, उनका इतना बड़ा दिल…! उसने सिर्फ मेरा काम ही नहीं किया था बल्कि मेरे प्रति एक लगाव भी रखा था।
मैं सोच रही थी कि उसके इस नेक व्यवहार का प्रतिकार कैसे करूँ? अगले दिन जब लक्ष्मी आयी तो उसके पूछने पर अपना हाल बताया, साथ ही उससे पूछा तुम्हारी बेटी की परीक्षाएं कब से हैं। लक्ष्मी ने बताया कि डेढ़ महीने बाद बोर्ड की परीक्षा है दीदी। मैंने गर्दन को थोड़ा अकड़ा कर कहा कि लक्ष्मी परीक्षा के लिए उसे जो कुछ चाहिए मैं ला दूँगी। मेरा आशय प्रोजेक्ट के खर्च, गाइड, क्वेश्चन बैंक आदि से था। कम पढ़ी-लिखी लक्ष्मी मेरा आशय समझ गयी और बोली ‘दीदी किताब कॉपी तो सब हम खरीद लेते हैं अगर कुछ कर सको तो बिटिया को थोड़ा समय देकर पढ़ा दिया करो क्योंकि पैसा तो थोड़ा बहुत, सब घर वाले देने को तैयार हो जाते हैं मगर समय किसी के पास नहीं।
मैं समझ गयी थी लक्ष्मी सही कह रही थी कि समय को बेचने वाले और सेवा खरीदने वाले आधुनिक समाज में यही दो चीज़े देना मुश्किल है, मैं उसकी समझदारी पर मुस्कुराई और कहा ठीक है कल से उसे मेरे पास भेज देना। क्यों ठीक किया न ज़िन्दगी….
धन कमाने के लिए आतुर इस समाज में लक्ष्मी ने धन नही अपनी बेटी के लिए आपका ज्ञान मांगा।लक्ष्मी बधाई की पात्र है।