‘मैं ठीक हूँ… ज़िन्दगी’

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1587
Dr. Kamal Musaddi
दो वर्ष पहले हरिद्वार गयी थी, गंगा के किनारे बने घाटों पर घूम रही थी तो जगह जगह बूढ़े, असहाय लेटे बैठे मिले। मन में आया, इतनी निरीहता, इतना अकेलापन आखिर इन्हें जन्म से तो नहीं मिला होगा ! फिर कौन हैं ये? कहाँ से आते हैं? क्यों इन वीरानों में अकेले पड़े हैं? ‘पड़े हैं’ शब्द ही उनके लिए सही लगा क्योंकि विवशता ‘पड़े रहने’ में होती है। ‘रहता’ तो इंसान अपनी मर्जी से है।
 
मन में जिज्ञासा और निराशा लिए शांति निकेतन आश्रम लौटी और कुछ ही घंटों बाद मुझे मेरी जिज्ञासा का जवाब मिल गया।
 
 ग्रीष्मावकाश में स्थान परिवर्तन हेतु मैंने शान्ति निकेतन हरिद्वार को चुना किन्तु अशांत मन के कारण और जो कमरा रहने को मिला था उसमें गर्मी की अधिकता के कारण रात्रि लगभग दस बजे मेरी तबियत घबराने लगी। शरीर बेजान सा लगने लगा और दिल बैठने लगा। मुझे लगा शायद हाई बी.पी. या लो शुगर के कारण ऐसा हो रहा है। मगर आश्रम में आठ बजे के बाद किचन, दूकान सब बंद हो जाते थे, इसलिए कुछ भी मिलना संभव नहीं था। मैं कमरे से निकलकर नीचे पार्क में बैठ गयी। मुझे आए चौथा दिन था, मेरी एक दो सेवादारों से दोस्ती हो गयी थी। हाँ मुझे याद है, उस समय रात्रि का एक बजे था जब मैंने पुष्पा को फ़ोन किया था कि मेरे पास आओ। उसने शीघ्र आने की बात कही। उसके आ जाने के आश्वासन से मेरी थोड़ी हिम्मत बंधी। आश्रम का मुख्य द्वार वहाँ से दिखता था जहाँ मैं बैठी थी। लोगों का आवागमन लगा हुआ था। मैं आते-जाते लोगों को देख रही थी। और पुष्पा का इंतज़ार कर रही थी। मैं जहाँ बैठी थी वहाँ से पुष्पा का कमरा इतनी दूर था कि रेंग कर भी आती तो दस मिनट से ज्यादा नहीं लगते मगर अब तो एक घंटा होने को था और मेरी बेचैनी बढ़ रही थी। मुझे उस समय किसी अपने की सख़्त ज़रूरत थी और पुष्पा मझे तिनके का सहारा लग रही थी मैं उठकर उसके कमरे की तरफ जाने का मन बना ही रही थी कि तब तक पुष्पा आती दिखाई दी। मैंने आते ही उससे देर होने का कारण पूछा तो उसने एक ठंडी सांस ली फिर बोली ‘येसब यहाँ अक्सर होता है’। ‘क्या होता है?’, मैंने उत्सुकतावश पूछा, बोली ‘आ रही थी तो रास्ते में एक बुज़ुर्ग महिला मिली, बदहवास सी खड़ी, चारो ओर देख रही थी।‘ पूछा ‘अम्मा किसे देख रही हो?’ तो बोली ‘बेटा, बहू, पोता सब थे, मैं जल्दी चल नहीं पा रही थी, वो आगे निकल गए, जाने कहाँ चले गए?’ कहकर रोने लगी, मैंने उसे ढाँढ़स बँधाया। उसके पास सुनीता को खड़ा करके आगंतुक सूची देखी और उनके लिए बुक कमरे। फिर उनको लेकर गयी, देखा बेटा, बहू बिस्तर बिछा कर लेट चुके थे, पोता सो चुका था। अम्मा को देखकर दोनों के चेहरे का भाव मैंने पढ़ लिया था। शांत खड़ी रहकर उनकी प्रतिक्रिया देख रही थी। बेटा बिस्तर से उतरा और कुटिलता से बोला, ‘अम्मा कहाँ रुक गयी थी?’ हम कब से तुम्हें ढूंढ रहे थे, मगर तुमको तो आज़ाद रहना पसंद है ना सो चले आये। मुन्ना थकान और नींद से रो रहा था। सोचा ये सो जाए तब तुम्हे खोजे।
 
अम्मा ने पल्लू से चेहरे का गीलापन पोछा, कुछ नहीं बोली। हाँ मुझसे बोली, ‘बिटिया अब तुम जाओ।’
 
पुष्पा के शब्द भीगे थे, वो कह रही थी अब लाख जतन कर ले, अम्मा का संसार ये आश्रम ही रहेगा और फिर गंगा घाट की सीढ़ियां जहाँ लेटने के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता। जल, गंगा का मिल जाता है और भोजन; ऐसे धनाढ्य आते हैं जो माता-पिता के नाम पर गरीबों को भोजन कराते हैं। फिर एकदिन यही आश्रम के लोग या सरकारी लोग अम्मा का संस्कार कर देंगे बस।
मैंने अपने अकेलेपन को देखा, अपने भीतर झाँका, सोचा, जो छोड़ गया, वो अम्मा के गर्भ में रहा था। मेरा चयनित संसार मेरे अनुकूल नहीं तो क्या? ज़िन्दगी मुझे नए रिश्तों के चयन को आमंत्रित कर रही है और मैं पुष्पा का हाथ पकड़कर बोली ‘जाओ सो जाओ’ अब मैं ठीक हूँ……….’ज़िन्दगी।‘

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