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चिल्ला जाड़ा, चिडिय़ाघर दहाड़ा

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Dr. Suresh Awasthi

गुरुकुल में शिष्यों ने गुरुदेव के सामने चिडिय़ाघर में जाड़े की पिकनिक मनाने का प्रस्ताव रखा तो गुरुदेव नाराज हो गए। बोले,’क्या देखने जाओगे चिडिय़ाघर में? बंदर देखने हैं तो शहर के जिस मोहल्ले में निकलों खों खों
करते मिल जाएंगे। छोड़ा सा चूक जाओ तो नोच खाएं। सड़कों टहलते छोटे बड़े कुत्तों की फौज, आवारा जानवर क्या शहर किसी चिडिय़ाघर से कम है जो वहां पिकनिक मनाने जाएं ? ‘पर गुरुदेव, चिडिय़ाघर में तो शेर व भालू भी देखने को मिलेंगे ? एक शिष्य ने कहा तो गुरुदेव ने उसे घूर कर देखा। बोले,’शेर देखना है तो उन लोगों को खोज कर देख लो जो अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्या करके लूटपाट कर रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि शेर उनसे ज्यादा खूँखार होते हैं। फिर पालतू शेर देखने हो उन खाकी बर्दी वालों से मिलो जो किसी नेता की चमचागीरी में उसके पांव पर अपनी टोपी रख देते हैं। गुरुदेव की बात सुन कर शिष्य मुस्करा उठे परंतु उन्होंने बात जारी रखी। दूसरे शिष्य ने कहा,’गुरुदेव चिडिय़ाघर में भालू भी तो है ? गुरुदेव जैसे पूरे मूड में थे। बोले, ‘भालू देखने का इतना ही शौक है तो उन जमाखोरों से मिलो जिनका देश के सभी मधुमक्खियों के छत्तों (गोदामों) पर कब्जा है। जो मंहगाई बढ़ाने के लिए कालाबाजारी के पेड़ पर चढ़ते हैं। उलटी तरफ से चढ़ते हैं। शिष्यों को गुरुदेव की बातों में मजा आने लगा था। तीसरा शिष्य बोला, ‘परंतु गुरुदेव सांप व अजगर तो वहीं देखने को मिलेंगे ? गुरुदेव जोर से हंसे और बोले, ‘बेवकूफो वहां तो नकली अजगर और सांप हैं। असली अजगर देखने हैं तो उनसे मिलो जो भ्रष्टाचार के रास्ते पूरे शहर का विकास निगलने को मुंह फैलाए बैठे हैं। जो मिलें, कोठियां व सड़कें निगल जाते और सांस तक नहीं लेते। सांपों से मिलना है तो केवल अपने आसपास ध्यान से देख कर अपनी आस्तीनें टटोलो बस। सांप ही सांप मिल जाएंगे। इसके बावजूद शिष्य पीछे नहीं हटे। एक अन्य शिष्य ने कहा,’गुरुदेव, सुना है कि जाड़े में चिडिय़ाघर में दुर्लभ पक्षी जैसे गौरैया के भी दर्शन हो जाते है ? अब गुरुदेव गंभीर हो गए। थोड़ी देर खामोश रहे फिर बोले, ‘सच है कि अब शहर से मीठे व सच्चे रिश्तों की गौरैया उड़ चुकी है। हो सकता है कि चिडिय़ाघर के घने जंगल अथवा पिंजड़ों में कैद कर ली गयी हो. परंतु मुझे लगता है कि रिश्तों की गौरैया को बचाने के लिए उसे कहीं जाकर देखने की नहीं बल्कि उसे बचाने व वापस आंगन तक लाने की जरुरत है। आंगन तक लाने भर से भी काम नहीं चलेगा, उसे अपने प्रेम का दाना, सुरक्षा का पानी व विश्वास की धूप भी देने की जरूरत है। उसे आंगन में ही नहीं दिलों में पालने की जरूरत है। काश यह गौरैया फिर से हमारे जेहनों में लौट सके?

काश… काश…ऐसा हो। पर यहां तो जैसे हर घर में एक चिडिय़ाघर बनता जा रहा है। गुरुदेव क्या कहना चाह रहे हैं शिष्य अच्छी तरह से समझ रहे थे। गुरुदेव भी चाहते थे कि शिष्य इस सच को समझें। एक शिष्य ने माहौल को थोड़ा हल्का करने के उद्देश्य से कहा, ‘पर जाड़े में पिकनिक तो बनती ही है। गुरुदेव थोड़ा संयत हुए बोले, ‘जरूर बनती है। आइए हम लोग बाहर चबूतरे पर खड़े होकर आते जाते लोगों को देखते हैं कि लोग जाड़े से बचने के लिए लोग कैसे
लदेफदे, ढकेमुंदे, सिकुड़े सिमटे, अकड़े जकड़े आ जा रहे हैं। तैयारी कर लेते हैं, उन्हें गरमागरम चाय बांटते हैं। इससे जाड़े की मार की सही तस्वीर दिखेगी। इतना कह कर गुरुदेव शिष्यों के साथ बाहर आ गए। दिन के दो
बजने वाले थे परंतु सूर्यदेव कोहरे से बाहर नहीं आ पाए थे।

कुहरे से सूरज कहे,
खुद को जरा समेट।
हफ्ता पूरा हो गया
किये धरा से भेंट ।।

कोरिंगा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी – दक्षिण का सुंदरवन

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Dr. Rakesh Kumar Singh
एक तरफ फैला हुआ विशाल नीला समुद्र और दूसरी तरफ दूर-दूर तक फैली हुई वृक्ष की कतारें। पानी की लहरों से जूझती हुई वृक्षो की मिट्टी से बाहर निकली हुई छोटी-छोटी हवाई जड़े। जंगल को चीरता हुआ अंदर तक बहता समंदर। मछलियों, वन्य जीवों, तितलियों और पक्षियों का अद्भुत, अप्रतिम औऱ अनोखा संसार। ये हैं भारत के कोरिंगा मैनग्रोव वन।
मैनग्रोव वनों का उल्लेख आते ही बरबस सुंदवन स्मृति पटल पर अंकित हो जाते हैं। और हों भी क्यों ना, पर्यटन के मानचित्र पर मैनग्रोव वन के रूप में भारत में केवल सुंदरबन का ही उल्लेख मीलता है। परंतु कम ही लोगों को ज्ञात होगा कि लगभग 236 वर्ग किलोमीटर में फैले कोरिंगा के मैनग्रोव न केवल अपने आप में आकर्षक हैं बल्कि हमारे देश की जैव विविधता के ध्वजा वाहक भी हैं। लगभग एक वर्ष पूर्व हमें भी कोरिंगा जाने का मौका मिला। कोरिंगा वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी आन्ध्र प्रदेश के ईस्ट गोदावरी जिले के काकीनाडा शहर से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ जाने के लिए ट्रेन से काकीनाडा पहुंचा जा सकता है। राजमुंद्री एयर पोर्ट से 70 किलोमीटर की दूरी टैक्सी से आसानी से पूरी की जा सकती है।
एयर पोर्ट से हॉटेल पहुंचते पहुंचते हमें शाम हो गयी थी। हमने रात को काकीनाडा में एक होटल में रुक कर सुबह की प्लानिंग की।। काकीनाडा स्मार्ट सिटी होने से यहाँ सभी प्रकार के होटल उपलब्ध हैं। सी फ़ूड के शौकीनों के लिए यहाँ कई रेस्टोरेंट हैं। तय प्लान के अनुसार हम सभी सुबह पाँच बजे टैक्सी से कोरिंगा के लिए रवाना हुए। रास्ते में पड़ते नारियल के पेड़ यात्रा को मनोहारी बना रहे थे। सैंक्चुअरी में प्रवेश करते ही चारों तरफ फैले मैनग्रोव के जंगल और उनकी हवाई जड़ें हमारा स्वागत कर रही थीं। गोदावरी और गौतमी नदियों के डेल्टा पर बसा  कोरिंगा जैसे हमारा स्वागत करने के लिए  बाहें पसारे था। वाटर चैनल में अंदर तक प्रवेश करता समंदर एक उत्तेजना पैदा कर रहा था। मोटर बोट के द्वारा काकीनाडा की खाड़ी तक का सफर अत्यंत रोमांचक व प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। चारों तरफ उड़ते पक्षियों का हुजूम और समुद्र की उठती हुई लहरें किसी भी सैलानी को बरबस आकर्षित कर लेती है। यही से काकीनाडा की खाड़ी और बंगाल की खाड़ी के बीच बना 18 किलोमीटर लंबा बालू का द्वीप दिखाई पड़ता है। यह वही द्वीप है जहां पर दुर्लभ प्रजाति के कछुए एक निश्चित समय पर हजारों किलोमीटर का सफर करके प्रजनन हेतु आते हैं।
वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर्स एवं बर्ड वाचर्स के लिए यह जगह किसी जन्नत से कम नहीं है। यहां 120 से भी ज्यादा प्रकार के पक्षियों को देखा जा सकता है, जिसमें से प्रमुख है पेंटेड स्टोर्क, स्पॉट बिल्ड पेलिकन, ओरिएंटल व्हाइट आइबिस, ओपन विल स्टार्के। इसके अतिरिक्त प्रकृति ने यहाँ दुर्लभ प्रजाति के व्हाइट बैक्ड वल्चर और लॉन्ग बिल्ड वल्चर को भी संजो के रखा है। गडेरु और कोरिंगा नदियों की डेल्टा बनाती शाखायें इस वन क्षेत्र की खूबसूरती में चार चाँद लगा देती हैं। फिशिंग कैट जैसे माहिर शिकारी की भी ये पनाहगाह है। सैलानियों के लिए यहाँ बना स्काई वाक प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। हालांकि शाम होते होते हम थक चुके थे लेकिन समंदर में उठती लहरें, सन्नाटे को चीरती पक्षियों की आवाज़ें औऱ 24 प्रकार के मैनग्रोव वृक्षो की यादें अब भी हमारे मन मष्तिष्क को तरोताज़ा कर रही थीं।
सचमुच दक्षिण के ये सुंदरबन आज भी प्रकृति की वो शानदार धरोहर हैं, जिनकी कल्पना हम सिर्फ फ़न्तासी में ही कर सकते हैं।

Marginal exports growth

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G.P Varma

The exports data in December have shown a marginal growth due to uncertain global cues and challenges on the domestic front.

China’s exports contracted in December 2018 highlighting fragile global conditions. However, exports during the month was close to USD 28 billion with a growth of just 0.34 per cent, even when the weakening global economic outlook are showing no signs of respite said the president of Federation of India Export Organization (FIEO) Ganesh Kumar Gupta.

But during the month, the sectors which were showing high growth in the previous months are now witnessing nominal growth or marginal growth such as the Petroleum sector, Organic  Inorganic Chemicals, Plastic and Linoleum, Electronic goods and RMG of all textiles.

All major labour-intensive sectors of exports like Gems and Jewellery, Engineering, Leather and Leather products, Man-made yarns, made-ups, Handloom products, commodities including most Agriculture products are now in negative territory.  Seventeen out of 30 major product groups were negative territory during December, 2018 the president of Federation of India Export Organization (FIEO) Ganesh Kumar Gupta said.

However on the imports front, the growth in December, 2018 was on negative side with -2.44 percent mainly due to reduction in gold and pearls, precious and semi-precious stones import. Spin-off effect due to global trade war has also impacted the country’s trade impacting both imports and exports.

FIEO Chief once again reiterated his demand for urgent and immediate support including augmenting the flow of credit and better fiscal support. President FIEO exuded confidence that despite current growth trends the exporters will manage to do well ending the fiscal with merchandise exports of USD 340-350 billion with the timely and much-needed support of the government.

Now sugar free sugar

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G.P. Varma

Good news for the diabetic patients. They can have now “sugar-free” natural sugar made from the sugar cane leaves.

The natural sugar has been produced at the India’s prestigious National Sugar Institute (NSI). The diabetic persons can consume it safely.

According to the director of the NSI Professor Narendra Mohan the scientists at the Institute have succeeded in producing natural sugar from the sugar cane leaves and the bagasse- the waste of cane sugar obtained by crushing it for juice.

The Xylitol produced with bagasse (waste of the crushed cane) was sugar free and could be consumed by the diabetic patients for sweetening any dish.

The Xylitol would have low calories but would be rich in sweetness said Professor Narendra Mohan.

The Xylitol at present is produced using chemicals and the process of producing it was also complicated. It is being used in Chewing- Gum  and chocolate he added.

The Xylitol produced using sugar cane leaves and the baggase. It has no chemical contents and it taste just like ordinary sugar.

“We imported sugarcane leafs and its baggase from ten different region to ensure that the taste of the sugar produced with them remained the same and was not affected by the geographical factors of different areas. It was found that there was no change in the taste of the Xylitol produced with sugarcane leafs and bagasse grew in different regions,” Professor Mohan said.

“The new technique of producing Xylitol would be beneficial in three ways. Firstly we will get sugar for diabetic patients. The waste baaggse would not be burnt and the environment would be pollution free and thirdly the sugar mills would have additional earning from selling the Xylitol produced with the baggase”, he added.

Engineering students sets up welfare Cell for stray dogs in the campus

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Generally, people are least concerned about the stray dogs. They want to get rid of them by any means. But the budding engineers at the Indian Institute of Technology Kanpur and the professors are an exception to this attitude. They are very much concerned about the welfare and safety of the stray dogs in the campus.

They have set up an animal welfare cell at the Institute with consent of the IIT-K authorities. The cell would look after the proper rehabilitation of the stray dogs and would also check their nuisance.

The formation of the welfare cell is the outcome of an incident that took place last year in the campus. The Institute authorities had decided to remove the stray dogs from the campus. The dog catching squad was put into service. People in the dog catching squad  trapped a stray dog used to live in the gallery of a boys’ hostel. They mercilessly dragged the dog from the gallery and threw it in the van parked outside the hostel gate. They took away the dog to an unknown destination and left it there.

In the evening when one of the students came and found the dog was missing he enquired about the dog. The security men narrated him the whole story. The student  was pained to hear it and demanded that the dog should be brought back as it was not a threat to them.

He even lodged a police complaint of the missing dog but the dog could not be traced.

The incident upset other students also. They held a meeting and asked the authorities of the institute not to remove the stray dogs from the campus. They also decided to raise funds for running an open mess for the stray dogs. Several professors also joined the scheme of open mess for the dogs. The system continued.

This year the students and the professors asked the IIT administration to create a “welfare cell” for the stray dogs. They would raise funds to run the cell and feeding the stray dogs. The dogs would not be removed from the campus till they proved to be harmful, they decided.

The IIT administration accepted the proposal and first of its welfare cell was created to look after the stray dogs.

According to the deputy director of the Institute Professor Manindra Agarwal the cell would check atrocities on the stray dogs in the campus and would also take decision about removing the unwanted dogs from the campus. It would also check the growing population of the stray dogs in association with the Municipal Corporation.

As per the guidelines the cell would consist of a chairman and six members. The director of the Institute would nominate the chairman of the Cell while an assistant registrar, deputy registrar and joint registrar (legal Cell) would be the secretaries. Two students and a non teaching staff would be the members of the cell.

“The animal welfare cell will not require huge funds. The funds would easily be raised for the welfare of the dogs in the campus,’he said.

वाष्प स्नान (Steam bath) – सौंदर्य वर्धक एवं मोटापा नाशक प्रयोग

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Dr. S.L. Yadav
लाभ एवं सावधानियाँ-
वाष्प स्नान (Steam bath )
वाष्प स्नान (स्टीम बाथ) मानव जीवन के लिए किसी वरदान जैसा ही है। जो मनुष्य शरीर की  कोशिकीय (cell ) स्तर पर सफाई करके किसी भी बीमारी से बचाती है एवं आयी हुई समस्याओ को दूर करती है। किसी बक्सेनुमा चेम्बर में बैठ कर स्टीमर या कुकर के सहारे होने वाला स्नान,वाष्प स्नान कहलाता है। स्टीम बाथ बिभिन्य तरीके से किया जा सकता है। इसमें एक निश्चित तापमान पर एक निश्चित समय तक बिना किसी कपडे के स्टीम चैम्बर में बैठना होता है जिसमे गर्दन के नीचे पूरे शरीर में भाप के माध्यम से खूब पसीना निकालता है यह सब किसी विषेशज्ञ की देख रेख में होता है। वाष्प शरीर की मृत कोशिकाओ को बाहर निकाल कर त्वचा को साफ कर देती हैं जिससे त्वचा मुलायम व चमकदार हो जाती है। शरीर की
 रोग प्रतिरोधक क्षमता  बढ़ जाती है जिससे सर्दी से होने वाले सभी रोगों से बचाता हैं। शुरूआती दौर की कैंसर कोशिकाओं को ख़त्म करने में मद्त मिलती हैं। वजन कम करके शरीर को इन्चेज में कम करके शरीर को सही आकर प्रदान करता हैं।
स्टीम बाथ के लाभ –
वाष्प स्नान के प्रमुख लाभ इस प्रकार है –
1-शुरूआती दौर की कैंसर कोशिकाओं को ख़त्म करने में मद्त मिलती हैं।
2-वाष्प शरीर की मृत कोशिकाओ को बाहर निकाल कर त्वचा को साफ कर देती हैं जिससे त्वचा मुलायम व चमकदार हो जाती है। 
3-शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है जिससे सर्दी से होने वाले सभी रोगों (इन्फ्लूएंजा,जुखाम,खांसी,ठण्ड) से बचाता हैं।
4-वाष्प स्नान में पसीना होने में ऊर्जा की खपत होती है जो वसा (चर्वी /फैट ) एवं कार्वोहाइड्रेट से मिलती है जिससे वजन घटता है एवं शरीर को इन्चेज में कम करके शरीर को सही आकर प्रदान करता हैं।
5-मांसपेशियों की थकान को दूर करता है। 
6-जोड़ो लचीला बना देता है जिससे गठिया,अर्थराइटिस जैसे रोगों के दर्द में आराम देता है। 
7-भाप स्नान शरीर को ऊर्जावान बनता है। 
8-रक्तसंचार बढ़ा कर रक्त को शुद्ध (साफ ) करता है। 
9-नस नाडियों को लचीला बना कर रक्त अवरोध को दूर करता है।
10-किडनी को साफ करके उसे मजबूत बनता है। 
11-प्रजनन संबंधी समस्याओं को दूर करता है। 
12-भाप स्नान से कब्ज को दूर करने में मदत मिलती है। 
13-वाष्प स्नान के नियमित अभ्यास से बैक्टीरिया,वायरस एवं फंगस नष्ट हो जाते है जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदत मिलती है।
14-वाष्प स्नान त्वचा के नीचे जमा गंदगी को निकालकर त्वचा रोगों के होने से बचाता है। 
15-मल निष्कासक अंगों (त्वचा,मूत्राशय/किडनी,मलाशय,केफ़डे ) को सक्रिय बनता है। जिसके कारण किसी भी रोग को होने की सारी सम्भावना को ख़त्म करता है। 
16-वाष्प स्नान मन को शांत करके तनाव,चिंता,अवसाद जैसी विकराल समस्याओ से निजात दिलाने का सबसे अच्छा एवं सरल उपाय है। नींद की समस्या दूर हो जाती है । 
वाष्प स्नान में सावधानियाँ –
खाली पेट (भोजन के 1 से 1.5 घंटे बाद ) लेना चाहिए। 
वाष्प स्नान से पहले आधे से 1 लीटर पानी जरूर पीना चाहिए। 
बिना कपड़े के(नग्न ) वाष्प स्नान लेना चाहिए। 
सम्भव हो तो सरसो के तेल की मालिश करके वाष्प स्नान लेना चाहिए।
ह्रदय की समस्याओ एवं उच्च रक्तचाप(काफी जादा ) में चिकित्स्क की देख रेखा में लेना चाहिए। 
कुछ त्वचा रोगों में भी सलाह के साथ ही लेना चाहिए। 
वास्प स्नान 10 से 20 मिनट अपने शरीर की क्षमतानुसार लेना चाहिए। 
वाष्प स्नान के बाद सामान्य पानी सर्दियों में गुनगुने पानी से स्नान जरूर करना चाहिए।
किसी केमिकल वाले साबुन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्राकृतिक पेस्ट 
(मुल्तानी मिटटी सोप,बेसन,बॉडी पैक)का प्रयोग किया जा सकता है। 
वाष्प स्नान लेते समय सिर को पानी से गीला करके गीली तौलिया लपेटकर स्टीम  बॉक्स में जाना चाहिए।
वाष्प स्नान के बाद यथासंभव साफ कपड़े पहनना चाहिए। 
अगर वाष्प स्नान के समय उलटी,चक्कर या साँस की तकलीफ लगे तो तुरंत स्टीम चेम्बर
 से बाहर आ जाना चाहिए।
विशेष- वाष्प स्नान प्र्तेक व्यक्ति के लिए लाभदायक है इसे प्र्तेक मौसम में किया जा सकता है। 
 वाष्प स्नान के समय शरीर पर धातु के गहनों का प्रयोग न करें।
वाष्प स्नान में खूब पसीना आता है जिससे शरीर में कभी कभी नमक की मात्रा कम हो  
जाती है जिसे बाद में नमकीन नाश्ता से पूरा किया जा सकता है।

चुनौतियां ही तो ज़िंदगी की गति हैं….

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Dr. Kamal Musaddi

 ‘ज़िंदगी जुल्म सही,जब्र सही, गम ही सही
दिल की फरियाद सही, रूह का मातम ही सही’

लिखने वाले ने मन की किस परिस्थिति में ये शेर लिखा होगा,कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इसका अंदाजा लगा सकता है क्योंकि ज़िंदगी की विवशताओं पर वश नही और जीना बाध्यता होती है।फ्रायड ने कहा है कि संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिसने ज़िंदगी से हार कर जीवन में कभी न कभी असमय मृत्यु की चाहत न कि हो,हाँ जो कमजोर होते हैं,कायर होते हैं,स्वार्थी होते हैं,आक्रोशित होकर परपीड़ा में सुख लेने वाले होते हैं,वो पलायन कर जाते हैं मगर जो विवेकशील होते हैं सिर्फ अपने नही अपनो के बारे में भी सोचते है,वो लड़ते हैं। खुद से समाज से विसंगतियों से और विपत्तियों से।

वो देते हैं चुनौती ज़िंदगी को और कहते हैं कि तूने अपनी ताकत दिखाई अब मेरा हौसला देख। हम अगर सचेष्ट हैं तो हमें अपने आस – पास ऐसे तमाम चरित्र मिल जाएंगे जहां चुनौतियां शर्मशार हुई हैं।

मेरा भी सामना एक ऐसी ही दिलेर महिला से हुआ।गोरी चिट्टी आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी पेशे से एम.बी.यस डॉक्टर और कर्म से स्पेसल चिल्ड्रन की मसीहा मददगार,प्रशिक्षक। परिचय दोस्ती में बदला और मनोभावों के आदान प्रदान में वो अपनी ज़िंदगी के पन्ने खोलती गयी ।उसकी ज़िंदगी के पन्ने खुल रहे थे,और मेरी संवेदनाओं की गठरी वो बोल रही थी।मैं विचलित हो रही थी और उसके मौन होते-होते मेरे आसूं दुबक कर बाहर आ ही गए।

वो बता रही थी डॉक्टरी पास करते ही एक पैथोलॉजिस्ट से माँ पिता ने विवाह करा दिया।पति ने उसे प्रैक्टिस करने नही दी बल्कि अपने कलीनिक में एक क्लर्क बना दिया।रिपोर्ट लिखना पैसों का हिसाब करना वगैरा- वगैरा।उसी दौरान ईस्वर की कृपा हुई उसे माँ बनने के संकेत मिले पति के उपेक्षित रवैये से आहत मन लिए वो अल्ट्रासाउंड मशीन में अपने गर्भस्थ शिशु को देखती उससे बातें करती और कहती देख तू मुझे कभी अकेला मत छोड़ना हर वक़्त मेरे साथ रहना।

इतना कह कर वो कुछ पल के लिए ख़ामोश हुई फिर गहरी सांस लेकर बोली शायद उसने मेरी बात दिल से लगा ली और दुनिया में आया तो एक स्पेसल चाइल्ड बन कर जिसमे ऑटिज्म, हैंडीकैप्ट और रितार्डिनेस तीनों समस्याएं हैं जो एक पल के लिए भी मुझे नही छोड़ना चाहता रात को मेरे गले लग कर लेटता है मैं गर्दन इधर से उधर नही कर सकती वो अपने हर काम के लिए मुझ पर निर्भर है ।अपने बच्चे को इस हाल में देखकर मन टूटता है मगर मैंने उसी टूटन को अपनी ताकत बना लिया।आज मै ऐसे ही बच्चों का एक प्रशिक्षण केंद चला रही हु जिसमे लगभग दो सौ बच्चे हैं मेरे बेटे के साथ के पलों को मैं और बच्चों में भी बाट देती हूं और सोचती हूं कि शायद जिंदगी ने मुझे ऐसा बेटा देकर इन तमाम बच्चों के लिए प्रशिक्षण दिया है कि मैं उनकी भाषा ,उनकी हरकत ,उनकी तकलीफो को समझ सकू।

मेरा दर्द और गहरा हो गया जब उसने वताया कि बेटे की उपेक्षा सहन ना कर सकने के कारण उसने पति से तलाक ले लिया और उससे भी ज्यादा मैं दर्द की पराकाष्ठा तक पहुच गयी जव उसने बताया कि उसके इकलौते इंजीनियर भाई ने अपनी बहन का दर्द देखकर कभी भी विवाह ना करने की कसम खा ली है।

वो बता रही थी मैं दर्द से भीग गयी थी वो मुस्कुरा रही थी और कह रही थी आप आईये कभी हमारे स्कूल जिन्दगी का हर दर्द भूल जाएंगी सच कहूँ जो ज़िंदगी के बारे में कुछ समझते ही नही असली जीवन वही तो है सच कहूँ तो मैं नही वो बच्चे मुझे सम्हालते है जिनमें एक मेरे जिगर का टुकड़ा भी है,मेरी ज़िंदगी है।

Grooming with new style

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Kanchan Gupta

The fashion in clothing is taking twist and turns very now and then. We as professionals remain deeply concerned to deliver the latest to the society. With the changing season and celebrations around we have to take care of the mood and climatic conditions.

Right now bling is in full sway, anything related to sequins, shimmer and dazzle is liked by all the classes. Sequined gowns, shimmer dresses, sparkling indo western dresses and bling lehenga are in vogue. Girls and ladies are looking forward to adorn themselves in dazzling pastel shades with slight hand embroidery and lace work. The heavy fabrics are assembled with designer laces to give a light party look.

When it comes to heavy partywear garments hand embroidery is the first choice. It is an ensemble of heavy fabrics with elaborate silhouettes and mix of swarovski and kundan work.

Hence, what are you waiting for. Be a dazzling sensation and amaze the folks with galore. As becoming a diva is what every woman wants.So…be a Diva….live life QUEEN size.

खुद का फैसला और ज़िंदगी

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Dr. Kamal Musaddi
कहते हैं ज़िंदगी वो है जो अपने फैसलों पर अपने अनुसार जी जाए बाकी तो बस सामंजस्य है।क्या सच में ज़िंदगी सिर्फ वो है जो अपने फैसलों पर जी जाए ऐसा हो सकता है क्या ,क्या कोई आज तक अपने फैसलों पर जी सका है।जन्म से लेकर पराधीनता की उम्र तक फैसले बड़े लेते हैं।क्या खायेगा क्या पहनेगा कहाँ पढ़ेगा यहां तक कि किससे रिश्ते रखेगा और किससे दोस्ती।
फिर एक दिन वह आता है जब इंसान अपने आपसे रूबरू होता है,खुद को पढ़ने लगता है और अपनी भावनाओं के आधीन होकर जीवन को ढालने लगता है तब उसे आवश्यकता होती है ऐसे अपनों की जो उसकी भावनाओं को समझ सके और सिर्फ समझ ही न सके बल्कि उसकी सुरक्षा का सम्बल बने।ये उम्र शुरू होती है जब उसका जज्बाती विकास होता है और वो उम्र होती है किशोर उम्र।मनोवैज्ञानिकों ने इसे तूफानी उम्र कहा है,जहां शरीर के विकास के साथ -साथ भावनाओं में भी सुनामी आने लगती है।जिस उम्र में  कपड़े जल्दी-जल्दी छोटे होने लगते है और जिस तरह एक किशोर के कपड़ो की सियन अक्सर उधड़ने लगती है वैसे ही उनकी भावनाओं की सियन भी उधड़ने लगती है।वो बेचैन रहता है वो भ्रमित रहता है,वो परेशान रहता है।लड़कियों को लड़के आकर्षित करने लगते है और लड़कों को लड़कियां।इस आकर्षण और बेचैनी को नाम दे देते है वो प्यार का मुहब्बत का और आज की भाषा में अफेयर और रिलेशन्स का।
बस यहीं से शुरू हो जाती है वो कश्मकश जिसके समर्थन में कहने वाले कह गए कि ज़िंदगी वो होती है जो अपने फैसलों पर जी जाए।मगर कितने किशोर होते है जो अपने इस रिलेशन को अपने फैसलों से जी पाते है और जिन्हें जीने की छूट मिल जाती है वो खुद कितने दिन इसे सम्हाल पाते हैं।
आज के दौर में जब लड़के-लड़की की परवरिश में कोई भेद भाव नही,शिक्षा में कोई अंतर नही उपलब्धियों पर कोई रोक नही तो ये निकटता कभी-कभी बच्चों का गहरा नुकसान भी कर देती है भावनात्मक रूप से कमजोर किशोर कभी -कभी आत्म उत्पीडन और कभी गुनाह का रास्ता पकड़ लेते हैं और तब समाज  तमाम तरह के सवालों से जूझने लगता है कि क्या  लड़कियों का खुलापन,बच्चों को आपसी मेल -जोल की छूट कहीं गलत तो नही।
मुझे याद है एक समाचार पत्र की एक खबर ने मेरा मन झकझोर दिया था कि एक ग्यारहवीं – कक्षा के छात्र ने फेसबुक लाइव पर अपनी मित्र से झगड़ा होने पर उसे दिखा-दिखा कर अपने हाथ की नस काट ली उधर से वो चीखती रही और ये रुका नही और अंत में अधिक रक्तस्राव से उसकी मौत हो गयी।
आये दिन हम किशोर उम्र के लड़के -लड़कियों की आत्महत्या ,आत्म उत्पीड़न ,प्राण घातक हमले,एसिड अटैक या फिर रिवेंजफुल शारीरिक उत्पीड़न की खबरें सुनते और पढ़ते रहते है।परिपक्व लोगों का मन पीड़ा से भर जाता है।सिर्फ़ पीड़ा नहीं आत्मग्लानि से भी कि आखिर परवरिश में कहां चूक हो गयी क्यों हम उन्हें भावनाओं की शक्त नहीं दे पाए।इन सवालों के साथ ही हमारे मन में उत्तर भी जागते हैं कि  हमने अतिरिक्त मोह ,भय,और आधुनिकता की होड़ में उसे भावनात्मक संतुलन रखना सिखाया ही नहीं और बिना विवेक के उसे मनचाही ज़िंदगी जीने की छूट दे दी।
तमाम दुःखद घटनाओं का विश्लेषण करने पर एक ही बात समझ में आती है कि ज़िंदगी वो है,जो अपने फैसलों पर जी जाए।मगर फ़ैसले लेने की समझ का विकास होने तक हमें युवा पीढ़ी और किशोर पीढ़ी को अनुभवी लोगों की बात सुनने को प्रेरित करना चाहिए और फैसले लेने लायक बनाना चाहिए।

दूसरी बेटी

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Prachi Dwivedi
मिस्टर और मिसेज ओझा पेशे से प्रोफेसर थे, और उनका एकलौता बेटा प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान में लेक्चरर था। बेटे की शादी को पांच साल हो गए थे। चारो तरफ ख़ुशी का माहौल था। बहू की गोदभराई थी। पंद्रह दिन बाद बहू को प्रसव पीड़ा होने पर अस्पताल ले जाया गया। सभी लोग नन्हे मेहमान के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, अहमदाबाद से ओझा जी की बेटी और दामाद भी आ गए थे। थोड़ी ही देर बाद सिस्टर ने आकर कहा, “बधाई हो, बेटी हुई है।“ ओझा जी का चेहरा थोड़ा उतर गया, बोले कुछ नहीं, बस हल्का सा मुस्कुरा दिए। ओझा जी की बेटी ने कहा कि, बेटी तो थी ही, बस बेटा हो जाता तो भैया का परिवार पूरा हो जाता।“ मोहल्ले वालों ने भी सहानुभूति जताते हुए कहा कि दूसरी बार भी लड़की हो गयी, कोई बात नहीं, अगली बार लड़का ही होगा।
पहली बार जब बहू के पांव भारी हुए थे, तब भी सब बहुत खुश थे। पूरे मोहल्ले में मिठाई बांटी थी खुद ओझा जी ने मूंछों पर ताव देते हुए घर जा जाकर सभी को ख़ुशी से बताया गया कि बेटी हुई है, घर में लक्ष्मी आई है। पड़ोस में रहने वाले कुछ अन्य बुद्धजीवीयों से एक बार लिंग भेद पर सर्वप्रचलित बहस में ओझा जी ने गर्व से बताया था कि वे कितने सौभाग्यशाली हैं जो उनके घर पोती हुई है। देशभर में चल रहे बेटी बचाओ आंदोलन से जुड़े सारे पहलू उसदिन ओझा जी ने सबको समझाए थे और खुद भी ‘बेटी- बेटा एक समान’ सिद्धान्त की जोरदार पैरवी की थी।
फिर ‘दूसरी’ बार लड़की होने पर ओझाजी के माथे पर बल क्यों पड़ गए? क्या वास्तव में उन्हें मोहल्ले वालों की सहानुभूति की जरुरत थी? इसीलिए की ‘दूसरी लड़की’ हो गयी। तो क्या पहली लड़की होने पर, सबके सामने जो ख़ुशी जाहिर की गयी, स्वयं को दूसरों के सामने गौरवान्वित महसूस करता हुआ दिखाया गया; वो सब दिखावा और ढकोसलेबाज़ी थी? तो क्या अभी तक ओझा जी जैसे बुद्धजीवी लोग भी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘नारी शक्ति’, बेटियों से जुड़ी और भी न जाने कितनी योजनाओं को सिर्फ ‘पहली बेटी’ तक ही अपना पाएं हैं? क्या सिर्फ अपने को बड़ा दिखाने के लिए और अपने अंदर के अहम् को संतुष्ट और न्यायायित करने के लिए ऐसे लोग ‘पहली बेटी’ होने पर ढोल नगाड़े लेकर जनवाचन करते फिरते हैं?
ओझा जी सिर्फ अकेले नहीं हैं, समाज के अधिकांशतः लोग आधुनिकता के साथ हुए बदलाव में खुद को इतना ही बदल पाए हैं और अगर किसी ने अपने आपको इस आधुनिकता में अव्वल समझते हुए हुए ‘दूसरी बेटी’ के जन्म पर थोड़ी बहुत ख़ुशी सबको दिखा दी है, तब भी उस बेटी को ‘दूसरी लड़की’ होने का दंश झेलते रहना पड़ता है।अपवादों को छोड़कर परिवारों में पहली बेटी के बाद फिर ‘दूसरी बेटी’ होने का दर्द उतना ही पुराना है जितना भौतिकतावादी सभ्यता का इतिहास। क्योंकि यह सभ्यता मानव मूल्यों पर नही उनके अवमूल्यन पर टिकी है इसलिए एक बेटी होना तो इस सभ्यता में खासियत समझी जा सकती है लेकिन दूसरी बेटी होना खटकता है। बेटी एक होती है तो ख़ुशी होती है लेकिन उतनी नहीं जितने एक बेटे के होने पर होती है, बेटा न होने की कसक मन को मसोसती है, तो ‘अगली बार’ बेटे के जन्म को परिवार की संपूर्णता से जोड़ा जाता है। और ये चाह इतनी गहरी होती है कि ‘अगली बार’ जरूर कहना पड़ता है। इसलिए फिर बेटे की चाह में जितनी भी बेटियाँ बढ़तीं है, परिवार में उतनी ही मायूसी बढ़ती है।
दूसरी और तीसरी बार भी बेटी होने के बाद परिवार का मुखिया फिर ‘डिप्रेशन’ जैसी मानसिक बीमारी से ग्रसित होता देखा जा सकता है। भविष्य को लेकर वह असुरक्षित, अशक्त और असंतुलित महसूस करने लगता है। बेटी की परवरिश, उसका विवाह, उसके पश्चात उसके अपने परिवार के अनेक दायित्वों को निभाने में समय के साथ निष्क्रियता की ओर बढ़ते परिवार के मुखिया को एक बड़ी चुनौती सी लगती है।
“बेटा हो जाता तो बुढ़ापा सुकून से कटता। अब क्या है, कब्र में लटके पैरों तक अपनी रोटी, दाल कमानी होगी, बेटी के रिश्ते निभाने होंगे।“ ये विचार परिवार के मुखिया के जेहन में तैरने लगता है। भले ही ऐसे परिवार के लोग अपने अंतःमन के इस दर्द को अपनी मासूम बेटियों तक शब्दों के माध्यम से न पहुँचने दे किन्तु असहज होते मनोवैज्ञानिक परिवर्तन उनके भीतर की व्यथा, खीझ और हताशा मासूम बेटियों के दिल और दिमाग को अछूता नहीं छोड़ते। ऐसे में माता-पिता के प्रति पूर्ण समर्पित बेटियाँ कभी अपने दुःख दर्द, आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को उनके सम्मुख रखकर उन्हें और मायूस नहीं करना चाहती। वह अपनी जीवन बगिया में प्रातः के सूर्य की उस कोमल किरण की प्रतीक्षा ही करती रह जाती हैं जिसको पाकर कितने ही सुषुप्त पुष्प खिल उठते हैं। फिर भी वो अपनी जीवन बंसी पर नित्य प्रति मधुर लहरी को गुनगुनाती हैं, कोई सुने न सुने, वो सुनती हैं। स्वयं प्रसन्न रहने और परिवार को खुशियां बांटने का प्रयास करती हैं।
ऐसे समय में ‘वो’; जिस पर परिवार अपना सहारा होने का दम्भ भरता है, अपने जीवन संगीत को विवशता की बंसी पर बिखेर दूर हो जाता है, ये बेटियाँ तब भी परिवार को समर्पित रहती हैं, उसका प्रचंड संबल बनती हैं।
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे कार्यक्रमों में जाना और उनके पक्ष में दो शब्दों को बोलकर स्वयं को बेटियों का हितैषी दिखाना मात्र; दीमक लगे खोखले असबाबों जैसा ही है। पहली बेटी के जन्म में दिखावे की ख़ुशी के बाद आधुनिक और बुद्धजीवी दिखने की होड़ में ही सही हमने ‘बेटी’ के जन्म को तो सहर्ष स्वीकृति दे दी है। लेकिन  बदलाव का ये सफर सिर्फ ‘बेटी’ तक ही क्यों? ‘बेटियों’ तक क्यों नहीं? हम क्यों नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं ‘दूसरी बेटी’ या ‘तीसरी बेटी’ के जन्म को उसी सहर्ष भाव से जितनी सहजता के साथ हमने ‘पहली बेटी’ के जन्म को स्वीकृति दे दी है।
बेटियों के प्रति आशा जनित विश्वास की मानसिकता विधि विधानों से नहीं अपितु अंतर्चेतना के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन से बढ़ेगी। और इसी की प्रतीक्षा वो सदियों से करती आ रहीं हैं लेकिन उनकी यह प्रतीक्षा कमल की आकर्षक पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की नर्म बूंदों की भांति ढरकती रहती हैं। ओस की वो बूँद जो अपना सब कुछ समर्पित करके भी कमल को स्वीकार्य नहीं होती। वो ढरकती ही जाती है।

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