‘सीनियर सिटीजन’ बड़ा ही सम्मानित शब्द लगता है,भारत ही नहीं विश्वभर में । यह एक ऐसा पड़ाव होता है, जहां अनुभवों के भंडार का बोध लेता है, इसीलिए भारतीय आश्रम व्यवस्था में इस उम्र को वानप्रस्थ आश्रम से जोड़ा गया । वानप्रस्थ अर्थात भ्रमण यायावरी । और फिर पचहत्तर की उम्र के बाद ,जब शरीर थक जाए तो अपने मूल निवास लौटो, विश्राम करो,अनुभव बाटों और लिप्तता त्यागो। मगर आधुनिक जीवन शैली में हर माता पिता चाहता है कि उसके बच्चे विशेष तालीम हाशिल करें और जो उन्होंने जीवन भर में बना पाया वहीं से वो जीवन की शुरुआत करें।
उदाहरण के लिए एक अदद मकान ,एक गाड़ी और जीने के लिए आधुनिक उपकरण यदि किसी ने अपनी सेवानिवृति की उम्र तक तिनका -तिनका जोड़कर जुताई है ,तो वह चाहता है जिस स्तर से वो जीवन के अंतिम पड़ाव में जी रहा है,बच्चों के पास जीवन की शुरुवात में ही वो साधन हो । अब बिना योग्यता बिना मेहनत तो ये सब संभव नही इसलिए अधिकांशतः माता पिता अतिरिक्त दबाव बनाकर बच्चों को डॉक्टर ,इंजीनियर ,चार्टर एकाउंटेंट ,प्रवंधन,मार्केटिंग,होटल मैनेजमेंट ,बैंकिंग या फिर प्रशासनिक सेवाओं में लाना चाहते हैं। इन सभी नौकरियों में आने के लिए बच्चे या तो शहर से दूर हो जाते है या फिर इतने व्यस्त की शहर में होकर भी माता पिता से संवाद और साथ का वक्त नहीं निकाल पाते ।ऐसे में ममता और वात्सल्य कहीं सीने में घुटता रहता है और बच्चे के भविष्य का भय बच्चों की दूरी माता पिता के जीवन में एक खालीपन भर देता है । ये खालीपन सिर्फ घर के सूनेपन का ही नहीं होता बल्कि बच्चों की व्यस्तता से जन्मा भावनात्मक सूनेपन का भी होता जा रहा है।
आज अपवाद स्वरूप कुछ संयुक्त परिवारों को छोड़ दिया जाय तो साठ की या उसके आस-पास की मिडिल ऐज के माता पिता ये सूनापन झेल रहे हैं।फिर इस सूनेपन को भरने के लिए कभी वो समूह में यात्रा करते हैं।कभी कुछ ऐसी संस्था या क्लब गठित करते है जहां अपनी उम्र के लोगों के साथ हस बोलकर अपने सूनेपन को कुछ कम कर सके।
ऐसे तमाम माता – पिता जो सूनेपन और भावनात्मक असुरक्षा में जी रहे हैं।बात करने पर जो जबाब मिला उससे उनकी मनोदशा का पता चल जाता है।उनसे कहा गया आप बच्चों के लिए तरसते हैं,तो फ़िर उन्ही के साथ क्यों नही रहते तो पढ़े लिखे स्वाभिमानी माता पिता बच्चों की जीवन शैली और अपने अहम में सामंजस्य नही बिठा पाते।एक तर्क और भी होता है यदि उनसे कहा जाए कि जिन चीजों से मन नही बहलता उन्हें बेचकर वहां रहिए जहां मन अर्थात जिगर के टुकड़े हैं तो अधिकांशतया माता पिता बच्चों की व्यस्तता व उससे जन्मे चिड़चिड़ाहट भरे सवाल जवाब से डरे मिलते हैं।
एक बहुत बड़ी कोठी के स्वामी दंपत्ति कोठी के सूनेपन में सलीके से रहने के बावजूद आखों में गीलापन लाकर बोले ।क्या करें मन तो बच्चों के पास लगा रहता है,मगर ये जो जीवन भर मेहनत करके अपना खूंटा तैयार किया है,उसे इस उम्र में कैसे छोड़ दें।बच्चे अगर हाथ छोड़ भी दे तो ये खूंटा हमें आखिरी सांस तक पनाह तो देगा । हाँ आप जिसे कोठी कह रही है वो हमारे लिए खूंटा है।मगर अपना बनाया खूंटा हमें जीवन जीने का साहस देता है,सूनापन है पर अपनापन का भय नही उपेक्षा की त्रासदी नहीं।इसलिए हमें जिंदगी में ये खूंटा बहुत प्यारा है।