साहस से मिलती नयी मंज़िलें

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Prachi Dwivedi

जहीराबाद एक व्यावसायिक शहर है। हैदराबाद से 114 कि मी दूर, यहाँ तक कार का सफर दो घंटों में पूरा होता है। इस पूरे सफर में अनेक गाँव और वहाँ के लहलहाते खेत देखने को मिलते हैं। इन खेतों में पुरुष नहीं महिलाएं काम करती दिखाई देती हैं। कड़ी मेहनत के बाद भी उनके चेहरों पर खुशी और ताजगी दिखाई देती है।
यहीं रास्ते में एक गाँव है पस्तापुर। यहां का नजारा कुछ और ही है। यहाँ भी महिलाएं खेतों में काम करती दिखेंगी। लेकिन उनके हाथों में हल और कुदाल नहीं दिखायी देंगे। हल और कुदाल की जगह उनके हाथों में दिखेंगे- “बड़े कैमरे”। ट्राइपॉडस। कारण यह कि महिलाएं फिल्मकार हैं। यहाँ अधिकतर किसान महिलाएं कृषि आधारित डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी की सदस्या हैं। वह पढ़ी-लिखी अवश्य नही हैं किन्तु अब तक वह लगभग छः सौ से अधिक लघु फिल्म बना चुकी हैं। यह सभी फिल्में लोगों में खाद्य श्रेष्ठता के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाली हैं। इन फिल्मों का प्रसारण दूरदर्शन, माँ टीवी व ई टीवी पर हो चुका है।
नायक प्रधान भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भूमिका अब सिर्फ नाचने, गाने तक ही सीमित नहीं रही। सिनेमा के सफर के शुरूआती दौर में काम करने वाली महिलाओं को हेय दृष्टि से देखा जाता था, फिर समय के साथ हुए बदलाव में आज हिंदुस्तानी सिनेमा के हर पक्ष ने नायिका की भी प्रधानता को स्वीकार करते हुए समाज में नारी की विभिन्न भूमिकाओं का अंकन किया है। दक्षिण भारत में बसे एक गाँव पस्तापुर में इसका जीवंत उदहारण देखने को मिलता है। यहाँ दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए खेतों में काम करने वाली महिलाओं ने एक अनूठी पहल का आगाज़ किया है।
यह महिलाएं तो छोटी फिल्में बनाकर ही संतुष्ट थी। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उनके जीवन में ऐसा भी अवसर आएगा कि उन्हें पूरी फीचर फिल्म बनाने का मौका मिलेगा। लेकिन उनकी मेहनत और हिम्मत ने उनके लिए ऐसा द्वार खोल दिया कि वह पूरी फिल्मकार के रूप में अब समाज के समक्ष अपनी प्रतिभा को दिखा सकेंगी।
हैदराबाद की फिल्म निर्माता अपूर्वा मसर ने अपनी पहली फीचर फिल्म “आल अबाउट मिशेल” के निर्माण के लिए इन महिलाओं को अनुबंधित किया है। यह एक जासूसी रोमांच (जासूसी थ्रिलर) फिल्म होगी। फिल्म की पटकथा स्वयं अपूर्वा ने लिखी है। इस फिल्म का निर्माण करके यह अनपढ़ ग्रामीण किसान महिलाएं लोगों की इस धारणा को बदल देंगी कि वह सिर्फ खेतों में काम करने वाली अनपढ़ और अशक्त महिलाएं ही नहीं हैं, बल्कि वह भी शहरों में काम करने वाली सशक्त और आत्मनिर्भर महिलाओं के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने को तैयार हैं। उनकी जिस मेहनत से वीराने पड़े खेत हरे भरे हो जाते हैं, अब वही मेहनत अपने प्रदर्शन से फिल्मों में भी रंग बिखेरेगी।
इन किसान फिल्मकारों से वायदा किया गया है कि उन्हें वही मेहनताना दिया जाएगा जितना मुम्बई में किसी प्रोफेशनल को मिलता है।
यह फिल्म crowded funded है। फिल्म निर्माण के लिए पचास फीसदी से अधिक धन इकट्ठा किया जा चुका है। तीस सदस्यीय टीम में सभी महिलाएं हैं। केवल साउंड इंजीनियर महिलाएं नहीं हैं।
असल मायनों में नारी तो अब सशक्त हो रही है। अब तक तो नारी शब्दों और नारों में ही सशक्त होती रही है, क्योंकि उसने स्वयं को पूरी तरह पहचाना ही नहीं था। नारी को उसका “स्वयं” ही सशक्त कर सकता है, जरूरी यह है कि वह खुद पर विश्वास करे। इसमें दोराय नहीं है कि महिलाओं के लिए लोगों की सोच बदल रही है, समाज अब बदल रहा है। बस उसे खुद को पहचानने की जरुरत है।

2 COMMENTS

  1. बेहतरीन लेख…।….एक हक़ीक़त ये भी है कि हमारे देश मे हर कोई महिलाओं को आगे बढ़ते हुए देखना चाहता है..कोई उन्हें रोकना नहीं चाहता है..बस लोग उन्हें संस्कृति के दायरे के बाहर नही आने देना चाहते जो कि आज के युग मे संभव नही है..वहीं अमेरिका जैसे देशों में इसके उलट संस्कृति जैसा कोई भी बंधन नहीं हैं वहाँ की महिलाएँ कहने के लिए तो एकदम आज़ाद हैं लेकिन वहाँ की हकीकत ये भी है वहाँ के लोग महिलाओं को एक सीमा से आगे बढ़ते हुए नही देख सकते……जैसे कि अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक देश का संचालन आज तक किसी महिला के हाथ मे नही गया….लोगो ने एक अय्याश आदमी(डोनॉल्ड ट्रम्प) को चुनना पसंद किया वजाय किसी महिला(क्लिंटन हिलेरी) के…|..यकीनन आपने देश में कुछ लोग हैं जिनकी महिलाओं के प्रति सोच गंदी है..पर सच ये भी है कि इसी देश में लोग इस बात को भी लेकर चलते हैं कि-जिस स्थान नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं…🙏

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