लेपर्ड रेस्क्यू: वह खौफनाक मंज़र

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कई दिनों से खौफ का पर्याय बने तेंदुए को पकड़वाने की सूचना प्राप्त होते ही हमारी टीम अविलम्ब रवाना हुई। बार-बार आ रहे फोन स्थिति की आकस्मिकता स्वयं बयां कर रहे थे। वैसे कोई भी तेंदुआ या बाघ खौफ़ का सौदागर बनाया जाता है, वे स्वयं कभी नहीं बनते। अधिकांशतः किसी कारणवश उत्पन्न कुछ विषम परिस्थितियां वन्य जीवों को मानव बस्ती का रुख़ करने को मजबूर कर देती हैं। यूँ तो मेरे द्वारा पूर्व में विभिन्न प्रकार के वन्य-जीव रेस्क्यू किये गये थे। परन्तु न जाने क्यूं इस बार ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह रेस्क्यू आपरेशन कुछ ना कुछ अलग है।
सम्पूर्ण यात्रा के दौरान मैं और हमारी टीम के अनुभवी सदस्य उक्त तेंदुए की समाचार चैनलों में प्रसारित विडियो-रिकार्डिंग का बारीकी से अध्ययन करते रहे। परन्तु अधिक रात होने से रेस्क्यू आपरेशन सम्भव नहीं था। अतः रात्रि में टीम को रास्ते में ही एक होटल में रूकवा दिया गया। रात में ही तेंदुए के छिपने के बताये स्थान के विवरण व वीडियो आदि के अनुसार हम तीनों लोग आगे की रूपरेखा बनाने लगे। तभी रात्रि में फोन पर मेरी जीवन संगिनी ने विशेष रूप से अपना ध्यान रखने की सलाह दी। पूर्व में किये गये सभी रेस्क्यू आपरेशन में आवास से रवाना होने के समय उनके द्वारा ‘‘बेस्ट विशेज” अवश्य दी जाती रही हैं। लेकिन इस बार फोन पर पुनः “अपना ख्याल रखना” बोलना अपने आप में कुछ न कुछ भविष्य में घटने वाली घटना का संकेत दे गया था। परन्तु साथ में शुभकामनाएं मनोबल व आत्मविश्वास को बढ़ा रही थीं।
प्रातः गंतव्य पहुंच कर हमें अविलम्ब शहर के एक पुराने वेयर हाउस ले जाया गया। तेंदुए के छिपने के स्थान को पूरी तरह से कई जालों की मदद से कवर कर दिया गया था। परन्तु यह स्थान बहुत लम्बा बरामदा था, जिसमें कई कमरे थे तथा इनमें से अधिकांश के दरवाजे बंद थे। पूरा बरामदा पुराने मेज, कुर्सी, कूलर, लोहे, फ्रीज व ड्रम आदि का डम्प-यार्ड था। इतने कबाड़ में तेंदुए जैसे बड़े विडालवंशी को भी खोजना सम्भव नहीं हो पा रहा था। बार-बार के प्रयासों, पटाखों की आवाज करने आदि से भी उसे ढूंढ़ पाना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में एक मात्र उपाय उस वेयर हाउस में अन्दर घुसना था। जिसके लिए एक ट्री गार्ड को उखाड़ कर विशेष रूप से पूर्णतः मोटी जाली से एक कवचनुमा खोल बनाया गया। इस खोल को पहन कर मेरे एक सहयोगी ने खतरा मोल लेते हुए वेयर हाउस में प्रवेश किया। लेकिन फिर भी तेंदुए का नामोनिशान न मिला। एक बार को तो सभी को लगा कि तेंदुआ कहीं न कहीं से भाग गया है।
इस बीच टीम के अन्य सदस्य द्वारा साहस का परिचय देते हुए एक लोहे की रॉड के माध्यम से सामानों को खींच-खींच कर हटाया जाने लगा और तभी एक भयानक गर्जना ने सभी को जड़वत कर दिया। हमारा ‘‘आपरेशन लेपर्ड’’ प्रारम्भ हो गया था। अदम्य साहस का परिचय देने वाले सहयोगी को अविलम्ब बरामदे से बाहर निकाल कर ट्रांक्विलाईजेशन का कार्य प्रारम्भ किया गया।
परन्तु तेंदुआ बार-बार अपनी लोकेशन बदलने लगा तथा एक बार पुनः ओझल हो गया। ऐसे में तेंदुए को देखने हेतु जमीन पर लेट कर टार्च व सर्च लाइट की रोशनी डाली गई व काफी मशक्क़त के बाद एक कुर्सी के पीछे तेंदुए के मात्र एक रोज़ेट (तेंदुए की खाल पर बने काले धब्बे) की झलक मिली। इतने अधिक कबाड़ के पीछे तेंदुए के एक रोज़ेट पर निशाना लगाना मुश्किल हो रहा था। क्योंकि हमें तेंदुए के शरीर का एक छोटा सा भाग ही दिख रहा था। अतः हेलमेट पहन कर (यदि किसी कारणवश तेंदुआ वार करता है तो उससे सिर बचाने के लिए) व जमीन पर लेट कर मेरे द्वारा पहली डार्ट (ट्रांक्विलिज़ेशन की दवा भरा विशेष इंजेक्शन) फायर की गई जो एकदम सटीक निशाने पर लगी। लेकिन उपस्थित कुछ अति उत्साही व्यक्तियों द्वारा दिखाए गए उत्साह के कारण तेंदुआ लगातार कबाड़ में ही इधर-उधर भागता रहा। जिस कारण दवा का असर कम हुआ और एक बार फिर तेंदुआ नजरों से ओझल हो गया।
कुछ समय पश्चात वह एक ड्रम के पीछे छुपा दिखा और एक बार फिर मेरे द्वारा उसे ट्रांक्विलाईज करने हेतु प्रयास किया गया। लेकिन तेंदुआ इस प्रकार छिपा था कि उसका फिर केवल रोज़ेट दिख रहा था। मुझे निशाना लेने हेतु जाल के काफी नजदीक जाना पड़ा। लेकिन वहाँ हो रही अफरा-तफरी में अचानक ही तेंदुआ निकलकर मुझ पर झपट पड़ा। हालांकि उसने मेरे पेट व सीने पर वार कर मेरे कपड़े भी फाड़ दिये। लेकिन दाहिने हाथ में गन होने के कारण मेरे द्वारा अपने को बचाने हेतु उसे बांये हाथ से धक्का दिया गया। इसी दौरान उसके पंजों के वार से मेरा बांया हाथ गम्भीर रूप से घायल हो गया। खून की फूटती धार से सभी लोग सकते में आ गये। एक उपस्थित प्रत्यक्षदर्शी ने रूमाल बांधकर बहते खून को रोकने का प्रयास किया।
इस बीच तेंदुआ पुनः छुप गया। एक बार दुबारा मेरे द्वारा उसे ट्रांक्विलाईज करने हेतु निशाना लिया गया, जो कि सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य पर लगा। दूसरे डार्ट के कुछ देर पश्चात तेंदुआ बेहोश हो गया। उसे सुरक्षित पिंजरे में स्थानांतरित करने पर मैंने देखा कि उसके पांव घायल हैं। और उसके कई नाखून किसी कारण से कटे हुए हैं व रक्तस्राव हो रहा है, जिस कारण शिकार करने में असमर्थ होने से उसने आसान शिकार की तलाश में शहर का रुख़ कर लिया होगा। उसे अब उपचार हेतु प्राणी उद्यान लाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था।
आज भी हवा में उछलते कबाड़ के बीच से झपटते तेंदुए को याद कर सिहरन दौड़ जाती है। तेंदुए के वार से मेरे कपड़े फट जाने के बावजूद भी मेरे सीने में मात्र हल्की सी खरोंच भर आ पाना आश्चर्य जनक था। मैं आज भी नहीं समझ पा रहा कि वह कौन सी अदृश्य शक्ति थी, जिसने उस दिन इतने के बाद भी मुझे गम्भीर रूप से घायल होने से बचा लिया। मेरे हाथ में आठ टांके लगे थे। लेकिन इसमें तेंदुए का कोई दोष नहीं था। कहीं न कहीं इंसानी हरकतों से ही वन्य जीवों को अपना घर छोड़ना पड़ रहा है।
आज उस घटना के वर्षों बाद भी बांये हाथ पर उस दिन बना वह लम्बा सा घाव का निशान मुझे विकास की इस दौड़ में वन्यजीवों के उजड़ते आशियाने की भी याद दिलाता है। वह विकास जिसने उन्हें अपने ही घर से बेदखल कर दिया है। क्या अपने स्वार्थ के लिए इन निर्दोष बेज़ुबानों के घर को उजाड़कर ऊंची अट्टालिकाएं और उद्योग धंधे खड़े कर देना ही विकास है?
फिलहाल, एक खौफनाक लेकिन यादगार, शानदार व ज़िन्दगी भर न भूलने वाला अनुभव अपनी यादों में लेकर हम अपने एक और नए साथी के साथ वापस लौट रहे थे।
-डॉ आर के सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ