कुम्भ : एक परिचय

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Pankaj Bajpai
कुम्भ भारतीय संस्कृति का महापर्व कहा गया है।इस पर्व पर स्नान,दान,ज्ञान मंथन के साथ ही अमृत प्राप्ति की बात भी कही जाती है।कुम्भ का बौद्धिक,पौराणिक,ज्योतिषीय के साथ साथ वैज्ञानिक आधार भी है।वेद भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ हैं।कुम्भ का वर्णन वेदों में भी मिलता है।कुम्भ का महत्व न केवल भारत में वरन विश्व के अनेक देशों में भी है।इस तरह कुम्भ को वैश्विक संस्कृति का महापर्व कहा जाय ,तो गलत न होगा।चूंकि इस दौरान दुनिया के अनेक देशों से लोग आते हैं और हमारी संस्कृति में रचने -बसने की कोशिश करते हैं, इसलिए कुम्भ का महत्व और बढ़ जाता है।कुम्भ पर्व प्रत्येक 12 वर्ष पर आता है।प्रत्येक 12 वर्ष पर आने वाले कुम्भ पर्व को अब शासन स्तर से महाकुम्भ और इसके बीच 6 वर्ष पर आने वाले पर्व को कुम्भ की संज्ञा दी गयी है। पुराणों में कुम्भ की अनेक कथाएं मिलती हैं।भारतीय जनमानस में तीन कथाओं का विशेष महत्व है।
कुम्भ पर्व के संदर्भ में पुराणों में तीन अलग अलग कथाएं मिलती है।प्रथम कथा के अनुसार कश्यप ऋषि का विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्रियों दिति और अदिति के साथ हुआ था।अदिति से देवो की उत्पत्ति हुई तथा डिटिवसे दैत्य पैदा हुए।एक ही पिता की संतान होने के कारण दोनों ने एक बार संकल्प लिया कि वे समुद्र में छिपी हुई बहुत सी विभूतियों एवं संपत्तियों को प्राप्त कर उसका उपभोग करें।इस प्रकार समुद्र -मंथन एक मात्र उपाय था।समुद्र मंथनोपरांत चौदह रत्न प्राप्त हुए जिनमें से एक अमृत कलश भी था।इस अमृतकलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध छिड़ गया,क्योंकि उसे पीकर दोनों अमरत्व की प्राप्ति करना चाह रहे थे।स्थिति बिगड़ती देख देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और जयंत कलश लेकर भाग चला।इस पर दैत्यों ने उसका पीछा किया।पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों के बीच बारह दिन तक भयंकर संघर्ष हुआ।संघर्ष के दौरान अमृत कुम्भ के सुरक्षित रखने में बृहस्पति ,सूर्य,और चंद्रमा ने बड़ी सहायता की।बृहस्पति ने दैत्यों के हाथों में जाने से कुम्भ को बचाया।सूर्य ने कुम्भ के फूटने से रक्षा की और चंद्रमा ने अमृत छलकने नही दिया।फिर भी,संग्राम के  दौरान मची उथल -पुथल से अमृत कुम्भ से चार बूँदें छलक ही गईं।ये अलग-अलग चार स्थानों पर गिरीं।इनमें से एक गंगातट हरिद्वार में,दूसरी त्रिवेणी संगम प्रयागराज में,तीसरी शिप्रा तट उज्जैन में और चौथी गोदावरी तट नाशिक में।इस प्रकार इन चारों स्थानों पर अमृत -प्राप्ति की कामना से कुम्भ पर्व मनाया जाने लगा।
दूसरी कथा के अनुसार आने क्रोध के लिए विख्यात महर्षि दुर्वासा ने किसी बात पे प्रसन्न होकर देवराज इंद्र को एक दिव्य माला प्रदान की,किंतु अपने घमंड में चूर होकर इंद्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर रख दिया।ऐरावत ने माला लेकर किसे पैरों तले रौंद डाला।यह देख कर महर्षि दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर इंद्र को शाप दे दिया।दुर्वाशा के शाप से सारे संसार मे हाहाकार मच गया।रक्षा के लिए  देवताओं  और दैत्यों ने मिलकर  समुद्र मंथन किया।जिसमें  से अमृत  कुम्भ निकला,किंतु यह नागलोक में था।अतःइसे लेने के लिए पक्षीराज गरुड़ को जाना पड़ा।नागलोक से अमृत घट लेकर गरुड़ को वापस आते समय हरिद्वार प्रयागराज,उज्जैन और नाशिक और इस चार स्थानों पर कुम्भ को रखना पड़ा और इसी कारण  ये चार स्थान हरिद्वार ,प्रयागराज,उज्जैन,नाशिक कुम्भ के नाम से विख्यात हो गए।
तीसरी कहानी यह मिलती है कि एक बार प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों  विनता और को कद्रू के बीच इस बात पर विवाह हो गया कि  सूर्य के साथ के अश्व काले  हैं या सफेद।विवाद बढ़ने पर दिनों के बीच शर्त तय हुई कि जो हार जाएगी वो दासी बनेगी।रानी कद्रू ने अपबे पुत्र ने अपने पुत्र नागराज वासुकी की सहायता से  अश्वो के श्वेत रंग को काला कर दिया,जिससे विनता की हार हुयो।अन्तत: विनता ने कुद्र से प्राथना की कि वह उसे दायित्वों से मुक्ति कर दें।कद्रू ने पुनः शर्त रखी कि यदि वे नागलोक में रखे अमृतघट को उसे लेकर दे दे तो दायित्वों से मुक्ति हो सकती हैं।विनता ने अपने  पुत्र गरुड़ को इस कार्य मे लगा दिया।गरुड़ जब अमृत घट लेकर आ रहे थे तो रास्ते में इंद्र में उन ने उन पर आक्रमण कर दिया।संघर्ष के कारण घट से अमृत की कुछ बूंदे चार बूंदे छलक कर चार अलग – अलग स्थान पर कुम्भ पर्व होने लगा।
कुम्भ की कथाओं के अनुसार देव दैत्यों में बारह दिनों तक जो संघर्ष चला था, उस दौरान अमृत कुम्भ से अमृत की जो बूंदे छलकी थीं और जिन स्थानों पर गिरीं थीं वही- वहीं पर कुम्भ मेला लगता है। क्योंकि देवोँ के इन बारह दिनो को बारह मानवीय वर्षों  के बराबर माना गया है, इसलिए कुम्भ पर्व का आयोजन बारह वर्षों पर होता है।जिस दिन अमृत कुम्भ गिरने वाली राषि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग हो उस समय उस पर कुम्भ होता है।तातपर्य यह है कि राशि विशेष में सूर्य और चंद्रमा के स्तिथि होने पर उक्त चारों स्थानो पर शुभ प्रभाव के रूप में अमृत वर्षा होती है और यही वर्षा श्राद्धालुवों के लिए पुण्यदायिन मान लिया है।इस प्रकार से वृष के गुरु में प्रयागराज कुम्भ के गुरु में हरिद्वार तुला के गुरु में उज्जैन और कर्क के गुरु में नाशिक का कुम्भ होता है।सूर्य की स्थिति के अनुसार कुम्भ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं।मकर के सूर्य में प्रयागराज,मेष के सूर्य में हरिद्वार ,तुला के सुर्य में उज्जैन और कर्क सूर्य में नाशिक का कुम्भ पर्व पडता है।