बात सन 2015 की है हमारी टीम कुछ वन्यजीवों के आपसी विनिमय के लिए आन्ध्र प्रदेश के खूबसूरत समुद्र तटीय शहर विशाखापटनम के दौरे पर थी। वहाँ के प्राणिउद्यान में प्रवेश करते ही मैंने सर्वप्रथम नकुल गैंडे के बाड़े के बारे में जानकारी प्राप्त की। प्रवेश द्वार से थोड़ी ही दूरी पर हमें नकुल की झलक मिली। पिछले दो वर्ष में वह अपनी मोटी खाल के नीचे कुछ और वसा एकत्र कर चुका था। कभी हिमालय की तराई क्षेत्र के दलदल में विचरण करने वाला ये महारथी अब सुदूर दक्षिण में समुद्र के किनारे पहुंच चुका था, जहां उसके बाड़े में भी समुद्र की लहरों का शोर सुना जा सकता था।
नकुल के तराई के दलदल में विचरण और फिर प्राणिउद्यान तक कि यात्रा के बारे में हम फिर कभी बात करेंगे। फ़िलहाल अभी लौटते हैं विशाखापटनम प्राणिउद्यान के उस बाड़े के पास जहाँ नकुल से दो वर्ष बाद हम मिलने वाले थे। जैसे-जैसे हमारे कदम नकुल की ओर बढ़ रहे थे, हमारा उत्साह भी बढ़ रहा था। वहाँ के वन्यजीव चिकित्सक ने साथ चलते-चलते बताया कि वह बहुत जिद्दी है, किसी का कहना नहीं मानता औऱ ना ही अपने नाम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। उन्होंने बताया कि जब वह उसे लेकर प्राणिउद्यान पहुंचे थे तो उसने बहुत उत्पात मचाया था। यहां तक कि उसने अपने बाड़े का गेट भी तोड़ डाला था और वे किसी तरह बचे थे। इतने के बाद भी उनका मानना था कि नकुल एक शानदार गैंडा है और एक वन्यजीव विशेषज्ञ होने के नाते वे कहीं न कहीं उसके हृदय में कोमलता का भी एहसास करते थे। उनके
अनुसार वह बिल्कुल अल्हड़ अपने में मस्त रहने वाला जीव है।
भावनाओं का एहसास केवल मनुष्यों को ही नहीं होता बल्कि कई ऐसे रोचक एवम सत्य किस्से भी हैं जब इन बेजुबानों ने एहसान की कीमत अपनी जान देकर चुकाई है। कई बार तो प्रकृति के नियमों से हटकर इन वन्यजीवों को अपने शिकार से मित्रता ही नहीं उनकी रक्षा तक करते पाया गया है। नकुल भी कोई अपवाद नहीं था। दो वर्ष पूर्व तक हमारे प्राणिउद्यान में मैं जब भी नकुल के बाड़े के पास से गुजरता था, वह तत्काल मेरे साथ बाड़े के अंदर ही दीवार के किनारे-किनारे तब तक चलता था जब तक मैं उसके बाड़े से आगे नहीं निकल जाता था। और तब तक मेरे वापस लौटने की
अपेक्षा करता रहता था जब तक मैं उसकी आँखों से ओझल नहीं हो जाता था। यहाँ तक कि कभी-कभी वह बाड़े की दीवार पर अपना मुंह रखकर संकेत भी देता था कि आज मैंने उसे केले नहीं खिलाये।
एक बार नकुल को केले खिलाते समय किसी कार्यवश मुझे तत्काल अन्यत्र जाना पड़ा और जल्दी में मेरे द्वारा बचे हुए केले उसे न खिलाकर उसके बाड़े में डाल दिये गए। लेकिन मेरे कुछ कदम बढ़ाते ही उसके तत्कालीन एनिमल कीपर ने मुझे वापस बुलाया। मैंने पाया कि आश्चर्यजनक रूप से अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के विपरीत उसने केले नहीं खाये थे। अपितु वह फ़टी आंखों से निराशा से मेरी ओर देख रहा था। सचमुच उस दिन मैंने एक गैंडे की आंखों में दुःख के अभूतपूर्व भाव का सजीव चित्रण देखा। मुझे ऐसा लगा कि यदि आज वह इस चारदीवारी में न होता तो शायद दौड़ कर मेरा हाथ थाम कर पूछता कि उसने ऐसी क्या गलती कर दी जो मैंने ऐसा रूखा व्यवहार किया। उस दिन के बाद से हमारी मित्रता और प्रगाढ़ हो गई थी। मैं उसे प्रतिदिन बुलाता केले खिलाता और आगे बढ़ जाता। यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। नकुल और मेरे बीच बाड़े की दीवार ज़रूर थी लेकिन हमारा प्रेम नित नई पराकाष्ठा को छू रहा था।
आइए एक बार फिर नकुल के नए शहर के नए बाड़े पर चलते हैं। इस बीच एक सहज दूरी पर पहुंचते ही मैं अपने आप को रोक न सका। मैंने नकुल को वैसे ही पुकारा जैसे मैं दो वर्ष पूर्व उसे उत्तर भारत के अपने प्राणिउद्यान में पुकारा करता था। नकुल ने अपनी नज़र ऊपर उठाई और एक क्षण को हमें देखता रह गया। मेरे पुनः पुकारते ही वह तेज कदमों से बाड़े की उस दीवार के पास आ गया जहां हम पहुंच चुके थे। हमें देखते ही अपनी गरदन उठा कर वह हतप्रभ सा रह गया। तथा खुशी से अपना मुंह मेरे सामने बाड़े की दीवार पर ठीक उसी प्रकार रख दिया जैसे वह दो वर्ष पूर्व रखा करता था। मैंने भी यन्त्रवत अपना हाथ उसके माथे और गाल पर रखकर स्नेह प्रकट किया। तभी उसने दो वर्ष पूर्व की भांति अपना मुंह भी खोल दिया। सहसा मुझे एहसास हुआ कि वह सचमुच मुझे पहचान गया है और खाने के लिए केले मांग रहा है। वहां के समस्त कर्मचारी व अधिकारी अचंभित थे। उनके अनुसार वह अपने नाम से बुलाने पर भी प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता था तथा ना ही किसी को हाथ भी लगाने देता था। जो भी हो, मैं और मेरा दोस्त प्रसन्न थे कि इतने दिनों बाद हम एक दूजे को पहचान गए थे।
एक बार फिर मुझे मेरे प्रिय मित्र को केले खिलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। मुझे स्मरण हो आया कि किस प्रकार जब नकुल के विशाखापत्तनम भेजे जाने के दिन नज़दीक आ रहे थे तो मेरा मन उदास होता जा रहा था। एक दिन वह बेजुबान मुझ पर विश्वास करके मेरे बुलाने पर पिंजरे में आ गया था। मुझे आज भी ग्लानि होती है कि किस प्रकार अपने प्रिय मित्र को केले खिलाने के धोखे से मैंने उस दिन पिंजरे में बंद करवाया था। हालांकि मैं मज़बूर था लेकिन मेरे विश्वासघात से नकुल आहत अवश्य हुआ था। ट्रक में लदे पिंजरे में झांकने पर उसके पाँव के नीचे कुचले केले इस बात की गवाही दे रहे थे। वह दृश्य मुझे आज भी अंदर से झकझोर देता है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैंने दोस्ती और विश्वास दोनों का गला घोंटा था। नकुल की दृष्टि में यह एक दोस्त के विश्वासघात की पराकाष्ठा थी। लेकिन उसकी आँखों में कहीं न कहीं अब भी प्रेम का भाव झलक रहा था। मुझे याद है मैं उसके ट्रक को ओझल हो जाने तक देखता रहा था। मन कर रहा था कि काश एक बार वह हमारी भाषा समझ लेता तो मैं उससे माफी मांग लेता।
यद्यपि दो वर्ष पश्चात एक बार पुनः आज मेरी आँखों में आंसू ज़रूर थे लेकिन मेरा अंतर्मन प्रसन्न था कि मेरे मित्र ने अब सब कुछ भुला कर मुझे क्षमा कर दिया था। मैंने साक्षात देखा कि प्रेम का वह सागर अब भी नकुल के हृदय में हिलोरे मार रहा था। मोटी त्वचा से ढके उस ढाई टन के विशाल शरीर में भी एक कोमल हृदय वास कर रहा था। मेरा मन हुआ कि किसी तरह उससे स्वच्छन्द होकर मिलूं। लेकिन वही दीवार आज भी हमारे बीच थी बस स्थान बदल गया था।
-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ एवम साहित्यकार