ज़िन्दगी में कल्पना- सवाल या जवाब

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Prachi Dwivedi
ज़िन्दगी वह नहीं जिसे हम जीते हैं। ज़िन्दगी तो वह है, जिसे हम जी नही पाते। जो नेपथ्य में रहकर हमारी उस ज़िन्दगी को, ऊर्जा देती है। उसे आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करती है। यदि वह न हो तो यह दौड़ती-भागती ज़िन्दगी ठिठक कर रह जाए।
हमारे हृदय और मानस पटल पर कुलाँचे लगाती हमारी कल्पनाएँ और उम्र को साकार करने के प्रयास हमारी इस ज़िन्दगी की गाड़ी को गतिमान रखते हैं। किंतु यह ज़िन्दगी हमारी आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुकूल नहीं होती। फिर भी उसे जीना पड़ता है, अपनी दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए।
कल्पनाओं के अनुरूप संवरी ज़िन्दगी बहुत ही कम लोगों के हिस्से आती है, लेकिन वह भी उसे जी नहीं पाते। क्योंकि उनकी नई महत्वाकांक्षाएं उन्हें सामने आ जाती है और वह पुनः नेपथ्य में बिखरी आनंददायक और कल्पनात्मक ज़िन्दगी में खो जाते हैं। ज़िन्दगी को भोग नहीं पाते हैं।
ज़िन्दगी का सवाल है मुझे कब जिया जायेगा? मैं तो अपने उस स्वरुप को देखना चाहती हूँ जहाँ संतुष्टि हो, सद्भावना हो, आपा- धापी न हो, आत्मिक आह्लाद हो और कटुता और वैमनस्य के घने कुहासे का साया न हो। किन्तु तुम्हारी आकांक्षाओं व महत्वकांक्षाओं के न विराम हैं न उनकी उड़ान का अंत। इसीलिए तुम्हें उसी रूप में खुश रहना होगा, जिस रूप में दुनिया का प्रत्येक जीव तुम्हें जीता है। हंसते-रोते अपने जीवन सफर को पूरा कर लेता है और एकदिन अनंत व्योम में समा जाता है। इतना सा ही है तुम्हारा वर्तमान और भविष्य। मान लो इसे तुम ज़िन्दगी। मान लो

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