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मैजेस्टिक लॉयन्स ऑफ सासण गिर -बब्बर शेरों का रोमांचक संसार

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Dr. Rakesh Kumar Singh

सासण गिर के जंगल में चांद अपना आधा साफर पूरा कर चुका था। कभी कभी बादलों के झुंड उसे ढंकने की असफल कोशिश कर रहे थे। उस रात जंगल में गजब की खामोशी थी। बस कुछ सुनाई पड़ रहा था तो वो था सूखे पत्तों का खड़खड़ाना और बरसाती कीड़ों का शोर। इस बीच दो खानाबदोश युवा शेर बड़ी तेजी से जंगल को नापते हुए आगे बढ़ रहे थे। हवा में अजब सा आकर्षण था जो उन्हें अपनी नई मन्ज़िल की ओर खींच रहा था। युवा खून का उबाल अब दहाड़ के रूप में स्पष्ट सुनाई दे रहा था।

इस बीच कहीं दूर एक टीले पर बैठे वनराज की दिल को दहलाने वाली दहाड़ ने जंगल को गुंजायमान कर दिया। उसके कुनबे की शेरनियों ने भी दहाड़ कर उसका साथ देना शुरू कर दिया। कहीं दूर से उन दो युवा शेरों की दहाड़ बड़ी तेजी से इसी कुटुंब की ओर बढ़ रही थीं। शेरों के पूरे कुटुंब में अफरा-तफरी जैसा माहौल हो गया। आज रात कुछ ही देर में यहां वर्चस्व की वो खूनी जंग होने वाली थी जिसके बारे में सोचकर ही इंसान कांप उठता है। लेकिन यही प्रकृति का नियम है।

वनराज की सत्ता को चुनौती मिल चुकी थी। वो यूँ ही सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंचा था। संघर्ष भरी जिंदगी ने उसे कुछ सबक भी सिखाये थे। और आज उसके अनुभव व बेहिसाब ताक़त दोनों की परीक्षा होनी थी। क्योंकि वह उम्र की ढलान पर था और उसके सामने थे नए खून के साथ जोश से भरे दो युवा शेर। उसने पांच साल इस कुनबे पर ही नहीं गिर के सबसे बड़े कुनबे और बड़े भूभाग पर राज किया था। लेकिन एक बार फिर उसने अपने अनुभव और पैंतरों से आज के खूनी संघर्ष में दोनों युवाओं को मैदान छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। उसके शरीर पर घाव और उनसे रिसता लहू शेरों के लगातार संघर्षरत जीवन की गवाही दे रहे थे। एक बार फिर वह अपने कुनबे को बचाते हुए अपनी सत्ता पर काबिज था। शेरनियों ने उसके गाल और गले के बालों पर अपने गाल रगड़ कर उसका धन्यवाद देते हुए प्रेम प्रकट किया। इस दौरान एक शेरनी, जो कि शावकों को लेकर कुछ दूरी पर घास में छुप गई थी, पुनः कुटुंब में वापस आ गई।

अभी तीन माह पहले तक आज पराजित दोनों युवा शेर सासण गिर के दूसरे छोर पर एक दूसरे कुटुंब के सदस्य थे। लेकिन जवानी की दहलीज पर उन्होंने वो गलती कर दी थी कि जिसकी सजा उन्हें उन्हीं के पिता ने कुटुम्ब से निकाल कर दी थी। वही पिता जो कुछ ही दिन पूर्व उन्हें बचाने के लिए एक दूसरे बब्बर शेर से लड़ गया था, उसीने उन दोनों को सदा-सदा के लिए त्याग दिया था। लेकिन अगर उन्हें गिर के जंगलों की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना था तो उन्हें अपने कुटुम्ब को छोड़ कर स्वयं अपना साम्राज्य स्थापित करना था। एक ऐसा साम्राज्य जिसमें आने वाली सन्तानों में बेहतरीन डीएनए हों, जिससे आने वाली जनरेशन एक शेर की संघर्षपूर्ण ज़िन्दगी सफलतापूर्वक जी सकें। आज भले ही वे सफल न हो सके हों। परन्तु उनका ये संघर्ष एक दिन अवश्य रंग लाने वाला था। ऐसे खानाबदोश युवा शेर किसी न किसी शेरों के कुटुम्ब की शेरनियों पर कब्जा कर अपना वंश आगे बढ़ाने के लिए लगातार हमले करते रहते हैं।

फिलहाल अभी लौटते हैं विजयी कुनबे की तरफ। कई दिन से शिकार न मिलने से सभी शेरों व शावकों के पेट खाली थे। भोर होते ही सबसे अनुभवी शेरनी ने सांकेतिक भाषा में एक आवाज़ निकाली बाकी की शेरनियों ने भी उसका साथ दिया। शिकार की तलाश में वे जंगलों की तरफ बढ़ने लगीं। आज उनके साथ दोनों युवा शेरनियां भी थीं। जो आज पहली बार सक्रिय रूप से शिकार करने में भाग लेने वाली थीं। शेरनियां शिकार की तलाश में घास के मैदान तक पहुंच गईं। परन्तु उन्हें कहीं भी माकूल शिकार न मिल सका। अनुभवी शेरनी ने अचानक नज़दीक के तालाब की तरफ बढ़ना प्रारंभ कर दिया। बाकी की शेरनियां भी उसका अनुकरण करने लगीं। तालाब पर कुछ चीतल पानी पी रहे थे। शेरनियों ने अपना चक्रव्यूह बनाना प्रारंभ कर दिया। सभी के एक निश्चित स्थान ग्रहण कर लेने पर सबसे पहले अनुभवी शेरनी को आक्रमण करना था। और चीतलों के झुंड में अफरा तफरी मचा कर उनके झुंड को कई भागों में बांट देना था। जिससे कि दूसरी दिशा में घात लगाए बैठी शेरनियां झुंड से अलग हुए चीतल को अचानक आक्रमण कर अचम्भित कर दें। अनुभवी शेरनी ने आगे बढ़ना शुरू किया। लेकिन तभी एक युवा शेरनी ने जोश में अनायास ही पानी पीते चीतलों की तरफ दौड़ लगा दी। नतीजतन सभी चीतल एक ही दिशा में भाग निकले और शेरनियों को खाली हाथ लौटना पड़ा। लेकिन आज का यह सबक युवा शेरनी को ज़िन्दगी भर शिकार के समय धैर्य रखने का पाठ पढ़ा गया। अनुभवी शेरनी ने गुर्राहट के साथ नाराज़गी भी प्रकट की। जरा सी गलती से आज फिर पूरे कुनबे के साथ शावकों को भी भूखा रहना पड़ा।

दो दिन पश्चात एक बार फिर शेरनियां शिकार करने निकली थीं। इस बार शेरनियों के सटीक फॉर्मेशन ओर अचूक टाइमिंग ने एक साम्बर को गिरफ्त में ले लिया। पहली युवा शेरनी ने पीछे से आक्रमण कर अपने भार से साम्बर को सम्भलने का मौका ही नहीं दिया और दूसरी युवा शेरनी ने एक ही झटके में अपने पैंतरे दिखाते हुए उसकी गर्दन में अपने दांत गड़ा कर उसकी श्वास नली को अवरुद्ध कर दिया। अनुभवी मादा ने अपने गाल युवा मादाओं के गाल से रगड़ कर भविष्य की दोनों रानियों का स्वागत किया।

अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है ‘लॉयन्स शेयर’। इसी को चरितार्थ करते हुए वनराज वहां पहुंच गया और सभी शेरनियां दूर हट गयीं। मगर युवा शेरनी ने हटने से इंकार कर दिया। लेकिन वनराज की नाराजगी भरी गुर्राहट ने उसे भी हटने को मजबूर कर दिया। शिकार बड़ा था इसलिए आज सबने छक कर खाया। दो माह के शावकों ने भी पहली बार गोश्त का स्वाद चखा। दोपहर तक आराम करने के बाद पूरे कुनबे ने पानी का रुख किया। एक साथ इतने अधिक शेरों को पानी पीते देखना गज़ब का रोमांच पैदा करता है।

कुछ ही दिनों पश्चात कुटुम्ब की एक शेरनी के मासिक चक्र में आने पर वनराज व शेरनी कुटुम्ब से अलग हो गए और इस दौरान दिन में कुछ-कुछ अंतराल पर उनमें कई बार सहवास होता रहा। तीन दिन पश्चात वे कुटुम्ब में वापस आ गए।

तीन माह पश्चात गर्भवती शेरनी कुटुम्ब से दूर एक एकांत में चली गई। शेरों के कुनबे पर नए खानाबदोश नर अक्सर कब्ज़ा करने के लिए आक्रमण किया करते हैं। ऐसे में गर्भवती शेरनियां अधिकतर स्वयम को कुनबे से अलग कर बच्चों का अकेले ही कुछ दिनों तक लालन पालन करती हैं। इसका एक कारण और होता है कि शावक मां के शिकार पर जाने के दौरान अकेले ही स्वयं की रक्षा करने, छुपने आदि के गुर सिख सकें। शेरनी ने निर्धारित 105 दिन की गर्भावस्था के बाद एक साथ चार शावकों को जन्म दिया। नन्हें शावकों की आंखें नौवें दिन से खुलना प्रारम्भ हुईं। इस दौरान शेरनी ने बखूबी उनका ध्यान रखा। यहां तक कि दूसरे शिकारियों विशेषकर तेंदुए व लकड़बग्घे तक शावकों की गन्ध न पहुंचे इसलिए मां ने अपने आपको वहीं रखते हुए आसपास मूत्र व मल आदि त्याग किया। कुछ दिनों से बिना खाये मां का दूध अब सूखने लगे था। इसलिए आज शिकार करना आवश्यक था। मां ने सभी शावकों को यथास्थान रखा। परन्तु एक शावक चंचलता वश बार-बार बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। शेरनी ने उसे हौले से मुंह में पकड़ कर अंदर किया। शाम तक शेरनी एक छोटा सा जंगली सुअर पकड़ लाई। और उसे शावकों से दूर एक झाड़ी में छुपा दिया।

शावक अब बड़े हो रहे थे। उन्होंने मां के लाये गोश्त को अब चाटना प्रारंभ कर दिया था। ऐसे ही एक दिन मां के शिकार से लौटने पर चंचल शावक वहां नहीं मिला। मां ने इधऱ-उधर जाकर कर बार-बार आवाज़ दी। मगर कोई उत्तर नहीं मिलने से उसने सभी शावकों को मुंह में दबा कर सुरक्षित स्थान पर रखा। काफी देर ढूंढने पर भी जब शावक नहीं मिला तो मां अन्य शावकों की चिंता में वापस आ गई। एक शावक को बाहर देख उसने उसे फिर मुंह में पकड़ कर छुपा कर रख दिया। और एक बार पुनः गायब हुए शावक को आवाज़ देकर ढूंढने लगी। थोड़ी ही दूरी पर शावक की गंध पा कर वह तेज कदमों से बढ़ी। लेकिन वहां शावक का मृत शरीर ही था। वह उसे काफी देर तक मुंह से हिलाती रही। लेकिन जब उसके मृत शरीर में कोई हरकत नहीं हुई तो वह उसे जीभ से चाटने लगी। बड़ा हृदयविदारक दृश्य था वह। सम्भवतः किसी तेंदुए ने अपने शत्रु शेरों के चंचल शावक को बाहर देखकर उसे मार डाला था। क्योंकि शावक को सिर्फ मारा गया था खाया नहीं गया था। यही जंगल का नियम है जो नियम तोड़ेगा वह जंगल में नहीं बचेगा।

इस घटना से मां शेरनी को एहसास हुआ कि अब बड़े हो रहे शावकों को कुनबे से मिलाने का समय आ गया है। जिससे कि वह शेरों के सामाजिक ताने-बाने को समझ कर अपने आपको जंगल के अनुसार ढाल सकें। और उन्हें अतिरिक्त सुरक्षा भी मिल सके। माँ शेरनी ने कुनबे का रुख किया।

शावक मां के पीछे चलने लगे। कुटुम्ब से कुछ दूरी पर शेरनी ने गर्दन ऊंची कर अपने कुटुम्ब के सदस्यों को देखा और यह सुनिश्चित किया कि इस दौरान कुछ ऐसा तो नहीं हो गया जो उसके शावकों के लिए नुकसानदेह हो। इसी बीच कुनबे की एक शेरनी ने उसे देख दहाड़ना प्रारंभ किया। सभी सदस्य उस ओर देखने लगे और मां शेरनी के स्वागत में दहाड़ने लगे। मां शेरनी भी दहाड़ते हुए अपने शावकों के साथ कुनबे की तरफ बढ़ी।

प्रारंभ में शावकों को यह सब अजीब सा लगा। परन्तु जब अन्य सदस्यों ने भी उनमें दिलचस्पी दिखाई तो वे भी घुलमिल गए। वनराज भी अपनी सन्तानों को देख खुशी से लगातार दहाड़ने लगा। बच्चे डरकर मां के पीछे छुप गए। मगर माँ शेरनी सावधानी से उन्हें पिता शेर के पास ले गई। वही वनराज जो जरा सी गलती पर भड़क जाता था वो नए शावकों की हर हरकत बर्दाश्त कर ले रहा था।

पांच माह बाद एक अलसाई सी सुबह दूर क्षितिज में कुछ हलचल सी थी। मग़र इन सबसे बेखबर पूरा कुनबा धूप में आराम कर रहा था। तभी हवा में एक विशेष गन्ध ने कुनबे को सावधान कर दिया। सभी सदस्यों में हलचल मच गई। पूरे कुनबे ने दहाड़ना प्रारंभ कर दिया। उसी समय दूर से भी दहाड़ने की आवाज़ें आने लगीं। एक बार फिर वनराज की सत्ता को चुनौती मिली थी। वनराज ने जमकर मुक़ाबला किया लेकिन युवा हमलावरों के पास इस बार ताक़त के साथ ही कई लड़ाइयों का अनुभव भी था। वनराज का ढलता शरीर लड़ाई में शेरनियों के द्वारा साथ देने बावजूद इस हमले को नहीं झेल सका। और उसे अपने कुटुम्ब को उसी प्रकार छोड़ना पड़ा, जैसा उसने पांच वर्ष पूर्व इस कुटुम्ब के सरदार को बेदखल कर किया था। इस बीच एक शेरनी एक शावक को लेकर कहीं छुप गई थी। लेकिन दुर्भाग्यवश दो शावक युवा शेरों की नज़र से न बच सके। जंगल में पराजित शेर की संतान को जीने का हक़ नहीं होता है। क्योंकि तभी युवा शेर अपने नए खून को नए कुटुम्ब की शेरनियों के जरिये आने वाली सन्तानों में पहुंचा सकेंगे। और ताकतवर और स्वस्थ परम्परा को आगे बढ़ा सकेंगे। शेरनियों ने न चाहते हुए भी अपने नए वनराजों का स्वागत किया। वे जानती थीं कि अब उन्हें आने वाली ज़िन्दगी उनके शावकों के हत्यारे इन्हीं नरों के साथ गुजारनी थी।

दूर कहीं पराजित घायल वनराज थक कर चूर बैठा अपने घावों को चाट रहा था। उसकी आने वाली ज़िन्दगी और दूभर होने वाली थी, जो उसे और घाव देने वाली थी। अपने साम्राज्य के चरम पर वह गिर के सबसे बड़े कुनबे और भूभाग पर काबिज रहा था। उसके साम्राज्य का सूरज अस्त हो रहा था। प्रकृति अपना खेल खेल रही थी। सासण गिर में आज का सत्ता परिवर्तन आने वाली शेर की पीढ़ियों के लिए बहुत कुछ लेकर आया था। यह एक आवश्यक और अंतहीन सिलसिला है। जिसकी गवाह शेरों के संघर्ष से लाल हुई गिर की धरती एक बार फिर बनी थी। सासण गिर के गगन में सूरज आसमान की उचाइयां छूने के बाद एक बार फिर क्षितिज में अस्त हो रहा था।

-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ एवं साहित्यकार

एक गाँव : तीन नाम

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Mohini Tiwari

दुनिया का हर एक कोना अपनी विलक्षणता के लिए जाना जाता है। इसी क्रम में हरियाणा के सिरसा जिले के पैंतालीसा क्षेत्र में बसा एक गाँव भी शामिल है जोकि राजस्थान की सीमा से सटा हुआ है और अपने तीन नामों के कारण चर्चा का विषय है। लगभग 200 वर्ष पूर्व बसे इस गाँव के 3 नाम है – जोड़कियां , जोड़ांवाली और जोड़ियां।

गाँव के बुजुर्गों के अनुसार प्राचीन काल में गाँव में पेयजल व्यवस्था के लिए कई जोहड़ियाँ बनाई गई थी इसलिए इस जगह को लोग जोहड़ीवाला कहकर पुकारने लगे थे किंतु धीरे-धीरे सामाजिक एवं भाषायी परिवर्तन के कारण गाँव का नाम जोहड़ीवाला से बदलकर जोड़कियां हो गया , जबकि स्कूल रिकॉर्ड में गाँव को जोड़ांवाली लिखा जाता है और राजस्व विभाग में जोड़ियां नाम दर्ज है। तीन-तीन नामों की धरोहर वाले इस अनोखे गाँव में सिद्ध बाबा गोपालपुरी का डेरा है जिसके प्रति ग्रामीणों में अटूट आस्था है। डेरे में हर वर्ष 20 दिसंबर को बाबा के निर्वाण दिवस पर ग्रामीणों द्वारा जागरण एवं भंडारे का आयोजन किया जाता है जिसमें आस-पास के गाँवों के अनेक श्रद्धालु एकत्र होते हैं। डेरे में बाबा गोपालपुरी का धूणा है जहाँ वर्षभर अखंड ज्योत जलती रहती है। मान्यता है कि इसी स्थान पर बाबा गोपालपुरी ने 12 वर्षों तक कठोर तप किया था इसलिए यहाँ धोक लगाने से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।

इस डेरे के अतिरिक्त गाँव में प्राचीन संकटमोचन हनुमान मंदिर , रामदेवजी का रामदेवरा , जाहरवीर गोगाजी की गोगामेड़ी , प्राचीन कुआँ एवं प्राचीन पीपल का पेड़ है। धार्मिक , सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समृद्ध इस गाँव में लगभग 1100 मतदाता हैं किंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी ग्रामीणों को बिजली , शिक्षा , पेयजल व परिवहन संबंधी मूलभूत सुविधाओं के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। गाँव में सिर्फ आठवीं कक्षा तक ही सरकारी स्कूल है। उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को गाँव के बाहर जाना पड़ता है , किंतु सुचारू परिवहन व्यवस्था न होने के कारण शिक्षा एवं व्यापार दोनों ही बाधित होते हैं। जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर स्थित , लगभग 2200 की आबादी वाला यह गाँव विकास के कार्यों में बहुत पिछड़ा है।

देश में पंचायतीराज व्यवस्था शुरू होने पर सर्वप्रथम राजेराम बैनीवाल को गाँव का सरपंच बनाया गया था। इसके बाद से समय-समय पर कई सरपंच आते-जाते रहे किंतु किसी ने भी विकास कार्यों की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया , परिणामस्वरूप डिजिटल भारत का यह गाँव आज भी अपने उद्धार को तरस रहा है।

मोहिनी तिवारी

रूप सँवारती क्रीम

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Mohini Tiwari

कंपनी को अपने प्रोडक्ट की बढा़नी थी पब्लिसिटी
सो दर्शकों के बीच आई एक पॉपुलर सेलिब्रिटी
स्टेज सजा और नायिका मुस्कुराकर बोली –
काम के बोझतले सखी तू हो जाएगी ‘अगली’
सुन पगली , यूज़ कर यह क्रीम
जो तुझे कर देगी ‘लवली’
झटपट रूप-रंग हो जाएगा गोरा
तभी तो मिल पाएगा एक हैंडसम छोरा
अब प्यार की थोड़ी बदल गई है टेक्निक
ज़माने की दौड़ में कुछ देर तो टिक
देती हूँ तुझे दुनिया का बेहतरीन ज्ञान
कान खोलकर सुन और मन से मान
भूलकर दिल-ओ-दिमाग की , तू बस तन को सजा
मल-मलकर यह क्रीम लगा
फिर ले जीने का मजा
फिर ले जीने का मजा ।

मोहिनी तिवारी

दोस्ती औऱ विश्वासघात -एक गैंडे की सच्ची मित्रता

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Dr. Rakesh Kumar Singh
बात सन 2015 की है हमारी टीम कुछ वन्यजीवों के आपसी विनिमय के लिए आन्ध्र प्रदेश के खूबसूरत समुद्र तटीय शहर विशाखापटनम के दौरे पर थी। वहाँ के प्राणिउद्यान में प्रवेश करते ही मैंने सर्वप्रथम नकुल गैंडे के बाड़े के बारे में जानकारी प्राप्त की। प्रवेश द्वार से थोड़ी ही दूरी पर हमें नकुल की झलक मिली। पिछले दो वर्ष में वह अपनी मोटी खाल के नीचे कुछ और वसा एकत्र कर चुका था। कभी हिमालय की तराई क्षेत्र के दलदल में विचरण करने वाला ये महारथी अब सुदूर दक्षिण में समुद्र के किनारे पहुंच चुका था, जहां उसके बाड़े में भी समुद्र की लहरों का शोर सुना जा सकता था।

नकुल के तराई के दलदल में विचरण और फिर प्राणिउद्यान तक कि यात्रा के बारे में हम फिर कभी बात करेंगे। फ़िलहाल अभी लौटते हैं विशाखापटनम प्राणिउद्यान के उस बाड़े के पास जहाँ नकुल से दो वर्ष बाद हम मिलने वाले थे। जैसे-जैसे हमारे कदम नकुल की ओर बढ़ रहे थे, हमारा उत्साह भी बढ़ रहा था। वहाँ के वन्यजीव चिकित्सक ने साथ चलते-चलते बताया कि वह बहुत जिद्दी है, किसी का कहना नहीं मानता औऱ ना ही अपने नाम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। उन्होंने बताया कि जब वह उसे लेकर प्राणिउद्यान पहुंचे थे तो उसने बहुत उत्पात मचाया था। यहां तक कि उसने अपने बाड़े का गेट भी तोड़ डाला था और वे किसी तरह बचे थे। इतने के बाद भी उनका मानना था कि नकुल एक शानदार गैंडा है और एक वन्यजीव विशेषज्ञ होने के नाते वे कहीं न कहीं उसके हृदय में कोमलता का भी एहसास करते थे। उनके
अनुसार वह बिल्कुल अल्हड़ अपने में मस्त रहने वाला जीव है।

भावनाओं का एहसास केवल मनुष्यों को ही नहीं होता बल्कि कई ऐसे रोचक एवम सत्य किस्से भी हैं जब इन बेजुबानों ने एहसान की कीमत अपनी जान देकर चुकाई है। कई बार तो प्रकृति के नियमों से हटकर इन वन्यजीवों को अपने शिकार से मित्रता ही नहीं उनकी रक्षा तक करते पाया गया है। नकुल भी कोई अपवाद नहीं था। दो वर्ष पूर्व तक हमारे प्राणिउद्यान में मैं जब भी नकुल के बाड़े के पास से गुजरता था, वह तत्काल मेरे साथ बाड़े के अंदर ही दीवार के किनारे-किनारे तब तक चलता था जब तक मैं उसके बाड़े से आगे नहीं निकल जाता था। और तब तक मेरे वापस लौटने की

अपेक्षा करता रहता था जब तक मैं उसकी आँखों से ओझल नहीं हो जाता था। यहाँ तक कि कभी-कभी वह बाड़े की दीवार पर अपना मुंह रखकर संकेत भी देता था कि आज मैंने उसे केले नहीं खिलाये।

एक बार नकुल को केले खिलाते समय किसी कार्यवश मुझे तत्काल अन्यत्र जाना पड़ा और जल्दी में मेरे द्वारा बचे हुए केले उसे न खिलाकर उसके बाड़े में डाल दिये गए। लेकिन मेरे कुछ कदम बढ़ाते ही उसके तत्कालीन एनिमल कीपर ने मुझे वापस बुलाया। मैंने पाया कि आश्चर्यजनक रूप से अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के विपरीत उसने केले नहीं खाये थे। अपितु वह फ़टी आंखों से निराशा से मेरी ओर देख रहा था। सचमुच उस दिन मैंने एक गैंडे की आंखों में दुःख के अभूतपूर्व भाव का सजीव चित्रण देखा। मुझे ऐसा लगा कि यदि आज वह इस चारदीवारी में न होता तो शायद दौड़ कर मेरा हाथ थाम कर पूछता कि उसने ऐसी क्या गलती कर दी जो मैंने ऐसा रूखा व्यवहार किया। उस दिन के बाद से हमारी मित्रता और प्रगाढ़ हो गई थी। मैं उसे प्रतिदिन बुलाता केले खिलाता और आगे बढ़ जाता। यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। नकुल और मेरे बीच बाड़े की दीवार ज़रूर थी लेकिन हमारा प्रेम नित नई पराकाष्ठा को छू रहा था।

आइए एक बार फिर नकुल के नए शहर के नए बाड़े पर चलते हैं। इस बीच एक सहज दूरी पर पहुंचते ही मैं अपने आप को रोक न सका। मैंने नकुल को वैसे ही पुकारा जैसे मैं दो वर्ष पूर्व उसे उत्तर भारत के अपने प्राणिउद्यान में पुकारा करता था। नकुल ने अपनी नज़र ऊपर उठाई और एक क्षण को हमें देखता रह गया। मेरे पुनः पुकारते ही वह तेज कदमों से बाड़े की उस दीवार के पास आ गया जहां हम पहुंच चुके थे। हमें देखते ही अपनी गरदन उठा कर वह हतप्रभ सा रह गया। तथा खुशी से अपना मुंह मेरे सामने बाड़े की दीवार पर ठीक उसी प्रकार रख दिया जैसे वह दो वर्ष पूर्व रखा करता था। मैंने भी यन्त्रवत अपना हाथ उसके माथे और गाल पर रखकर स्नेह प्रकट किया। तभी उसने दो वर्ष पूर्व की भांति अपना मुंह भी खोल दिया। सहसा मुझे एहसास हुआ कि वह सचमुच मुझे पहचान गया है और खाने के लिए केले मांग रहा है। वहां के समस्त कर्मचारी व अधिकारी अचंभित थे। उनके अनुसार वह अपने नाम से बुलाने पर भी प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता था तथा ना ही किसी को हाथ भी लगाने देता था। जो भी हो, मैं और मेरा दोस्त प्रसन्न थे कि इतने दिनों बाद हम एक दूजे को पहचान गए थे।

एक बार फिर मुझे मेरे प्रिय मित्र को केले खिलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। मुझे स्मरण हो आया कि किस प्रकार जब नकुल के विशाखापत्तनम भेजे जाने के दिन नज़दीक आ रहे थे तो मेरा मन उदास होता जा रहा था। एक दिन वह बेजुबान मुझ पर विश्वास करके मेरे बुलाने पर पिंजरे में आ गया था। मुझे आज भी ग्लानि होती है कि किस प्रकार अपने प्रिय मित्र को केले खिलाने के धोखे से मैंने उस दिन पिंजरे में बंद करवाया था। हालांकि मैं मज़बूर था लेकिन मेरे विश्वासघात से नकुल आहत अवश्य हुआ था। ट्रक में लदे पिंजरे में झांकने पर उसके पाँव के नीचे कुचले केले इस बात की गवाही दे रहे थे। वह दृश्य मुझे आज भी अंदर से झकझोर देता है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मैंने दोस्ती और विश्वास दोनों का गला घोंटा था। नकुल की दृष्टि में यह एक दोस्त के विश्वासघात की पराकाष्ठा थी। लेकिन उसकी आँखों में कहीं न कहीं अब भी प्रेम का भाव झलक रहा था। मुझे याद है मैं उसके ट्रक को ओझल हो जाने तक देखता रहा था। मन कर रहा था कि काश एक बार वह हमारी भाषा समझ लेता तो मैं उससे माफी मांग लेता।

यद्यपि दो वर्ष पश्चात एक बार पुनः आज मेरी आँखों में आंसू ज़रूर थे लेकिन मेरा अंतर्मन प्रसन्न था कि मेरे मित्र ने अब सब कुछ भुला कर मुझे क्षमा कर दिया था। मैंने साक्षात देखा कि प्रेम का वह सागर अब भी नकुल के हृदय में हिलोरे मार रहा था। मोटी त्वचा से ढके उस ढाई टन के विशाल शरीर में भी एक कोमल हृदय वास कर रहा था। मेरा मन हुआ कि किसी तरह उससे स्वच्छन्द होकर मिलूं। लेकिन वही दीवार आज भी हमारे बीच थी बस स्थान बदल गया था।

-डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ एवम साहित्यकार

उम्रक़ैद -एक घायल पैंथर की कहानी

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Dr. Rakesh Kumar Singh
“आप सही कह रहे हैं, ऐसा लगता है इसके पेट को चारों ओर से किसी ने कसके दबा रखा है। पेट के कुछ अंदरूनी अंग भी दिख रहे हैं”। मेरे साथी चिकित्सक ने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया। ट्रक से उतर रहे पिंजरे में मादा पैंथर को देखते ही हम हैरान थे। उसकी दाईं आंख बुरी तरह क्षतिग्रस्त थी, पेट के कुछ अंग बाहर झांक रहे थे, जगह-जगह चोट के निशान औऱ ऊपर से ख़तरनाक स्तर तक गिरा हुआ डिहाइड्रेशन ओर एनीमिया।
एक रात पहले सूचना प्राप्त होते ही मैं औऱ हमारी टीम अविलम्ब इंडो-नेपाल बॉर्डर पर एक पैंथर रेस्क्यू के लिए निकल पड़े थे। रातों रात उसे रेस्क्यू कर वापसी की लगभग 400 किलोमीटर की यात्रा कर हम सुबह-सुबह ही उसे लेकर वापस भी लौट आये थे। रात के अंधेरे में बियाबान जंगल या हाइवे पर उसे बस प्राथमिक उपचार ही दिया जा सकता था। लिहाजा हमारी टीम रात भर वापसी की यात्रा में चलती रही। हमारा उद्देश्य था कि जल्दी से जल्दी चिकित्सालय पहुंच कर इलाज प्रारंभ किया जा सके।
युवा पैंथर रास्ते में और अब चिकित्सालय में भी असामान्य रूप से लगातार चिल्ला रही थी, वह किसी भी दशा में दूसरे पिंजरे में जाने को तैयार नहीं थी। काफी मशक्कत के बाद उसे किसी प्रकार दूसरे पिंजरे में ले जाया जा सका। उसका पेट किसी चीज से बुरी तरह दबा हुआ था। ध्यान से देखने पर सचमुच उसके पेट को एक लोहे के तार ने बुरी तरह जकड़ रखा था। यही कारण था कि वह असहनीय पीढ़ा से आक्रामक हो रही थी। तार ने उसके अंदरूनी अंगों तक को क्षतिग्रस्त कर दया था, और वे बाहर तक निकल आये थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तार में फंसने के बाद पैंथर अपने आपको तार की जकड़ से मुक्त कराने के लिए जितना जोर लगाती रही होगी उतना ही वह तार उसके पेट को कसता चला गया होगा।
फिलहाल, मादा पैंथर को खतरनाक स्तर तक अंदरूनी चोटें आई थीं। ऐसे में न ही उसे सकुइज़र केज (एक पिंजरा जिसमें पैंथर, टाइगर और शेर आदि को सावधानी से कस देने से उनका उपचार किया जा सकता है) में कसा जा सकता था औऱ ना ही किसी ड्रग से ट्रांक्विलाईज़ (एक प्रकार की बेहोशी की प्रक्रिया) किया जा सकता था। बड़ी मेहनत व सावधानी से किसी तरह हम सब उस तार को खोलने में कामयाब हुए। तार निकलते ही उसकी दहाड़ ने सबको स्तब्ध कर दिया। लेकिन तार का कसाव कम होते ही रक्त की क्षतिग्रस्त धमनियों से रक्त का श्राव प्रारम्भ हो गया। हम सभी चिकित्सकों की टीम ने किसी प्रकार रक्त श्राव को तो रोक लिया। लेकिन इतनी बुरी तरह घायल पैंथर को देख कर एक चिकित्सक होने के नाते हम नाउम्मीद तो नहीं थे परंतु उम्मीद की रोशनी भी कहीं नहीं दिख रही थी। उसपर उसकी बुरी तरह क्षतिग्रस्त आंख देखकर ही स्वयम को पीढ़ा उठ जाती थी।
सबसे मुश्किल था उसे गोश्त खिलाना। कई दिन बीतने पर भी वह एक टुकड़ा खाने को तैयार ना थी। इसके अतिरिक्त जब भी उपचार या गोश्त डालने के लिए उसके पास जाओ तो वह पिंजरे से टकरा कर अपने आप को घायल अलग से कर लेती थी। हमें विश्वास था कि वह गुस्से के कारण नहीं खा रही है और यदि किसी तरह ताज़े गोश्त को वह मुंह में पकड़ ले तो काम बन सकता था। उसे गोश्त खिलाने के लिए हमारी टीम ने उसके इसी गुस्सैल स्वभाव का सहारा लिया। हम लोग उसके लिए पिंजरे में डाले गोश्त को एक लंबे डंडे से अपनी ओर खींचने लगे, इसका परिणाम यह हुआ कि गुस्से से भरी पैंथर ने गोश्त के टुकड़े को अपने मुंह में दबा लिया। दो दिन में यह प्रक्रिया रंग लाई और तीसरे दिन उसने खाना प्रारम्भ कर दिया।
यद्यपि कई महीने के उपचार से मादा पैंथर के घाव भरने लगे थे लेकिन वह दिन प्रतिदिन औऱ आक्रामक होती जा रही थी। हमारे पूर्व के अनुभव के विपरीत वह अधिक आक्रामक हो जा रही थी। मगर यह कहीं से उसका दोष नहीं था। वन्यजीव का इस कदर मनुष्य के प्रति आक्रामक व नफरत से भरा होने का कारण कहीं न कहीं पूर्व में उसका मानव से हुआ टकराव ही होता है। मानव वन्यजीव संघर्ष के पश्चात या तो वन्यजीव अधिक आक्रामक हो जाते हैं अथवा वे मनुष्य को देखते ही छुप जाते हैं। परंतु दोनों ही स्थिति में कहीं न कहीं मनुष्य के प्रति यह नफरत की पराकाष्ठा का ही प्रदर्शन होता है।
हालांकि मादा पैंथर अब स्वस्थ अवश्य है उसकी दूसरी आंख की रोशनी भी काफी हद तक वापस आ गई है। परंतु मनुष्य को देखते ही उसका आक्रामक होकर गुस्से का इज़हार करना, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से इनके आशियाने में मानव दख़ल का ही परिणाम है। मादा पैंथर अब ज़िन्दगी भर किसी ‘प्राणिउद्यान’ अथवा ‘वाइल्डलाइफ रेस्क्यू सेंटर’ पर सलाखों के पीछे उम्रक़ैद की ज़िन्दगी जीने को मजबूर है। क्योंकि उस बेजुबान के पास न कोई सबूत था, न गवाह था और न ही कोई क़ानूनी दांव पेंच। उसे उस गुनाह की सज़ा मिली जिससे उसका कभी वास्ता ही नहीं रहा। आखिर कब तक ये बेगुनाह उस गुनाह की सजा भुगतते रहेंगे जो उन्होंने किया ही नहीं। लेकिन हाँ, वह गुनहगार थी- क्योंकि वह बेजुबान थी……………………….…………….
डॉ राकेश कुमार सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ एवम साहित्यकार

हरजाई कोरोना

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उस दिन मैंने टीवी किया ऑन
चीख-चीखकर एक एंकर दे रहा था ज्ञान
कोरोना पर बहस का सिलसिला था जारी
नेता, डॉक्टर, वकील, संत
कौन था आखिर किस पर भारी ?
सब के मुँह पर थी मास्क की छाया
कोरोना के फेर ने सबको उलझाया
‘साजिश है’ नेताजी तनकर बोले
मानो मंच पर किसी ने दागे हों गोले
‘नहीं, वायरस का प्रकोप है’ डॉक्टर ने टोका
पर वकील साहब ने उन्हें बीच में ही रोका –
‘अरे जनाब! यह अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का है मामला
खामोश रहने में है हम सबका भला ‘
सुनकर सबकी संत महाराज का सिर चकराया
उन्होंने एक अनूठा उपाय सुझाया –
प्यारे भाइयों! ऑनलाइन ही सही कुछ दान कीजिए
मुश्किल घड़ी में यह संकल्प लीजिए
क्योंकि प्रलय की काली घटा छाई है
हाय! यह कोरोना बड़ा हरजाई है
हाय! यह कोरोना बड़ा हरजाई है…।

मोहिनी तिवारी

विलक्षण जीव : चींटियाँ

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Mohini Tiwari

“क्या तुमने चींटी को देखा ?
वह सरल , विरल , काली रेखा
तम के धागे-सी जो हिल-डुल
चलती प्रतिपल लघुपद मिल-जुल”

‘चींटी’ शीर्षक पर सुमित्रानंदन पंत द्वारा विरचित यह पंक्तियाँ चींटियों के व्यक्तित्व की विशालता का प्रतिबिंब है।
चींटी एक विलक्षण जीव है जो पिछले10 करोड़ वर्षों से अस्तित्व में है। वैज्ञानिकों द्वारा अबतक चींटियों की लगभग तीन हजार से अधिक प्रजातियाँ खोजी जा चुकी हैं। चींटियाँ आकार में छोटी-बड़ी और रंग में काली, भूरी या लाल हो सकती हैं। चींटियाँ शाकाहारी या मांसाहारी भी हो सकती हैं। किंतु प्रजाति चाहे जो भी हो, इनकी कर्मठता एवं जिजीविषा काबिल-ए-तारीफ है। चींटियाँ अत्यंत लगनशील व परिश्रमी होती हैं। ये कभी हिम्मत नहीं हारती। ऊँचाई पर चढ़ते समय ये कई बार गिरती है किंतु बार-बार उठकर पुन: चढ़ने का प्रयत्न करती हैं और अंततः अपने लक्ष्य को पाकर ही संतुष्ट होती हैं। सिडनी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार अर्जेंटीना की लाइनपिथेमा हुमाइल नामक प्रजाति की चींटियाँ अपने मार्ग में कोई बाधा आ जाने पर पीछे मुड़ने की बजाय एक नया और सबसे छोटा मार्ग खोजने में जुट जाती हैं। चींटियाँ किसप्रकार सबसे छोटे मार्ग का चयन करती हैं, यह तथ्य कम्प्यूटर नेटवर्क को विकसित करने में मददगार साबित हो सकता है।

चींटियों के व्यवस्थित समाज में हर चींटी अपनी उम्र एवं क्षमतानुसार कार्य चुनकर अपने एवं समूह के लिए भोजन-संग्रह करती है। चीटियों की गतिविधियों का अध्ययन करने के उद्देश्य से स्विस वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक बड़े समूह में रह रही हजारों चीटियों पर बारकोड चिपका दिए। उन्होंने यह पाया कि चीटियाँ तीन समूहों में विभाजित होकर कार्य करती हैं। पहला समूह छोटी चीटियों का था। दूसरा समूह युवा चीटियों का था एवं तीसरा समूह बूढ़ी चींटियों का था। चीटियों को पहचानने के लिए उन पर अलग-अलग रंग से कोट किया गया था। शोधकर्ताओं ने 60 हफ्तों में बारकोडिंग का कार्य पूर्ण किया। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि युवा चीटियाँ सबसे अधिक मेहनती होती हैं। ये निरंतर पत्ती काटने का काम करती हैं और छोटी चीटियों को सिखाती हैं। किंतु जब पत्ती काटते-काटते इनके दाँत घिस जाते हैं तो ये बूढ़ी हो जाती हैं। बूढ़ी चीटियों के लिए पत्ती काटना और उन पर पकड़ बनाए रखना बहुत मुश्किल होता है इसलिए अब ये चीटियाँ अपना कार्य पूरी तरह से बदल देती हैं। बूढ़ी चीटियाँ पत्ती काटने का कार्य युवा चींटियों को सौंप देती हैं और स्वयं पत्तियों को ढ़ोने का कार्य करने लगती हैं। एक चींटी अपने शरीर के भार से लगभग 50 गुना अधिक भार ढ़ोती है। इसप्रकार ये बुढ़ापे में भी अपने जीवन की उपयोगिता बनाए रखती हैं। चीटियों का यह गुण समाज के लिए एक अद्भुत उदाहरण है।

ओरेगॉन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के अनुसार चीटियों की सूंघन-शक्ति तीव्र होती है। इन्हें भोजन की गंध बहुत दूर से पता चल जाती है। ये बड़ी कुशलता से भोजन तक पहुँचती हैं और उसे ढ़ोकर अपने बिलों तक ले आती हैं। चीटियाँ सदैव कतार में चलती हैं। ये जीवनोपार्जन के लिए भोजन की तलाश करती हैं एवं अपने बिलों की साफ-सफाई करके उनमें भविष्य के लिए भोजन संग्रह करके रखती हैं। वास्तव में चींटी एक सामाजिक प्राणी है जिसके जीवन से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। मानो विधाता ने ‘गागर में सागर’ समाहित करके चींटी जैसे परिश्रमी एवं अनुशासनप्रिय जीव की संरचना की हो।

मोहिनी तिवारी

Heart’s cry

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Hey women
Are you looking for perfect man
Sorry but this Earth is full of satan
But instead you want to find
You should search him in
paradise
Or should search him in deep light
They don’t want to love you
Believe me or not
But
it’s right
They just want to know your size
It’s doesn’t matter for them
how’s your soul shine
They only looking for body fine
If y’ll get married with him
He’ll start to go gym
No not for you at all
Just for other girls to whom on insta he scroll
Where your right
And when you fight
They stare other girls
And you are keep quite
They treat women just like a toy
And enjoy itself just because they are boy?
They don’t have shame on themselves
Even when they grow old
They still looking for girl bold
No no no it’s enough now
It’s not time to live like a innocent cow
If they are wrong
Then you should strong
If they can shout
Then you should clout
It’s not right they play with you like a game
Now stand
And show them you are a robust Dame.

  • Rudranshi Bhattacharjee

लौट के बुद्धू घर को आए

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मेरी शादी को बीते तीन साल
मैंने किया पति से नेक सवाल
क्यों न मैं करके पीएचडी प्रोफेसर बन जाऊँ ?
दोनों कुलों का मान बढा़ऊँ
पति को बात कुछ समझ न आई
बोले- अब तुम हो दो बच्चों की मांई
कुछ और अधिक कर न पाओगी
व्यर्थ ही अपना भेजा पकाओगी
घर की सब जिम्मेदारियाँ हैं तुम्हारे माथे
मैं बोली- आधी आप क्यों नहीं उठाते ?
शादी की गाड़ी के हम दो सवारी
एक पहिया हल्का और एक है भारी !
पति का माथा ठनक़ा
कहा अपने मन का –
प्रिये, गर देना है रिश्ते को नया आयाम
मन में बसा लो सारे काम
पहियों की इतनी न चिंता करो
दौड़ेगी गाड़ी तुम धीरज धरो
करो वही जो मेरे मन को भाए
जैसे लौट के बुद्धू घर को आए ।

गोबर से चमत्कार : पर्यावरण संरक्षण संग व्यापार

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Mohini Tiwari
अगर मन में कुछ नया करने की ललक हो तो गोबर भी किसी वरदान से कम नहीं। जालंधर से 7 किलोमीटर दूर बुलंदपुर रोड पर स्थित गौशाला इसका जीवंत प्रमाण है।इस गौशाला में गाय के गोबर से बने गमले, यज्ञ-हवन इत्यादि में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी एवं अन्य सामग्रियाँ तैयार की जाती हैं। 7 एकड़ भूमि पर विस्तारित इस गौशाला में 575 गायें हैं जिनसे प्रतिदिन 5 हजार किलो गोबर निकलता है। इतनी अधिक मात्रा में प्रतिदिन गोबर का निस्तारण गौशाला-प्रबंधन के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य था किंतु इस प्रोजेक्ट के शुरू होने के बाद अब यह समस्या हल हो गई है। प्रोजेक्ट की निगरानी करने वाले नगर निगम के सहायक हेल्थ अफसर राजकमल का कहना है कि गमलों के अतिरिक्त हवन में प्रयोग होने वाली सामग्रियों की माँग लगातार बढ़ती जा रही है।जबलपुर की एक कंपनी में इन्हें बनाने की मशीन तैयार की जा रही है जिसकी कीमत 80,000 रुपये है।

पंजाब के जालंधर में लगभग 280 डेयरियाँ हैं। इनमें 28,122 गाय हैं जिनसे रोजाना 2 लाख 80 हजार किलो गोबर निकलता है। वैज्ञानिकों के अनुसार एक ग्राम गोबर में 300 जीवाणु होते हैं तथा गाय के गोबर में विटामिन बी-12 प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो रेडियोधर्मिता को सोखता है। गोबर में मौजूद तत्व पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में अत्यंत उपयोगी हैं। गोबर से बने गमले कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर वातावरण में ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। इन गमलों को पौधों सहित जमीन में लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन्हें अपनी इच्छानुसार रूप-रंग देकर घरों में भी सुरक्षित रखा जा सकता है। नर्सरियों में पॉलिथीन के स्थान पर गोबर से बने गमलों में पौधे लगाने के लिए नर्सरी के कर्मचारियों को जागरूक किया जा रहा है। इन गमलों को पॉलिथीन के विकल्प के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इन विशेषताओं के कारण लोग गोबर से बने गमले खूब पसंद कर रहे हैं। गोबरजनित लकड़ी एवं हवन सामग्रियाँ भी बाजार में धूम मचा रही हैं। समान्यतः आम लकड़ी से हवन करने पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस निकलती है जबकि गोबर से निर्मित लकड़ी का प्रयोग करने पर प्राणवायु ऑक्सीजन निकलती है। कोयले की जगह भी इस लकड़ी का प्रयोग किया जा सकता है। यह ईंधन का एक सुलभ, सस्ता एवं प्रदूषणरहित स्त्रोत है।

नगर निगम की ज्वाइंट कमिश्नर आशिका जैन कहती है कि मध्यप्रदेश के खजुराहो में इसतरह के प्रयोग हो रहे थे। वहाँ की गौशालाओं से प्रेरित होकर उन्होंने इस अनूठी पहल का शुभारंभ किया । गोबर से बने सभी उत्पाद आर्थिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समाज के लिए हितकर है। बुलंदपुर गौशाला के प्रधान रविंदर कक्कड़ कहते हैं कि जब ज्वाइंट कमिश्नर ने यह सुझाव दिया तो बहुत यूनिक लगा। इसके क्रियान्वयन से गोबर का इस्तेमाल एवं खपत दोनों बढ़ गई है। अब अन्य गौशालाओं को भी इसी तर्ज पर काम करने की नसीहत दे रहे हैं।

यूं तो ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर का प्रयोग वर्षों से ही कंडे या उपले बनाने, घरों की लिपाई-पुताई करने एवं खाद के रूप में होता आया है किंतु अब शहरी परिवेश में भी गोबर से बने उत्पादों के प्रति लोगों का रुझान दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।गाय, भैंस अथवा बैल का मल-मूत्र समझा जाने वाला गोबर आज वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक उन्नति के फलस्वरुप व्यापार का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। गोबर से पनपता व्यापार न केवल जरूरतमंदों को रोजगार उपलब्ध करा रहा है अपितु पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी सक्रिय है। यह अत्यंत प्रेरणादायी एवं प्रशंसनीय प्रयास है।

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