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बागों में जामुन, घर में पूड़ी खाते थे।
वो भी क्या दिन थे, जब हम नानी के घर जाते थे।।
दिन में छुपम छुपाई, शाम को गुल्ली डंडे पर डट जाते थे।
वो भी क्या दिन थे, जब हम नानी के घर जाते थे।।
चार दोस्त और एक साईकल, गांव की पगडंडी पर चलाते थे।
वो भी क्या दिन थे, जब हम नानी के घर जाते थे।।
शुग्गे के तोड़े आम और महुआ बिन कर लाते थे।
वो भी क्या दिन थे, जब हम नानी के घर जाते थे।।
न मम्मी डांट लगाती थीं, न पापा चपत लगाते थे।
वो भी क्या दिन थे, जब हम नानी के घर जाते थे।।
नए कपड़े और कुछ पॉकेट मनी भी पाते थे।
वो भी क्या दिन थे, जब हम नानी के घर जाते थे।।
बचपन के वो दिन सपनों की सैर कराते थे।
वो भी क्या दिन थे, जब हम नानी के घर जाते थे।।
=>डॉ आरके सिंह, वन्यजीव विशेषज्ञ, कवि एवम स्तम्भकार