जनवरी 2018, सुबह 5:30 बजे
मेरे फोन की घण्टी ने मेरी तन्द्रा तोड़ी। बड़े अनमने मन से मैंने फोन उठाया। “सर रानी कुछ हरकत नहीं कर रही” उधर से बेहद घबराया स्वर आया। आनन फानन में मैं तुरन्त रानी भालू के बाड़े में पहुंचा। रानी शांत लेटी थी एवम उसका एक हाथ अपने दुलारे पुत्र के ऊपर था, और नवजात शावक अपनी माँ के सीने से लिपटा दूध पी रहा था। काफी प्रयास के बाद भी जब रानी नहीं उठी तो मैंने हिम्मत करके स्वयं बाड़े में जाने का निर्णय लिया। एक नवजात भालू के बच्चे की मां के पास जाना साक्षात मौत का बुलावा होता है, परन्तु इसके अतिरिक्त कोई रास्ता न देख मैं हिम्मत कर अंदर पहुंचा। अंदर के मार्मिक दृश्य ने मुझे ज़िंदगी भर न भूलने वाला एक ऐसा आघात दिया जो मैं शायद ताउम्र न भुला पाऊंगा। नन्हे से शावक को पता ही नहीं था कि उसकी प्यारी माँ उससे बहुत दूर जा चुकी थी। और अब उसके नसीब में माँ का दूध नहीं था। वह एक बेजान लाश का दूध पीने का प्रयास कर रहा था। उसे अब उम्र भर अकेले ही जीवन बिताना था। इसे देख वहाँ उपस्थित सभी लोगो की आंखे भर आईं।
शावक को जितना भी मां से अलग करने का प्रयास किया जाता वह मां से उतना ही लिपटता जाता। कई प्रयासों के बाद किसी तरह शावक को मां से अलग किया जा सका। अब हमारे सामने एक नवजात शावक था जिसका अब तक नामकरण भी नहीं हुआ था। तभी कानपुर चिड़ियाघर के अस्पताल के कीपर ने उसे राजू कहकर पुकारा। राजू के पिता गब्बर को लिवर का कैंसर था। लम्बी बीमारी और इलाज के बाद अभी कुछ दिन पहले ही उसकी मृत्यु हुई थी।
रानी जब मात्र कुछ दिन की थी तभी उसे जंगल में अनाथ पाए जाने पर प्राणिउद्यान लाया गया था। तभी से रानी हम सबकी प्रिय बन गयी थी। उसे बड़ी मेहनत से पाल पोस के बड़ा किया गया था। राजू का पिता गब्बर भी प्राणिउद्यान में ही पला बढ़ा था। और आज एक बार फिर होनी अपने आप को दोहरा रही थी।
पहले कुछ दिन राजू ने कुछ नहीं खाया। उसकी सूनी आंखें सदा मां को ढूढ़ती रहती थीं। वह हमेशा जैसे कहीं खोया रहता था। एक दिशा में निहारती उसकी आँखें स्पष्ट सन्देश देती थीं कि वह अपनी मां का अब भी इंतज़ार कर रहा है। भालू का प्राणिउद्यान में प्रजनन एक दुर्लभ प्रक्रिया है। कानपुर प्राणिउद्यान में पहली बार देशी भालू ने बच्चे को जन्म दिया था। कुछ दिन पहले की समस्त खुशियां अब धूमिल हो रही थीं। दिन प्रतिदिन कमज़ोर हो रहे राजू को बचाना एक चुनौती बनता जा रहा था। कोई रास्ता न देख प्राणिउद्यान के सभी चिकित्सकों ने उसे पेट में नली डाल कर दूध व टॉनिक देने प्रारंभ किये। कई दिनों बाद भी जब उसने स्वयं नहीं खाया तो एक भालू के सॉफ्ट टॉय में राजू की ही शरीर की गंध लगाके उसके सामने डाल दिया गया। आश्चर्य जनक रूप से राजू उससे खेलने लगा। और उसने स्वयम दूध पीना प्रारम्भ कर दिया। उसे अपना साथी बहुत पसंद था। यहां तक कि जब उसे बाहर निकाला जाता तो वह उसे हाथ में पकड़कर ही बाहर आता। नन्हा राजू पिंजरे में कम और अस्पताल परिसर में स्वछंद ज्यादा घूमता था। दिन प्रतिदिन उसकी शैतानियां बढ़ने लगीं। जरा सी डांट पर वह किसी कोने में तब तक छुपा रहता जब तक उसे स्वयं जाकर न बुलाओ। कुछ ही दिनों में वो हमारा ही नहीं मीडिया में व्यापक कवरेज़ के कारण पूरे कानपुर का दुलारा बन गया।
राजू अब एक साल से अधिक का हो गया है। परंतु अब भी अस्पताल के अपने बाड़े में सुबह से हम सबके इंतज़ार में आँखें बिछाए रहता है। वह प्रतिदिन उन सबसे हाथ मिलाने के लिए हाथ बाहर निकालता है जो उसके साथ खेलते थे। वो अब भी प्रयास करता है कि हम बाड़े के अंदर आ जाएं। शाम को लौटते समय वो बाड़े की जाली पर चढ़कर तब तक हमें देखता रहता है जब तक हम सब उसकी आँखों से ओझल नहीं हो जाते। राजू जीवों के उस संसार का प्रतिनिधित्व करता है, जहां दगा-फरेब का स्थान नहीं है औऱ एहसान की कीमत सर्वोपरि है।
बहुत ही मार्मिक स्टोरी के लिए आप को सहृदय धन्यबाद।
मेनी थैंक्स
बहुत ही सुन्दर रचना है एकदम भाऊक ।ऐसी स्थिति चिडिया घर सभी डाक्टर के साथ घटती है ।परंतु आप ने इसे बड़े मार्मिक ढंग से लिखा है डॉक्टर साहब ।
धन्ययवद dr साब
निस्वार्थ स्नेह बंधन
सादर धन्यवाद
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