सात अप्रैल 2017, दिन शुक्रवार, कानपुर प्राणी उद्यान के समस्त स्टाफ में अजब सा उत्साह था, सबको उस पल की क्षण-क्षण प्रतिक्षा थी जो सभी प्राणी उद्यानों में आता तो है मगर यदा कदा। ये वो पल थे जिनका लगभग बीस वर्षों से सभी को इंतजार था । मैं पल-पल अधीर होकर बार-बार सीसीटीवी की स्क्रीन पर दृष्टि डाल रहा था । इसी बीच मेरे फोन ने मेरी एकाग्रता भंग की, प्रदेश की राजधानी से आने वाले शुभ समाचार के संबंध में सूचना मांगी जा रही थी।
एशियाटिक बब्बर शेर, अजय और नंदिनी कानपुर प्राणी उद्यान के सबसे प्रिय युगल जोड़ों में से एक हैं। इन दोनों को अत्यधिक प्रयासों के पश्चात वर्ष 2016 के दिसंबर माह में मेरे द्वारा प्राणी उद्यान के अन्य सहयोगियों के सहयोग से नंदनवन ज़ू, रायपुर से तीन दिन की मैराथन यात्रा के द्वारा लाया गया था। कानपुर प्राणी उद्यान के शेरों का आवास सितंबर 2014 से रिक्त था। प्राणी उद्यान आने वाले दर्शक अक्सर बब्बर शेर ना होने के कारण निराश होकर वापस चले जाते थे। जब अजय और नंदिनी रायपुर से लाये गए थे, तब वे एक दूसरे से परिचित नहीं थे। परंतु यहां आने के पश्चात उन्हें अगल-बगल बाड़ों में रखा गया और उन्हें मिलाने की कोशिश की गई, हालांकि वे दोनों एक दूजे से मिले- जुले नहीं थे। ऐसे में उन्हें मिलाना एक अत्यंत जोखिम भरा कार्य था। परंतु यदि हम इस समय उन्हें ना मिलवाते तो उनकी आने वाली संतान के लिए हमें अगले एक वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ती। क्योंकि इनका गर्भ काल लगभग 105 दिन का होता है, ऐसी स्थिति में हमें अप्रैल माह में नए शावक मिलने की आशा थी जोकि उपयुक्त तापमान होने के कारण शेरों के बच्चों के लिए उत्तम होता है। अतः निर्णय लिया गया कि इनको अभी से ही मिलवाया जाए उसी के परिणाम स्वरुप उनके होने वाले शावकों का सभी को इंतजार था।
कानपुर प्राणी उद्यान में गत लगभग 20 वर्षों से बब्बर शेरों के कोई भी शावक पैदा नहीं हुए थे और यदि हुए भी थे तो किसी ना किसी कारणवश उनकी तत्तकाल मृत्यु हो गई थी। एक तरफ जहाँ उत्साह था तो दूसरी तरफ मन सशंकित भी था। दोपहर के लगभग दो बजे नंदिनी शेरनी ने बच्चों को जन्म देना प्रारंभ किया और तीन घंटे के अंतराल पर दो शावकों को जन्म दिया। शावक अत्यंत कमजोर थे और हमारी खुशियां एक बार पुनः धूमिल होती सी प्रतित हो रही थीं। नंदिनी ने शावकों को काफी प्रतिक्षा के पश्चात भी दूध नहीं पिलाया। मेरी निगाह अधिरता से सीसीटीवी स्क्रीन पर टिकी थी, मुझे व समस्त स्टाफ को एक बार पुनः इतनी मेहनत व प्रतिक्षा के पश्चात आशाएं धूमिल होती नजर आ रही थीं। मेरे अंतरमन के किसी कोने से चलचित्र की भांति तस्वीरें दौड़ने लगीं कि किस प्रकार बड़े प्रयासों व बाघ के एक जोड़े को नन्दनवन प्राणी उद्यान, रायपुर को देने के पश्चात यह वन्य प्राणियों का विनिमय निर्णायक दौर में पहुंचा था। ट्रक से शेरों का जोड़ा लाना एक अत्यंत विषम कार्य था। रास्ते में चिल्फी घाटी के पास निर्जन स्थान पर ट्रक के खराब हो जाने पर स्याह रात के अंधेरे में जहाँ निकट के जंगलों से आती जंगली जानवरों की आवाज़ें माहौल को और भयावह बना रही थीं, वहीं घटाटोप अंधेरे में घाटी को अपने आगोश में लिए कोहरे की चादर शरीर में सनसनाहट पैदा कर रही थी। आसपास कोई भी आबादी न होने से किसी तरह वहीं रात काटने का निर्णय लिया गया। इस बीच ट्रक के चालक व क्लीनर ने स्वयं ट्रक बनाने के लिए प्रयास प्रारंभ किये। क्योंकि उस दिन दोपहर में सभी ने फल और चने खाये थे इसलिए सभी के पेट में चूहे कूदना स्वाभाविक था। संयोग से ट्रक में कुछ आलू रखे थे। इसलिए हमने आग तापते हुए आलू भूनकर खाने का निर्णय लिया। सड़क के किनारे आग जलाकर हम सब बैठ गए। बीच-बीच में कोहरे को चीरती आने-जाने वाले वाहनों की रोशनी हम सब को उद्वेलित कर जाती थी। तभी शेर अजय ने अपने साम्राज्य को दिखाने के लिए दहाड़ना प्रारम्भ किया तो शेरनी नन्दिनी ने भी उसका साथ देना प्रारंभ कर दिया। हमारी यात्रा शुरू होने के पश्चात यह प्रथम बार था कि शेरनी ने शेर का साथ दिया, बस यहीं से मुझे विश्वास हो गया कि इन दोनों की जोड़ी अवश्य शानदार होगी। दोनों के आने से पहले हमने लाखों रुपये खर्च करके उनके बाड़े व हाउस को उनके रहने के अनुकूल बनवाया था। क्योंकि इससे पहले दर्शकों की निरन्तर आवाजाही से उन्हें शांत वातावरण नहीं मिलता था, जिस कारण वे या तो प्रजनन नहीं करते थे, और यदि करते भी थे तो होने वाली सन्तानों को बचाने के लिए अज्ञानता व स्वाभाविक प्राकृतिक वृति के कारण अपने पेट में डाल कर सुरक्षित समझने लगते थे। नई संरचना में ऐसा प्रावधान किया गया था कि दर्शकों या किसी भी अन्य व्यक्ति का आवागमन उनके हाउस के पास से ना हो। नई संरचना में शेरनी के लिए प्रसूति गृह का भी प्रावधान था।
इस बीच कीपर की आवाज़ ने मेरी तन्मयता तोड़ी, उसने बताया कि शावक शेरनी का दूध पीने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इससे पहले कि वह दूध पीना प्रारम्भ करते अचानक उनकी मां नंदिनी ने दोनों शावकों को अपने अगले पांव से आगे हटा दिया और जब जब वे शावक दूध पीने का प्रयास करते वह वापस उन्हें अपने सामने की ओर रख लेती थी। चूंकि शेरों के शावक जन्म के समय अंधे होते हैं तथा लगभग 9 से 16 दिन के पश्चात ही अपनी आंखें खोलते हैं अतः बड़े प्रयासों के पश्चात वे बार-बार अपनी मां का दूध पीने के लिए उसके थन के पास पहुंचते थे मगर माँ उन्हें हटा देती थी। यह देख कर हमारा समस्त स्टाफ अत्यंत निराश हो गया। हमारी सारी मेहनत पानी में फिरती नजर आ रही थी। इस प्रकार लगभग 24 घंटे बीत जाने के पश्चात यह निर्णय लिया गया कि किसी भी तरह से इन शावकों को बचाना होगा। लेकिन इन शावकों को कृत्रिम दूध पिलाने के लिए अपनी मां से अलग करना आवश्यक था। जितना समय बीतता जा रहा था उतनी ही निराशा बढ़ती जा रही थी। हमें कोई ठोस निर्णय लेकर आगे बढ़ना था। मां को बच्चों से अलग करने का काफी प्रयास किया गया परंतु वह अपने बच्चों को छोड़कर टस से मस नहीं हुई। और किसी शेरनी के बच्चे को उसके पास से हटा पाना नामुमकिन कार्य होता है। अतः इस कार्य के लिए मैंने अपने आप को चुना, निर्णय लिया गया कि लोहे के जाल के एक तरफ से स्टाफ के कुछ लोग शेरनी का ध्यान बटाएंगे। एवं दूसरी तरफ लगे हुए शटर को एक कीपर धीरे से इतना ऊपर करेगा कि मेरा हाथ उसके अंदर चला जाए। कार्य जोखिम भरा था परंतु एशियाटिक शेर जैसी दुर्लभ प्रजाति के एक सदस्य को बचाने के लिए यदि थोड़ा जोखिम भरा प्रयास करना पड़े तो उसके लिए मैंने अपने आप को तैयार कर लिया था। तयशुदा प्लान के अनुसार तीन कर्मचारी शेरनी का ध्यान हटाने के लिए हाउस में आए एवं उन्होंने शेरनी के जाल के तरफ से उसका ध्यान हटाने के लिए उसको बार-बार नंदिनी नंदिनी कहकर बुलाना शुरू किया और एक कर्मचारी ने शटर उठाने के लिए उसका व्हील अपने हाथों में ले लिया। उसने जैसे ही हल्का सा शटर उठाया, मैंने बड़ी हिम्मत के साथ अपना हाथ अंदर किया लेकिन इस बीच वह शावक वहां से खिसक कर मेरी पहुंच से दूर हो चुका था। हताश होकर हम लोग पुनः सीसीटीवी कैमरे के सामने बैठ गए और दुबारा उस पल की प्रतिक्षा करने लगे, जब शावक किसी प्रकार से शटर के पास पहुंचे। और जब शावक पुनः शटर के पास पहुंचा, एक बार फिर हमने उसे निकालने का प्रयास किया। शटर ऊपर उठते ही मैंने एक बार फिर अपना हाथ अंदर डाला और इस बार शावक के पिछले पैर मेरे हाथों में थे, इससे पहले की माँ नंदिनी का ध्यान मेरी ओर जाता, मैंने बड़ी फुर्ती से शावक को बाहर निकाल दिया। इसके साथ ही हमारे कर्मचारी ने भी बड़ी तेजी से शटर को नीचे गिरा दिया। शेरनी की दहाड़ से हम सबके कान गूंज उठे। अब दूसरे शावक को निकालने की तैयारी थी। दूसरे शावक को निकालने के लिए हमें अगले लगभग 45 मिनट तक इंतजार करना पड़ा। इस बार निकालते समय कुछ गड़बड़ हो गई। शायद शेरनी नंदिनी अपने पहले शावक के निकाले जाने के समय हुए अनुभव के अनुसार तैयारी से बैठी थी। मेरे हाथ डालते ही स्टाफ ने जोर से आवाज लगाई “सर हाथ बाहर निकालिए”। मैंने तुरंत अपना हाथ बाहर निकाला शटर गिरते- गिरते मुझे शेरनी का पंजा भी दिखाई पड़ गया। भय से मेरे रोंगटे खड़े हो गए क्योंकि शेरनी का एक पंजे का वार मेरे हाथ को मेरे शरीर से अलग कर सकता था। मैं शुक्रगुजार हूं कि मेरा स्टाफ अत्यंत अनुभवी था और उन्होंने मुझे समय से अलर्ट किया लेकिन इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय ना था। कुछ देर पश्चात एक बार पुनः प्रयास किया गया और मैं दूसरे शावक को भी निकालने में सफल रहा। अब अत्यंत परीक्षा की घड़ी थी हमें शेर के बच्चे को कृत्रिम रूप से पालना था। क्यों की शेरनी के दूध में फैट की मात्रा अधिक होती है, अतः ऐसा दूध मिल पाना संभव नहीं था। फिर भी हमने मिल्क पाउडर में अतिरिक्त क्रीम मिलाकर उन्हें पिलाने का प्रयास किया। शुरू में तो वे निप्पल से दूध पीने में असमर्थ थे, अतः एक् सिरिंज में दूध भरकर उनके मुंह में देना प्रारंभ किया गया और यह प्रयास रात भर चलता रहा। दोनों शावक मादा थीं और अपनी तेज आवाज से अपनी मां का ध्यान आकर्षित कर रही थीं। उन्हें हमने एक टब में तौलिए के ऊपर रखा था। मां के त्यागे बच्चे का दुख देख कर हम सभी दुखी थे। एक बच्चा पर्याप्त दूध पी रहा था जबकि दूसरा शावक काफी प्रयासों के पश्चात ही दूध पीता था। दोनों शावक अत्यंत कमजोर थे। दोनों अपने सामान्य बॉडी वेट बारह सौ से पंद्रह सौ ग्राम की जगह मात्र 750 व 800 ग्राम के थे। उन्हें पालना एक बहुत बड़ा चैलेंज था दोनों बच्चों को हर घंटे दूध पिलाना एक जिम्मेवारी वाला एवं तकनीकी विषय था। जिसे केवल एक अनुभवी व्यक्ति ही कर सकता था और जोखिम भरा कार्य होने के कारण इस कार्य के लिए मैंने अपने आप स्वयं को नियुक्त किया। इस बीच दूसरे दिन हमारे द्वारा अमेरिका से पूर्व में आर्डर किए गए बिल्लियों के मिल्क पाउडर की पहली खेप हमें प्राप्त हो गई। लेकिन अफसोस कि हम दूसरे शावक को नहीं बचा पाए। अब हमारे सामने 750 ग्राम की एक शावक थी जो अत्यंत मासूम थी एवं अब हमारी आवाज़ व बॉडी स्मेल से हमें पहचानने लगी थी। उसकी मासूमियत हमें बरबस आकर्षित करती थी और मां की त्यागी वह बच्ची अपनी खूबसूरती से सबकी दुलारी भी बनती जा रही थी। मैंने जब उसकी फोटो अपनी जीवन साथी डॉ आशा सिंह को दिखलाई तो वह बोलीं “इतनी सुंदर यह तो सुंदरी है”। बस उसी समय से उसका नाम सुंदरी हो गया। मैं और मेरे साथ के एक अन्य चिकित्सक डॉक्टर मोहम्मद नासिर व डॉक्टर उमेश चंद्र श्रीवास्तव स्वयं उसकी सेवा में लग गए। सुंदरी धीरे धीरे वेट गेन करने लगी। अब हमारी पूरी उम्मीद इसी पर टिकी थी कि वह प्रतिदिन कितना वेट गेन करती है कभी वह 50 ग्राम कभी 25 ग्राम कभी वह 100 ग्राम प्रतिदिन वेट गेन करने लगी। हम बारी-बारी से रात को भी उसे चार बार दूध पिलाते थे। लेकिन एक दिन अचानक वह भी सुस्त हो गई। हमें एक बार फिर निराशा के बादल दिखाई पड़ने लगे, उसने लगभग दूध पीना छोड़ दिया था। लेकिन दो दिन के उपचार के पश्चात सुंदरी ने पुनः दूध पीना प्रारंभ कर दिया। उसे अमेरिका से आया हुआ दूध बहुत पसंद आ रहा था, क्योंकि उसके अतिरिक्त दिया जाने वाला अन्य दूध उसने पीना छोड़ दिया था। वह अब कदमों की आहट से समझ जाती थी कि हम उसे दूध पिलाने के लिए आ गए हैं। मच्छरों से बचाने के लिए उसे बच्चों वाली मच्छरदानी के अंदर रख दिया जाता था वह अपने टब में इधर-उधर घूमती रहती थी। ठीक नौवें दिन सुंदरी ने इस दुनिया को देखने के लिए अपनी आंखें खोली। हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसकी चंचलता आंखें खुलने के बाद से निरंतर बढ़ती जा रही थी। वह टब जिसमें उस ने अपनी ज़िन्दगी के पहले 12 दिन काटे थे, वह उसके लिए अब छोटा पड़ने लगा था। उसे अब और बड़े स्थान की आवश्यकता थी। इसलिए एक बड़ी मच्छरदानी के अंदर उसे रखा गया, लेकिन अकेलापन उसे भी कचोटता था। दूध पिला कर लौटते समय वह अत्यंत मासूमियत और दुख भरी निगाह से हमारी ओर देखती थी, जैसे कह रही हो कि मेरे संग रहीये और यही मेरे साथ खेलिए। इसलिए उसे एक सॉफ्ट टॉय के रूप में छोटा सा टाइगर और एक छोटा सा शेर दिया गया। यह प्रयोग अत्यंत लाभदायक सिद्ध हुआ, और सुंदरी ने उन दोनों में अपना बचपन का साथी ढूंढ लिया। उनके साथ उसका खेलना, उठाना, पटकना और दातों से काटना मन को प्रफुल्लित कर देता था। अब उसके नाखून बड़े होने लगे थे और वह अनजाने में अपने नाखून हमारे हाथों में गड़ा देती थी। इसलिए अब हाथों में कपड़े लपेट कर उसको दूध पिलाना प्रारंभ करना पड़ा। और बड़ी हो जाने पर उसके लिए एक बड़ा सा मच्छर जाली लगवा कर पिंजरा बनवाया गया। दूध पिलाने के बाद उसको उसी में रख दिया जाता था। लेकिन सुंदरी उसमें जाना नहीं चाहती थी और बहुत प्रयास करती थी कि किसी तरीके से दूध पीने के पश्चात वह हम लोगों के साथ ही रहे। लेकिन प्रकृति के नियम के अनुसार उसे हमेशा अपने साथ रखना सुंदरी के लिए लाभदायक नहीं था। क्योंकि सुंदरी को एक दिन इस चिड़िया घर पर राज करना था। वह जंगलों की रानी थी और उसको वैसा ही बनना था जैसा एक जंगल की शेरनी होती है। अब वह हमारे कदमों की आहट दूर से ही सुनकर आवाज लगाने लगती थी। और उसके कमरे में हम लोगों के प्रवेश करते ही वह अपने आपको पिंजरे से निकालने के लिए पिंजरे के दरवाजे पर नाखून रगड़ने लगती थी। और बाहर निकलते ही हमारे कदमों को पकड़कर प्यार भरे कुछ संदेश देती थी। बैठ जाने पर वह कभी हमारे कंधे पर चढ़ती, कभी हमारे पांव पर आ कर लेट जाती थी। हाँ, उसे अपने गले में गुदगुदी करवाना बड़ा अच्छा लगता था। शांत भाव से वह गुदगुदी कराती थी और यह प्रवृत्ति उसकी आज भी नहीं गई। धीरे-धीरे सुंदरी के दांत बड़े हो रहे थे और अब उसे शोरबे के साथ ही साथ मीट के छोटे-छोटे टुकड़े देना भी शुरू करना था। उसे सबसे पहले चिकन के छोटे-छोटे टुकड़े लगभग डेढ़ माह के पश्चात दिए गए। हाँ, इसके पूर्व उसे लगभग 20 दिन की आयु से दूध और थोड़ा थोड़ा शोरबा भी दिया जाने लगा था। उसने बड़े चाव से पहले ही दिन मुर्गे के मीट को खाया और उसे खाता हुआ देखकर मुझे भविष्य की कल्पना हो रही थी। सुंदरी को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे थे। लेकिन अभी सुंदरी सिर्फ समाचार पत्रों में ही दर्शकों के लिए उपलब्ध थी। टीवी चैनल्स या अन्य किसी भी मीडिया कर्मी और बाहरी व्यक्ति को उसके पास जाना प्रतिबंधित था, क्योंकि सुंदरी ने मां का दूध नहीं पिया था, और ऐसे शावक या बच्चे माँ का दूध ना मिलने के कारण रोगों से लड़ने में असमर्थ होते हैं। इसलिए पहले उसको इस लायक बनाना था कि वह बाहरी संक्रमणों से भी लड़ सके। इसके लिए उसे कई प्रकार के इम्यूनिटी बूस्टर और दवाएं दी जा रही थीं। मीडिया एवं दर्शकों की मांग पर उसका एक वीडियो एवं फोटो प्रेस रिलीज के तौर पर दिया गया। अगले दिन सारे समाचार पत्र सुंदरी की फोटो से भरे हुए थे। हमारे जू में दर्शकों की संख्या बढ़ गई थी। लोग इस उम्मीद से आने लगे थे कि शायद प्रतिदिन अखबारों की सुर्खियां बटोर रही सुंदरी को शायद वह भी देख सकते हैं। लेकिन सुंदरी अभी इसके लिए तैयार नहीं थी। सुंदरी धीरे-धीरे शारीरिक रूप से मजबूत हो रही थी और उसने अब एक सामान्य शेर के बच्चे की तरह खाना प्रारंभ कर दिया था। और उसके शरीर का भार भी सामान्य हो गया था। धीरे-धीरे वह दिन भी आया जब मीडिया बंधुओं को सुंदरी के समक्ष प्रस्तुत किया गया। और इसके कुछ दिन पश्चात दर्शकों के लिए सुंदरी को बाड़े में छोड़ा गया।
प्रतिदिन मीडिया की सुर्खियां बटोरती सुंदरी जहाँ एक तरफ विश्व पटल पर सहानुभूति एकत्र कर रही थी, वहीं उसकी माँ नन्दिनी के प्रति दर्शकों की टिप्पणियां व मीडिया के प्रश्न स्पष्ट रूप से इंगित कर रहे थे कि नन्दिनी की भूमिका एक खलनायक की तरह होती जा रही थी। मेरे पास ईमेल, फोन आदि पर अनजाने लोगों के प्रश्न आने लगे थे कि क्या नन्दिनी अच्छी माँ नहीं है, आखिर नन्दिनी ने सुंदरी को क्यों त्यागा? कम ही लोगों को एहसास था कि असली नायिका तो माँ नन्दिनी थी, जिसने अपनी प्रजाति को प्राकृतिक रूप से मजबूती से कायम रखने के लिए अपनी ममता का गला घोंटा था। नन्दिनी जानती थी कि शेर जंगल का राजा होता है और राजा को शारीरिक रूप से मजबूत होना आवश्यक होता है। उसे अपनी सत्ता कायम रखने को जहाँ विरोधी शेरों के गुटों से लड़ाइयां लड़नी होती हैं वहीं अपना व अपने कुनबे का पेट भरने के लिए शेरनियों को ग़ज़ब की चपलता व ताकत से शिकार करना होता है। ऐसे में कमजोर बच्चे पूरी नस्ल को समाप्त करवा सकते हैं। यदि कमजोर शावक आगे जीते तो वे जीवन भर कुनबे पर बोझ बन सकते थे तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने से वे तमाम रोगों के शिकार हो सकते थे। ऐसे में माँ नन्दिनी ने अपनी ममता का त्याग कर अपने कुनबे के लिए त्याग व समर्पण की एक मिसाल प्रस्तुत की है।
आज सुंदरी बड़ी हो गई है लेकिन उसकी मासूमियत और चंचलता आज भी वही है। वह अभी भी हमसे आशा करती है कि हम उसके गले में गुदगुदी करेंगे और आश्चर्यजनक रूप से ऐसा करने पर उसी प्रकार लेट जाती है। शायद यह वह अनुभव है जो जिंदगी में एक बार मिलता है और यह वह बंधन है जो उम्र भर मुझे सुंदरी से अलग नहीं कर पाएगा।
-डॉ राकेश कुमार सिंह
बहुत ही सुंदर लेख आदरणीय सर , वाइल्डलाइफ के प्रति आप के किये गए सहरानीय कार्य को हमेशा याद किया जाएगा , वन और वन्यजीवों के लिये संरक्षण के लिए आप के जागरूक अभियान और इस तरह के लेख समाज को नई ऊर्जा प्रदान करेंगे……
Many thanks
Bahut sundar … Ye sirf story nahi ek jindgi hai sundari ki sur han dr sahab ki bhi… Bahut shukriya
Sunder ahsash sir ji abhi tak mere samne sab story hakikat me dikh rahi hai . Best work sir ji . Thanks far this truth.
Dhanyawad
एक जीवंत कथानक जिसने रौंगटे खड़े कर दिए….आप एवं आपकी टीम बधाई के पात्र हैं।
आप सबका सहयोग व प्रेम अद्वितीय है
सुंदरी के बारे में विस्तृत जानकारी पढ़ कर रोमांचित हो उठा । बधाई
कोटि कोटि धन्यवाद
बच्चे जैसा प्यार और दुलार।।।।बहुत खूब सर्
धन्यवाद पंकज जी
Bahut sunder dr.R.K.Singh.You are real veteranian n human being also.I am proud of you. Dr.C.K.Shula
Sir your blessings and support are priceless
Nice and motivating story,,, hat’s off RK singhSab,,,
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
Attractive and heartfelt emotions expressed with delicate words. Really admirable sir.
Many many thanks for your kind words
Sir app ki mehnat ko ham salute karte hae
धन्यवाद प्रिय प्रवीण
ye sachhayi adbhud hai sr… aapne apni jaan ki parwaah n karte hue bhi is sarahniya kaam ko mukaam diya…..aap hamare Aadrash rahenge sr..
बहुत बहुत धन्यवाद प्रिय हर्षजी
Very nice …commendable work sir jii
बहुत बहुत धन्यवाद प्रिय हर्षजी
Many thanks for nice words
Bahut hi sundar …pad rahe the to aisa lag raha tha jaise hum bhi vaha us samay rahe ho …wonderful naration ..n great job ..aap ki itni mehnat aur safal prayason se hi kanpur zoo ka itna naam badha hai …
Heartiest congratulations to u all …
It’s mind blowing sir,
Your passion towards wild life and your courage to face difficult situations is always a inspiration to us…the young vets..
I m proud to be a veterinarian.
Thank you for such motivational article.
Dear Dr suraj, the love and affection shown by u is unparall
Very nice Sir….
Sir your support is priceless
This kind of work requires passion, knowledge and patience, I will like to congratulate you for this achievement. I like the article and would like to see in future too.
Sir mai apke post ko hamesa follow karta rahta hu… ap aur apki story bahut he inspired karti hai mujhe… sir apse aur apke dwara bachaye hue ek nanhi si jaan *SUNDRI* se ek bar milne ki kwahish hai…
बहुत बहुत धन्यवाद
To, GP VERMA SIR,
Sir, I daily receive admirable comments FROM known and unknown. Even few persons have started calling me on phone for the article. Many thanks boss for giving me opportunity. I never expected that the story will be this much liked. Regards
आपके द्वारा दो अदभूत प्यार की मिशाल पेश की गई है।
१_शेरनी की मां का प्यार। २_प्राकृतिक प्यार – जिससे सुंदरी का जन्म सफल हुआ है।आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार व्यक्त करता हूं इस कार्य के लिए।
बहुत अच्छा प्रयास जो सफल रहा है। बधाई के पात्र आप है।
I know Dr Singh personally and had worked in a wildlife related project with him. Dr Singh is an extraordinary person who works beyond his working hours with full dedication, passion and commitment. No doubt this will be reward for him. He always set an example for others to follow. Congrats Dr Singh
Dr Subhradip Karmakar, AIIMS, Delhi
Many many thanks sir for your love
अत्यंत सुन्दर व मन को पुलकित करने वाला अनुकरणीय कार्य 🙏🙏
धन्यवाद बॉस
Doctor sahab apka yeh upkar hai kanpur zoo par. aap jaisa Singh hi ek sher ko pal sakta hai. dhayna hain aap.
आप के प्रेम हेतु धन्यवाद
सर, आपके समर्पण की तारीफ़ पापा (श्री प्रफुल्ल मेहरोत्रा) जी से सुनती आ रही हूँ। और ये पढ़ कर बड़ा अच्छा लगा
धन्यवाद , आपके पिताजी का सहयोग अमूल्य है
Wah sir, really appreciated because your love and devotion towards animal.
How you care like your own child, my big salute to you.
Many thanks sir
पूरा लेख पढ़ने के बाद ऐसा लग रहा था कि मैं अभी सुंदरी के पास हूं और आप के कैरेक्टर में मैं अपने आप को पा रहा था बहुत-बहुत बधाई बहुत सुंदर सजीव लेख के लिए
सादर धन्यवाद बड़े भैया।
आप सबके प्रेम व सहयोग से ही यह सब सम्भव हो सका
सादर
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