
सुधियों के झुरमुट ना होते-
तुम फिर मेरे पास न होते
मुग्ध पलों के पृष्ठ बांचने-
आये सावन के साक्षी घन
खिड़की से कमरे में आकर-
बूंदें दिखलातीं अपनापन
खुशबू के आभास न होते-
तुम फिर मेरे पास न होते
चीड़ वनों में घाटी गायें-
पर्वत श्रोता बन जाते हैं
झरनों की नूपुर धुन सुनकर-
इंद्रधनुष भी तन जाते हैं
मौसम के ये रास न होते-
तुम फिर मेरे पास न होते
बहुत तेज है धार नदी की-
पल-पल ढहती रहीं कगारें
जीवन के इस कठिन मोड़ पर-
यादें लाती रहीं बहारें
छवियों के जो दास न होते-
तुम फिर मेरे पास न होते