मेरा संघर्ष- एक गैंडे की आत्मकथा

5
4897
Dr. Asha Singh
मैं अब एक इतिहास हूँ। मैं अब मौजूद हूँ । वाइल्डलाइफ की किताबों में, मेरी यादें आज भी कानपुर प्राणिउद्यान के रोम रोम में बसी हैं। मैं आज भी अपने आपको अपने उसी बाड़े में पाता हूँ। हांलाकि मैं अब दिखता नहीं । मैं आज भी मौजूद हूँ,प्राणी उद्यान के एक-एक पत्ते, ज़र्रे और एक एक मेरे साथियों के दिलो दिमाग में।
जी हाँ, मैं रोहित हूँ। मैंने सन 1989  में पहली बार अपनी आंखें खोलीं तो मेरी माँ मयंग कुमारी और पिता लछित मेरे सामने थी। आने- जाने वाले दर्शक मुझे छोटा गैंडा कहते थे तो मैं उनके पास जाने की कोशिश करता और मेरे पास जाते ही छोटे बच्चे तालियां बजाते। मैं खुश हो जाता था। मुझे अपना बाड़ा बहुत पसंद था । उसमे मैं कूदता, भागता था।
वक़्त कैसे और कब बीत गया मुझे पता ही नहीं चला और अब मेरा अपना अलग बाड़ा था। मैं अपने जीवन से खुश था ।प्राणी उद्यान के कर्मचारी मेरा पूरा ध्यान रखते थे। डॉ उमेश चन्द्र श्रीवास्तव तो विशेष रूप से मेरे स्वास्थ्य के प्रति सजग रहते थे।
अब मेरा युवा मन मुझे बरबस मेरे बगल के बाड़े में रहने वाली मेरी प्रेयसी छुटकी से मिलने का करता था। मैं बीच बीच में उस ओर जाता था । वो भी मेरे नज़दीक आने का प्रयास करती थी। ये कई दिन चलता रहा । एक दिन हमारी प्रेम कहानी सबको पता चल गई। हमारे दाम्पत्य जीवन की शरुआत हुई। मेरी जीवन संगिनी ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया।  इसी बीच डॉ यू सी श्रीवास्तव के साथ एक और डॉक्टर आने लगे और धीरे धीरे उनसे भी मैं घुल मिल गया। यह वही डॉ आर के सिंह थे जिन्होंने मेरी जान बचाने के लिए डॉ यू सी श्रीवास्तव के साथ अपनी जान भी दांव पर लगा दी थी। मैंने उन दोनों से एक अज़ीब सा रिश्ता बना लिया था।
सब कुछ ठीक चल रहा था पर एक दिन वर्ष 2008 में, मुझे याद है उस दिन होली थी। मेरी संगिनी छुटकी मुझे छोड़ के इस दुनिया से रुख़सत हो गयी। मैं अब बरबस अपनी संगिनी छुटकी को याद कर उदास हो जाता था। मुझे अब भी लगता था कि वो बगल के बाड़े में खड़ी है।
इसी तरह चार साल निकल गए और मेरे अकेलेपन को दूर करने के लिए मेरी नई जीवन संगिनी मानु आयी। हमने नए सिरे से जीवन प्रारंभ किया और मैं दो पुत्रों पवन व कृष्णा का पिता बना। मैं एक बार फिर अपने जीवन और परिवार के साथ खुश था। पर नियति को कुछ और मंज़ूर था ।
एक दिन मुझे पेट में हल्का दर्द महसूस हुआ । दो दिन पश्चात मेरी पीड़ा बढ़ने लगी ।  मैं  निढाल होकर लेट गया । तभी प्राणी उद्यान के डॉ.आर .के. सिंह व डॉ. यू. सी. श्रीवास्तव की दृष्टि मुझपर पढ़ी । वे रुक गए। मैं उन्हें परेशान तो नहीं करना चाहता था । पर अपनी पीड़ा छुपा पाना अब मुश्किल था। उनके इंजेक्शन से मुझे बड़ा डर लगता था।  एक तो इतना बड़ा इंजेक्शन उसपर बन्दूक से निशाना साधकर इंजेक्शन मारना। मैं भरसक प्रयास करता था पर उनके अचूक निशाने से मैं शायद ही कभी नही बच पाया।
मैं समझ गया आज फिर मुझपे निशाना लगने वाला है, पर आश्चर्य जब वो वापस आये तो ख़ाली हाथ थे। उन्होंने कुछ गोलियां कीपर को दीं । गोलियां कड़वी ज़रूर थीं पर मैंने केले के साथ खा लीं। मेरा दर्द बढ़ता जा रहा था । मैं चाह कर भी कुछ नहीं खा पाता था। अब गोलियां खाना भी दूभर हो गया था। मेरा स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया था। डॉ.आर.के.सिंह अब रात को भी दो बार मुझे देखने आते थे । मुझे पास बुलाकर चुपचाप धोखे से मेरे मुंह में दवा की पूरी शीशी उड़ेल देते थे। वह प्रतिदिन हमारे कम देखने की क्षमता का लाभ उठाकर कुछ ना कुछ दवा मेरे मुंह में रात के अंधेरे में डाल देते थे। चिकित्सक व स्टाफ मेरी सेवा में लगे थे, बाहर के चिकित्सक भी मुझे देखने को बुलाये गए।
उस रात डॉ.आर.के.सिंह व एक कर्मचारी ने मेरे चिड़चिड़ेपन व गुस्से के बावजूद अभूतपूर्व कदम उठाते हुए रात के अंधेरे में एनीमा दिया। अगले दिन मैं स्वस्थ महसूस कर रहा था । मेरा पेट अब हल्का था । मेरा हाज़मा अब ठीक था। लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही दर्द । इस बार मैं दर्द से अधिक गुस्सेल हो गया मैंने कुछ नहीं खाया। किसी के पास नहीं आने दिया। लेकिन प्राणी उद्यान के चिकित्सकों, जिनमें अब डॉ. नासिर भी जुड़ गए थे, को चाह कर भी मैं रोक ना सका। उन्होंने मेरे गुस्सेल स्वभाव की परवाह किये बिना मुझे पास आकर ना केवल इंजेक्शन लगाए बल्कि एनीमा भी दिया। मैं एक बार पुनः स्वस्थ हुआ। मगर कुछ माह बाद फिर वही दर्द, अब तो दर्द और मेरा पल- पल का रिश्ता हो गया था।
मुझे लगने लगा था अब शायद पूरी ज़िंदगी ऐसे ही जीना पढ़ेगा । मेरा विशालकाय शरीर अब निर्बल और कमज़ोर हो रहा था। मेरे बीमार पड़ने की आवृत्ति बढ़ती जा रही थी। एक दिन मैंने अपने चिकित्सकों से सुना कि मेरी आंतों में या तो कोई पाउच बन गया है या वे उलझ रही हैं या फिर मुझे कैंसर है। अभी मैं जीना चाहता था । लेकिन शायद भाग्य ने मेरे लिए कुछ और ही लिख रखा था। जिंदगी धीरे धीरे मेरे हाथ से रेत की तरह फिसल रही थी। मैं अब प्राणी उद्यान स्टाफ ओर चिकित्सकों को उदास नहीं देख सकता था। मैं एक दिन पूरी कोशिश कर उठ खड़ा हुआ । उस दिन खाने की कोशिश भी की। मैंने अपने चिकित्सकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी कि अब मैं उनके हर इंजेक्शन, हर दवा , हर प्रयास का समर्थन करूंगा।
 मुझे याद है उस पूरी रात डॉ आर के सिंह मेरे पास ही बैठे रहे । मेरा मन हुआ कह दूं अब विदा होने का समय आ गया है । परंतु उनके दिल को दुःखी ना करने के लिए उनके कहते ही मैं अंतिम बार उठ खड़ा हुआ। लेकिन मेरी शक्ति जल्द ही जवाब दे गई । मैंने घूम कर अपनी जीवन संगिनी मानु को देखा और आंखों ही आंखों में क्षमा मांगी कि “मैं जीवन भर तुम्हारा साथ ना दे सका”।
मेरी आंखें बोझिल थीं। वह बाड़ा, प्राणी उद्यान की यादें सब मेरी आंखों के सामने घूमने लगीं। मैं थक चुका था अनायास ही मैं बैठ गया। सब मेरी ओर देख रहे थे। डॉ आर के सिंह का हाथ मेरे सिर पर था । मैं सबकी आंखों का दर्द महसूस कर रहा था । नया वर्ष 2015 आने में 2 दिन बाकी थे । मगर मेरी किताब के पन्ने भर चुके थे। मेरा निढाल शरीर जैसे कह रहा था, रोहित तू कभी नहीं समाप्त होगा । तेरी आत्मा सदा इस प्राणिउद्यान में युग युग तक सन्देश देगी कि असाध्य रोग से भी अंतिम सांस तक हँस के और हिम्मत से लड़ा जाता है। दूर क्षितिज पर सुबह का अंतिम तारा अभी भी चमक रहा था। अलविदा दोस्तों, “मैं रोहित हूँ”।

5 COMMENTS

Comments are closed.