साहित्य में ठगी……..!

0
1097
G.P.VARMA
साहित्य में चोरी का आरोप नया नहीं। रचनाकारों का लुटना भी आम है।लेकिन उन्हें ठगा जाना गले नहीं उतरता।कुछ दिन पूर्व दिल्ली में एक विशाल पुस्तक मेले का आयोजन हुआ था।वहां प्रकाशकों का जमघट था।अनेक नई व पुरानी पुस्तकों का वहाँ अपार भंडार था।कुछ नई पुस्तकों का विमोचन भी होना था।वह हुआ भी ।
इस विमोचन में कुछ रचनाकारों के साथ ठगी हो गयी। अपनी पुस्तक के विमोचन अवसर पर शामिल होने के लिए वह दिल्ली पहुँचे ।होटल में ठहरे।अच्छा खासा खर्चा आया।लेकिन दुःख तब हुआ जब उनके हाथ कुछ नही आया।उनकी पुस्तक का विमोचन नही हुआ।उन्हें निराशा और हताश मब से अपबे अपने शहरों को लौटना पड़ा।
मेरे एक मित्र रचनाकार भी जब वापस आये तो बहुत उदास थे।बधुत पूछने पर बताया कि उन्होंने एक कहानी संग्रह तैयार किया था।वह किसी प्रकाशक की खोज में थे जो उनके काव्य संग्रह को प्रकाशित्वकर दे।उन्होंने अनेक बड़े व छोटे प्रकाशकों से संपर्क किया।बात नही बनी।
एक दिन फेस बुक के माध्यम से उनका संपर्क एक प्रकाशक से हुआ।प्रकाशक ने बताया कि वह पच्चीस नवोदित किंतु विलक्षण रचनाकारों  की कृतियों के साथ प्रकाशन व्यवसाय में उतर रहा है। इन रचनाकारों की कृतियाँ ओजपूर्ण हैं किंतु हिंदी साहित्य में यह सभी गुमनामी का दंश झेल रहे हैं।उसने आश्वाशन दिया कि सभी प्रकाशित पुस्तकों का प्रचार फेस बुक पर धूम धाम से होगा।
मेरे मित्र प्रकाशक से प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी पांडुलिपी उसे दे दी।रॉयल्टी तय हो गयी थी।लेकिन शर्तों की लिखा पढ़ी अभी शेष थी।पुस्तक प्रकाशन के लिए रुपये दस हजार की अग्रिम धनराशि भी मेरे मित्र ने प्रकाशक के अनुरोध पर उसको दे दी ।यह राशि पुस्तक के प्रकाशन के बाद वापस दी जानी थी।
कुछ डिंबाद प्रकाशक का फ़ोन आया कि आर्थिक संकट आ गया है।संभव हो तो बीस हजार रुपये तुरंत दे दें ताकि पुस्तक प्रकाशन का कार्य न रुके।कुल तीस हजार रुपये की यह राशि मेला खत्म हो जाने पर लौटा दी जाएगी ।इस राशि पर व्याज नहीं दिया जाएगा।बाद में प्रतिवर्ष निर्धारित रॉयल्टी का भुगतान होता रहेगा।
लेखक ने प्रकाशक की बात मान ली ।उसे बीस हजार रुपये दे दिए। प्रकाशक ने मेले के दूसरे दिन पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम रखा।प्रकाशक ने मेले में हाल तथा स्टाल का नंबर भी बता दिया।
लेखक नियत तिथि व समय पर मेला स्थल पहुँच गए।उनके साथ उनके कुछ अभिन्न मित्र भी थे।सभी लोग बहुत देर तक वह बताए गये नंबर वाला कक्ष तथा स्टाल ढूढ़ते रहे।लेकिन दोनों में से कुछ भी नहीं मिला।
थक कर उन्होंने प्रकाशक को फ़ोन मिलाया पर फ़ोन नही उठा।फ़ोन बन्द था।काफी कठिनाई के बाद उन्होंने उसका पता खोज निकाला।वह गाज़ियाबाद का रहने वाला था।वहां पहुचने पर पता चला कि वह प्रकाशन उद्योग में आने से पहले कबाड़ का काम करता था।बाजार में उसकी  उधारी बढ़ गयी थी।एक दिन वह बिना किसी को बताये वह किराए के मकान  को छोड़कर चला गया।मकान का किराया भी नही दे गया।
वहीं लेखक की मुलाकात तीन अन्य रचनाकारों से हुई।उनकी भी पीड़ा समान ही थी।वह भी ठगी के शिकार हुए थे। ठगे गये रचनाकार एक दूसरे से अपनी व्यथा बताने लगे।उन्हे शिकायत यह नही की उनकी पुस्तक का न तो प्रकाशन हुआ और न ही उसका विमोचन।उनकी परेशानी थी कि उन्होंने अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा भाग ठगी को होम कर दिया।वह अपनी यह पीढ़ा किसी दूसरे को बता भी नही सकते थे। भला कैसे बताते की पैसा देकर पुस्तक छपवाने गए थे और ठगे गए।
वह यह सोचकर ही स्वयं को ढांढस बंधा रहे थे कि शायद “खरीदे” हुए सम्मान से साहित्य की दुनियां ऐसे ही चलती है।रचनाकार कभी लुटता है । कभी ठगा जाता है।फिर भी यदि वह ढिठाई नही छोड़ता तो उसकी रचना की मौलिकता भी पोस्टमार्डम के दायरे में आ जाती है।उनको संवेदनशील मन अवशाद के दल-दल में फंस जाता है।